हम सभी विस्थापित आत्माएं हैं. मजबूरी में या फिर मर्जी से प्रवासी बनकर टूटे शरीर की आत्माएं. आत्माएं घाव छुपा लेती हैं, शरीर उन्हें अनुभव बना खुद पर सजा लेता है. छूटे हुए बिस्तरों के अनुभव, दड़बों जैसे कमरों के, खिड़की-रोशनदान न होने के, कोनों के, उन कोनों को बार-बार चुनने की मजबूरी से आई थकान के अनुभव. सिटीलाइट्स के नायक और उसके परिवार का विस्थापन लेकिन हमारा नहीं है, हमने उसे देखा-सुना-पढ़ा बहुत है, भोगा नहीं है. यह बात फिल्म की कहानी भी जानती है कि सिर्फ भोग ही मीठा होता है, भोगना कोई नहीं चाहता, इसलिए वह फिल्म को नायक और उसके परिवार के दर्द का ‘ज्ञान का पीठ’ नहीं बनाती, एक सस्पेंस और थ्रिलर बुनती है जो जमीनी है और जहां सही-गलत की हरियाली से दूर बंजर जमीन पर खड़ी मजबूर-जरूरतमंद जिंदगी अपने लिए गए फैसलों के साथ सीना ठोके खड़ी है, उसे ‘दुनिया का सच’ बतला रही है, और उसकी आवाज में शोर भी नहीं है.
शोर करती मुंबई में राजकुमार पत्रलेखा और अपनी बेटी संग राजस्थान के एक गांव से आते हैं, वही कमाने जिसके लिए हम सब बड़े शहरों में जाते हैं. वहां उन्हें मानव कौल मिलते हैं, और फिल्म बेबस जिंदगियों पर ठिठकती हुई, जिंदगी के सपनों को पूरा करने के लिए गैर-कानूनी रफ्तार पकड़ती है, क्योंकि जिंदगी ज्यादा दिन साथ नहीं रहती, उसका भी घर है, उसे भी वहां जाकर सोना है. हमारी इन्हीं महत्वाकांक्षाओं और लालच को परदा देती हंसल मेहता की सिटीलाइट्स की भाषा ‘शाहिद’ वाली ही है. वे उससे भटके नहीं हैं. वही कैमरा है जो उतना ही दृश्यों को काला रखता है जितनी उस वक्त जिंदगी काली होती है. और वे ही अभिनेता नायक हैं जो अभिनेता पर किरदार की जीत के हकदार हैं. राजकुमार राव. वे किरदार ऐसे बनते हैं जैसे रूप बदलने की ऐयारी जानते हो. फिल्म में वे कमाल हैं, अभी यही शब्द हमारे पास हैं. उनकी पत्नी बनी पत्रलेखा पहली फिल्म के हिसाब से अच्छा करती हैं, कुछ दृश्यों में तो बेहद अच्छा, बस शहरी नेलपेंट नहीं उतारतीं, जिसकी चमक आंखों में चुभती है. मानव कौल के बारे में हम लोग कम बात करते हैं, और ये गलत है. हमें उनके बारे में लिखना चाहिए, ढेर सारी बातें करनी चाहिए क्योंकि वे अपने रंगमंच का रंग फिल्मों में प्यार भरी नफासत से भरते हैं. जो उन्हें नहीं जानते उनके लिए सिटीलाइट्स मानव कौल की खोज है. वे जिन हिस्सों में राजकुमार से भी बेहतर हैं, वे हिस्से फिल्म के बेहतरीन हिस्सों में आते हैं. दोनों ही, राजकुमार और मानव, अपने-अपने रंग में डूबे हुए दो पहाड़ी झरने हैं, फिल्म की अलहदा पहचान हैं.
सिटीलाइट्स की सबसे अच्छी बात है कि वो बाहर-गांव की एक फिल्म (मेट्रो मनीला) की कहानी पर हिंदुस्तानी पैरहन सलीके से चढ़ाती है. वह भट्ट प्रभाव में आकर विदेशी कहानी पर आधारित सिटीलाइट्स को ‘साया’ नहीं बनाती, राजकुमार को जॉन अब्राहम और हंसल मेहता को पुराने अनुराग बसु भी नहीं. हंसल फिल्म में चुटकुला तक अपना रखते हैं. वड़ा-पाव संग पारले-जी का डिनर, पत्रलेखा का पब में वाक-इन इंटरव्यू, राजकुमार का नशे में पत्रलेखा से नाचने को कहना, ऐसे कई चुभते दृश्य देसी निर्देशक-लेखक के अपने हैं.
फिल्म की भूख भी सच्ची है और उसकी उठती हूक भी, उसका लालच भी और उसकी आग भी, जो हमारा दिल भक्क से जलाती है. इस आग को हंसल कहां से लाए हैं, पता नहीं, लेकिन खालिस लाए हैं.