मुझे लगता है कि देश में अभी जो निजाम है वो संस्थाओं को पोषित या प्रोत्साहित करने की बजाय नष्ट करने में लगा है. जिस दल की अभी सरकार है आप उसका इतिहास देखिए तो उसने एक भी संस्थान नहीं बनाया. जो संस्थाएं पहले से थीं, उनको मिटाने पर लगे हैं. इस तरह की राजनीति और इस विचारधारा में ही इतना बांझपन है कि अब यही होना है. इनके पास अपने बुद्धिजीवी नहीं हैं. ऐसे ऐसे लोगों की नियुक्तियां कर रहे हैं जो योग्य नहीं हैं. इससे संस्थाओं का कद अपने आप ही कम हो जाता है.
अब लोग कहते हैं कि पहले भी ऐसी घटनाएं होती रहीं हैं. यह सही है, लेकिन तब भी हम लोग उसकी निंदा करते थे. आज हालात अलग हैं. ऐसा प्रधानमंत्री जो हर बात पर बयान देता है वह इन घटनाओं पर चुप है. देश में क्या हो रहा है, क्या उन्हें मालूम नहीं है? अगर इतने बेखबर हैं, तो उनका भगवान ही मालिक है. एक संस्कृति मंत्री जो कु-संस्कृति मंत्री हैं, उनका बयान है कि कलाम के नाम पर सड़क का नाम इसलिए रखना चाहिए क्योंकि वे राष्ट्रवादी मुसलमान थे.
इस तरह के बेहूदा बयान और भड़काऊ बातें लगातार हो रही हैं. अब देश को आगे ले जाने वाले मसलों को छोड़कर इस बात पर बहस हो रही है कि क्या खाएं, क्या न खाएं, क्या पहनें, क्या न पहनें, क्या पढ़ें, क्या न पढ़ें. यह खतरनाक स्थिति है.
इन मसलों पर हम और कुछ नहीं कर सकते थे तो अपने पुरस्कार वापस करके अपना विरोध जताया. साहित्य अकादमी ऐसी संस्था बन गई जो अपने लेखकों पर अत्याचार पर चुप है. उसने इस बारे में कोई निर्णय नहीं किया, वह सरकार को पत्र लिखकर अपना विरोध जता सकती थी. उनसे कोई विरोध प्रदर्शन करने की उम्मीद नहीं करता, लेकिन बोलना तो चाहिए था. अकादमी का अध्यक्ष सामान्य परिषद द्वारा चुना जाता है न कि सरकार नियुक्त करती है. उन पर कोई दबाव भी नहीं होता. मैं जब अकादमी का अध्यक्ष था तो मकबूल फिदा हुसैन के मामले में सरकार को पत्र लिखा था और अपना विरोध दर्ज कराया था.
यह विरोध जारी रहेगा. अभी और लेखक सामने आएंगे. हम एक नवंबर को लेखकीय स्वतंत्रता पर हो रहे प्रहार को लेकर कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों का एक अधिवेशन बुला रहे हैं. हम अपना विरोध जारी रखेंगे.
(लेखक साहित्यकार हैं)