26 जून की रात नरसिंहपुर जिले के गांव मड़गुला के अहिरवार (अनुसूचित जाति) समुदाय के लोगों के लिए जानलेवा साबित हुई, जब उनके ही गांव के दबंग राजपूतों ने लाठी, बल्लम, तलवार और हॉकी से उन पर हमला कर दिया. इस दौरान अहिरवार मोहल्ले के बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया. इस हमले में एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है और करीब 17 लोग घायल हैं जिसमें से सात लोगों की हालत गंभीर है. पूरा मामला खेतों में कम मजदूरी पर काम करने से इनकार कर देने का है, जिसके बाद सबक सिखाने के लिए इस हमले को अंजाम दिया गया. गौरतलब है कि इस गांव में अहिरवार समुदाय का उत्पीड़न नया नहीं है. इससे पहले भी वहां इस तरह की घटनाएं होती रही हैं. 2009 में यहां इस तरह की बड़ी वारदात तब हुई थी जब मड़गुला और आसपास के गांवों के अहिरवार समुदाय ने मृत मवेशियों को न उठाने का निर्णय लिया था. इसके बाद गांव की दबंग जातियों द्वारा उनपर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध थोप दिया गया.
26 जून की घटना के बाद से सभी अहिरवार परिवारों ने गांव छोड़ दिया है और वर्तमान में गाडरवारा नगरपालिका के मंगल भवन परिसर में रह रहे हैं, पीड़ितों का कहना है कि उनका ठीक से इलाज नहीं किया जा रहा है. कई लोगों को समय से पहले ही अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया और उन्हें दवाइयां भी बाहर से पैसे देकर खरीदनी पड़ रही हैं. सभी लोग दहशत में हैं और किसी भी कीमत पर गांव वापस नहीं जाना चाहते.
पीड़ितों के अनुसार पूरा घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है. घटना से दो दिन पहले सुबह महादेव राजपूत और भगवान अहिरवार के बीच दो एकड़ खेत में तुअर के फर्रे बीनने की बात 1000 रुपये में तय हुई, जब भगवान अहिरवार महादेव के खेत में गया तो पाया कि खेत दो एकड़ का नहीं बल्कि साढ़े तीन एकड़ का था. इसके बाद वह काम करने नहीं गया, बाद में मिलने पर जब महादेव राजपूत ने भगवान से पूछा कि तुम काम पर क्यों नहीं आए तो भगवान ने उसे यह कहते हुए काम करने से मना कर दिया कि जमीन साढ़े तीन एकड़ की है जबकि सौदा दो ही एकड़ का हुआ है. इसी बात को लेकर दोनों के बीच कहासुनी हो गई और महादेव राजपूत ने भगवान अहिरवार की जूते से पिटाई कर दी और उसे जातिगत गाली देते हुए कहा कि ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई काम से मना करने की… यह हमारा खेत है तो हम जानेंगे कि कितना बड़ा है कि तुम जानोगे.’ उस समय भगवान अहिरवार वापस आ गया लेकिन बाद में मौका पाकर उसने साइकिल की चेन से महादेव राजपूत पर तीन वार किए. इसके बाद रात में आठ-साढ़े आठ बजे के बीच बड़ी संख्या में राजपूत समुदाय के लोगों ने अहिरवार मोहल्ले पर हमला कर दिया. उस समय कुछ लोग खाना खा रहे थे तो कुछ सो रहे थे. हमला करने से पहले बिजली भी काट दी गई थी. पीड़ितों का कहना है कि करीब पंैतीस से चालीस हमलावर थे, सभी के हाथों में लाठी, बल्लम, तलवार और हॉकी जैसे हथियार थे. इस दौरान घरों में तोड़-फोड़ भी की गई. कई लोगों की गाड़ियां भी जला दी गईं.
धर्मेंद्र अहिरवार, जिनके ताऊ की इस हमले में मौत हो गई, बताते हैं कि हमले के समय वे घर पर ही थे और तखत के नीचे छुपकर उन्होंने अपनी जान बचाई. हमलावरों के वापस जाने के बाद धर्मेंद्र ने सबसे पहले 108 नंबर पर एंबुलेंस के लिए फोन किया लेकिन वहां बात करने वाले ने यह कहते हुए फोन काट दिया कि उन्हें नींद आ रही है और वे नहीं आ सकते. धर्मेंद्र ने दोबारा फोन लगाया तो वहां से एक नंबर देते हुए कहा गया कि एंबुलेंस के लिए ऑनलाइन नरसिंहपुर पर बात करो. धर्मेंद्र ने जब दिए गए नंबर पर बात की तो वहां से एक और फोन नंबर दिया गया जो कि साईखेड़ा थाने का था. इसके बाद धर्मेंद्र ने साईखेड़ा थाने में फोन किया, जहां उनकी थानेदार से बात हुई, जिसके करीब 45 मिनट बाद पुलिस गांव पहुंची.
[box]
‘कुछ लोग अस्पताल आकर दबाव डालने और डराने की कोशिश कर रहे हैं’
इस पूरे घटनाक्रम में जिस एक व्यक्ति की मौत हुई है वह राजू अहिरवार के पिता अजुद्दा अहिरवार थे. 25 साल के राजू अहिरवार भी बुरी तरह से घायल हैं और इस समय उनका गाडरवारा के सरकारी अस्पताल में इलाज चल रहा है. राजू के दोनों पैर और एक हाथ पर गंभीर चोटें आई हैं. घटना के बाद उन्हें जबलपुर शासकीय विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उन्हें केवल तीन दिन तक रखा गया. उसके बाद उन्हें अस्पताल से जबरदस्ती डिस्चार्ज कर दिया गया. राजू का कहना है कि मेरे पिता जी नहीं रहेे, इस वजह से मैं सदमे में था. उसी दौरान मुझसे डिस्चार्ज पेपर पर दस्तखत करा लिए गए. राजू बताते हैं कि जब वे जबलपुर अस्पताल में भर्ती थे तब उनके तीन हजार रुपये तक खर्च हो गए थे क्योंकि उन्हें बाहर से दवा लाने को कहा जाता था. गाडरवारा अस्पताल में भी यही हो रहा है. यहां भी बाहर से दवा लेने में उनके करीब चार हजार रुपये खर्च हो चुके हैं. वे कहते हैं कि यहां पर मेरा सही इलाज नहीं हो रहा है, डॉक्टर ध्यान नहीं देते और दूर से ही देखकर चले जाते हैं, अगर इसी तरह से मेरा इलाज चला तो मुझे ठीक होने में एक साल भी लग सकता है.
पिता की मृत्यु के बाद राजू के घर में अब कोई कमाने वाला नहीं है. घर में राजू के अलावा उसके बूढ़े दादा-दादी हैं, वे भी हमले मेंे घायल हुए हैं. इसके अलावा परिवार में उनकी मां और पंद्रह साल का भाई है. ये सभी लोग गाडरवारा के मंगल भवन में रह रहे हैं. अभी मुआवजे के रूप में उन्हें पिताजी की अंत्येष्टि के लिए 4000 रुपये मिले थे जो उसी में खर्च हो चुके हैं. राजू अहिरवार का कहना है कि उन पर राजीनामे के लिए लगातार दबाव बनाया जा रहा है. कुछ लोग अस्पताल आकर उन पर दबाव डालने और डराने की कोशिश कर रहे हैं.
[/box]
मड़गुला पहुंचकर पुलिस वालों ने लोगों की गंभीर स्थिति देखते हुए सबसे पहले एंबुलेंस के लिए फोन किया तब जाकर वहां छह एंबुलेंस पहुंच सकीं, जिनमें 17 बुरी तरह से घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाया गया. इन 17 लोगों में से 6 की हालत बहुत गंभीर थी. सभी को पहले नरसिंहपुर ले जाया गया फिर वहां से गंभीर रूप से घायल लोगों को जबलपुर रेफर कर दिया गया. घटना के अगले ही दिन सुबह एक व्यक्ति अजुद्दा अहिरवार की मृत्यु हो गई जो कि हमले के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए थे.
इस घटना के बाद मड़गुला गांव के करीब साठ अहिरवार परिवारों के एक सौ अस्सी लोग गाडरवारा पलायन कर गए, जहां स्थानीय नेता सुनीता पटेल ने उनके रहने-खाने का इंतजाम करवाया. करीब एक सप्ताह बाद नरसिंहपुर के कलेक्टर ने नगरपालिका को निर्देश दिया कि पीड़ितों के लिए नगरपालिका के मंगल भवन परिसर में रहने-खाने की व्यवस्था की जाए. इसके बाद पीड़ित वहां दो दिन ही रह पाए थे कि नगरपालिका के लोगों ने उन्हें गांव वापस जाने को कह दिया और कहा कि अगर वे वापस नहीं जाते हैं तो उन्हें यहां भी नहीं रहने दिया जाएगा. मजबूरन ये लोग फिर सुनीता पटेल के यहां वापस आ गए. वहां एक रात ही रहे थे कि इसी दौरान भोपाल से अहिरवार समाज संघ के कुछ पदाधिकारी आ गए, जिन्होंने इस संबंध में एसडीएम और तहसीलदार से बात की, जिसके बाद पीड़ितों को दोबारा मंगल भवन में रहने की जगह मिल पाई, जहां वे अभी तक रह रहे हैं. पीड़ितों की शिकायत भी है कि मात्र 2000 रुपये के अलावा अभी तक किसी को भी मुआवजा नहीं मिला है जबकि कलेक्टर ने पीड़ितों से घायलों को एक लाख अस्सी हजार और मृतकों के परिवार को सात लाख रुपये देने की बात कही थी.
धर्मेंद्र अहिरवार बताते हैं कि चूंकि घटना के अगले ही दिन एक व्यक्ति की मौत हो गई थी तो वे एफआईआर तो दर्ज नहीं करा पाए लेकिन इस मामले में शामिल 37 लोगों के नाम पुलिस को दे दिए थे, जिसमें से 21 लोगों को ही नामजद किया गया है. इन 21 लोगों में से भी दो ऐसे नाम हैं जिस नाम का कोई व्यक्ति गांव में रहता ही नहीं है. अभी तक इस मामले में कुल पंद्रह लोगों की गिरफ्तारी हुई है, बाकी लोग फरार हैं. पीड़ितों का कहना है कि उन्हें एफआईआर की कॉपी एक सप्ताह बाद प्राप्त हुई पर अबतक किसी पीड़ित का बयान तक ठीक से दर्ज नहीं किया गया है.
इसको लेकर अहिरवार समाज संघ, मप्र के प्रांतीय अध्यक्ष डॉ. जगदीश सूर्यवंशी जो पीड़ितों से मिल भी चुके हैं, का कहना है, ‘इस केस को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है. प्रशासन इस मामले में लीपापोती कर रहा है. आरोपियों पर हत्या की धारा 302 नहीं लगाई गई है जबकि एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है.’
पीड़ितों द्वारा प्रशासन पर इलाज में लापरवाही बरतने का भी आरोप लगाया जा रहा है. पीड़ितों का कहना है कि उनका ठीक से इलाज नहीं किया गया. गंभीर रूप से घायलों को भी जबलपुर से समय से पहले डिस्चार्ज करके गाडरवारा में भर्ती कर दिया गया, जहां सुविधाओं का अभाव है. उन्हें बाजार की दवाइयां लिखी जा रही हैं और लोग अपने पैसों से दवाइयां खरीदने को मजबूर हैं. डॉ. सूर्यवंशी कहते हैं कि लोगों का इलाज सही तरीके से नहीं हो रहा है. राज्य सरकार के नियमों के अनुसार किसी भी मरीज को बाहर की दवाई नहीं लिखी जा सकती है. इस तरह के प्रकरण में तो मानवता के आधार पर भी ध्यान रखा जाना चाहिए, इसके बावजूद पीड़ितों को बाहर से दवाई खरीदनी पड़ रही है.
अब ये लोग किसी भी कीमत पर मड़गुला गांव वापस नहीं जाना चाहते. उन्हें प्रशासन पर भी कोई भरोसा नहीं है जो दोनों पक्षों के बीच समझौता करवाने और गांव में ही एक पुलिस चौकी स्थापित करने का भरोसा दिला रहे हैं. पीड़ितों की मांग है कि उन्हें किसी दूसरी जगह बसने के लिए जमीन उपलब्ध कराई जाए. कलेक्टर की तरफ से घायलों को एक लाख अस्सी हजार रुपये देने का जो वादा किया गया है, वह भी अपर्याप्त है क्योंकि पीड़ितों के अनुसार सब को नई जगह पर नए सिरे से जिंदगी शुरू करनी होगी, जमीन मिलने पर सबसे पहले घर बनाना होगा इसलिए घर बनाने और जिंदगी पटरी पर लाने के लिए उन्हें सरकार से और ज्यादा मदद चाहिए. कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष रामेश्वर नीखरा भी गाडरवारा का दौरा कर चुके हैं. उनका कहना है, ‘हमारी लोगों से बात हुई है, लोग काफी डरे हुए हैं, इलाज भी ठीक ढंग से नहीं हुआ है. इस पूरे मामले में प्रशासन की तरफ से गंभीरता नहीं दिखाई गई है. अब लोग अपने गांव वापस नहीं जाना चाहते हैं लेकिन उन पर वापस जाने का दबाव डाला जा रहा है. हमने प्रशासन से मांग की है कि इन्हें कहीं और बसाया जाए ताकि ये भयमुक्त रहें. साथ ही साथ पीड़ितों को उचित मुआवजा भी दिया जाए.’
2009 में भी मड़गुला और आसपास के गांवों में जातिगत उत्पीड़न की बड़ी वारदात देखने को मिली थी. इसको लेकर सामाजिक संगठनों द्वारा एक फैक्ट फाइंडिंग टीम भी गठित की गई थी, जिसमें पता चला कि इसकी शुरुआत अहिरवार समुदाय के लोगों के सामूहिक रूप से लिए गए उस निर्णय से हुई जिसमें उन्होंने कहा कि अब वे मरे हुए मवेशी नहीं उठाएंगे. उनका कहना था कि चूंकि वे सदियों से मरे हुए मवेशी उठाते आ रहे हैं इसीलिए उनके साथ छुआछूत व भेदभाव का बर्ताव किया जाता है. इसके जवाब में मड़गुला गांव के दबंगों ने पूरे अहिरवार समुदाय पर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया. कोटवार के माध्यम से यह ऐलान करवाया कि अहिरवार समुदाय के जो लोग सवर्णों के यहां बटाईदारी करते हैं उन्हें उतना ही हिस्सा मिलेगा जितना वे तय करेंगे. इसी तरह से मजदूरी भी आधी कर दी गई. इसके अलावा उनके सार्वजनिक स्थलों के उपयोग जैसे सार्वजनिक नल, किराने की दुकान से सामान खरीदने, चक्की से अनाज पिसाने, शौचालय जाने के रास्ते और अन्य दूसरी सुविधाओं के उपयोग पर जबर्दस्ती रोक लगा दी गई. उस समय भी कई सारे परिवार गांव से पलायन कर गए थे और प्रशासन द्वारा बहुत बाद में इनकी सुध ली गई थी.
लेकिन यह घटना चिंगारी के रूप में बनी रही और साल 2012 में गाडरवारा तहसील के मारेगांव में दोबारा उभर कर सामने आई, जहां एक बार फिर मामला मृत मवेशी को उठाने का था. इस उत्पीड़न को लेकर वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा एक फैक्ट फाइंडिंग कमेटी का गठन किया गया और इसकी रिपोर्ट के अनुसार मारेगांव के अहिरवार समुदाय पर गांव के सवर्णों द्वारा मृत मवेशी उठाने के लिए दबाव डाला जा रहा था लेकिन वे लोग मना कर रहे थे. जिसके बाद गांव में ढिंढोरा पिटवाकर यह ऐलान करा दिया गया कि अहिरवार समाज से कोई भी किसी तरह का संबंध नहीं रखेगा. उनके गांव के अंदर आने पर रोक लगाई गई. गांव के सभी दुकानदारों को अहिरवार समाज के लोगों को राशन, किराने का सामान देने से मना कर दिया. आटा चक्की वालों से भी कहा गया कि वे अहिरवार समाज के किसी भी परिवार का अनाज नहीं पीसेंगे. गांव के हैंडपंप और कुओं से उनके पानी लेने पर रोक लगा दी गई. यहां तक कि गांव के तालाब पर तारों की बाड़ लगा दी गई ताकि अहिरवार समाज का व्यक्ति नित्यकर्म के लिए भी तालाब के पानी का उपयोग न कर सके. मंदिर के दरवाजे भी उनके लिए बंद कर दिए गए. अहिरवार समुदाय के लोगों के गांव में मजदूरी करने पर रोक लगा दी गई. यह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बहिष्कार लंबे समय तक चला. इस मामले में लगातार प्रयास कर रहे लज्जाशंकर हरदेनिया का कहना है कि हम 2012 से लगातार मारेगांव में हुई घटना को लेकर प्रयास कर रहे हैं लेकिन स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है.
दरअसल यह केवल गाडरवारा तहसील का मसला नहीं है. मध्य प्रदेश में जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी है इसका अंदाजा 2010 में मुरैना जिले के मलीकपुर गांव में हुई एक घटना से लगाया जा सकता है. वहां एक दलित महिला ने सवर्ण जाति के व्यक्ति के कुत्ते को रोटी खिला दी, जिस पर कुत्ते के मालिक ने पंचायत में कहा कि एक दलित द्वारा रोटी खिलाए जाने के कारण उसका कुत्ता अपवित्र हो गया है और गांव की पंचायत ने दलित महिला कोे इस ‘जुर्म’ के लिए 15000 रुपये के दंड का फरमान सुनाया. इन उत्पीड़नों के कई रूप हैं, जैसे नाई द्वारा बाल काटने से मना कर देना, चाय के दुकानदार द्वारा चाय देने से पहले जाति पूछना और दलित बताने पर चाय देने से मना कर देना या अलग गिलास में चाय देना, दलित पंच/सरपंच को मारने-पीटने, शादी में दलित दूल्हे के घोड़े पर बैठने पर रास्ता रोकना और मारपीट करना, मरे हुए मवेशियों को जबरदस्ती उठाने को मजबूर करना, मना करने पर सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार कर देना, सावर्जनिक नल से पानी भरने पर रोक लगा देना जैसी घटनाएं उदाहरण मात्र ही हैं जो अब भी यहां के अनुसूचित जाति के लोगों की आम दिनचर्या का हिस्सा हैं.
2011 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी 15.6 प्रतिशत है. पिछले पांच साल के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2009 से 2012 के बीच दलित उत्पीड़न के दर्ज किए गए मामलों में मध्य प्रदेश का स्थान पांचवां बना रहा है. 2013 में यह एक पायदान ऊपर चढ़कर चौथे स्थान पर पहुंच गया.
डॉ. सूर्यवंशी कहते हैं कि पूरे मध्य प्रदेश में इस तरह की घटनाएं कम होने की बजाय बढ़ रही हैं और स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है. वे दावा करते हैं कि राज्य के 99 प्रतिशत गांवों में दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता है, 75 प्रतिशत से अधिक गांवों में दलित सावर्जनिक शमशान घाट में क्रियाकर्म नहीं कर सकते हैं और मजबूरन उन्होंने अलग शमशान घाट बना रखे हैं. 25 प्रतिशत से अधिक गांवों में सावर्जनिक नल या हैंडपंप से दलित समुदाय के लोगों को पानी पीने नहीं दिया जाता, 50 प्रतिशत से अधिक मामलों में मध्याह्न भोजन के समय दलित बच्चों को अलग बैठाकर भोजन कराया जाता है.
[box]
छुआछूत में सबसे आगे
• नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) और अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड की तरफ से इसी साल आई एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 27 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में छुआछूत को मानते हैं और इस मामले में मध्य प्रदेश 53 प्रतिशत के साथ देश में पहले नंबर पर है.
• स्थानीय संगठन दलित अधिकार अभियान द्वारा 2014 में जारी रिपोर्ट ‘जीने के अधिकार पर काबिज छुआछूत’ के अनुसार मध्य प्रदेश के 10 जिलों के 30 गांवों में किए गए सर्वेक्षण के दौरान निकल कर आया है कि इन सभी गांवों में लगभग सत्तर प्रकार के छुआछूत का प्रचलन है. इसी तरह केे भेदभाव के कारण लगभग 31 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल में अनुपस्थित रहते हैं.
[/box]
आखिर क्या वजह है कि प्रदेश में लगातार इतने बड़े पैमाने पर दलितों के साथ अत्याचार के मामले सामने आ रहे हैं. इसके बावजूद मध्य प्रदेश की राजनीति में दलित उत्पीड़न कोई मुद्दा नहीं बन पा रहा है? इसका जवाब यह है कि प्रदेश के ज्यादातर प्रमुख राजनीतिक दलों के एजेंडे में दलितों के सवाल सिरे से ही गायब हैं. तभी तो मड़गुला की घटना पर बयान देते हुए गाडरवारा से भाजपा विधायक गोविंद पटेल कहते हैं, ‘ऐसे झगड़े तो होते रहते हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. पाकिस्तान का भी भारत से झगड़ा चल रहा है. जो घटना हुई है वह किसी भी तरह से जातिवाद की लड़ाई नहीं है.’ अब यह केवल इत्तेफाक तो नहीं हो सकता कि मध्य प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष रामेश्वर नीखरा भी कहते हैं, ‘यह जातीय संघर्ष नहीं है इसे कुछ लोग जबरदस्ती जातीय संघर्ष बना रहे हैं. नरसिंहपुर तो बड़ा समरसता वाला जिला रहा है. वहां तो पहली बार इस तरह की कोई घटना घटी है.’ इन सब पर वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया कहते हैं, ‘हमारा अनुभव यह है कि मध्य प्रदेश में दलितों को लेकर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर संवेदनहीनता व्याप्त है और ये लोग दलितों की समस्या को समस्या ही नहीं मानते हैं.’
[box]
इस साल की प्रमुख घटनाएं
• जनवरी में दमोह जिले के अचलपुरा गांव में दबंगों द्वारा दलित समुदाय के लोगों को पीटा गया. इसके बाद प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों की मौजूदगी में 12 दलित परिवार गांव छोड़कर चले गए क्योंकि उन्हें पुलिस और प्रशासन पर अपनी सुरक्षा का भरोसा नहीं था.
• मई में अलीराजपुर जिले के घटवानी गांव के 200 दलितों ने खुलासा किया कि वे एक कुएं से गंदा पानी पीने को मजबूर हैं क्योंकि छुआछूत की वजह से उन्हें गांव के इकलौते सार्वजनिक हैंडपंप से पानी नहीं लेने दिया जाता है, जबकि जानवर वहां से पानी पी सकते हैं.
• 10 मई को रतलाम जिले के नेगरुन गांव में दबंगों ने दलितों की एक बारात पर इसलिए पथराव किया क्योंकि दूल्हा घोड़ी पर सवार था.
इसके बाद बारात को पुलिस सुरक्षा में, दूल्हे को हेलमेट पहनाकर निकलना पड़ा.
• शिवपुरी जिले के कुंअरपुर गांव में इस साल हुए पंचायत चुनाव में एक दलित महिला गांव की उपसरपंच चुनी गई थीं, जिनसे गांव के सरपंच और कुछ दबंगों ने मिलकर मारपीट की और उनके मुंह में गोबर भर दिया.
•13 जून को छतरपुर जिले के गणेशपुरा में दलित समुदाय की एक 11 वर्षीय लड़की हैंडपंप से पानी भरने जा रही थी. इसी दौरान एक दबंग व्यक्ति ने लड़की की पिटाई कर दी क्योंकि उसके खाने पर लड़की की परछाई पड़ गई थी.
[/box]