आँखों की रोशनी छीन रहा मोबाइल

– लगातार मोबाइल देखने वाले बच्चों और बड़ों तक की नज़र हो रही कमज़ोर

आजकल क़रीब 60 फ़ीसदी लोग अपने मोबाइल फोन में वीडियो देखने में ज़्यादातर समय निकाल देते हैं। बच्चों से लेकर बड़ों तक में यह आदत पड़ चुकी है। समझदार-से-समझदार लोगों को घंटों-घंटो मोबाइल से चिपके हुए देखा जाता है। घर हो या ऑफिस अपने काम को भूलकर ज़्यादातर लोग मोबाइल में लग जाते हैं और शॉर्ट वीडियो देखते-देखते उन्हें पता ही नहीं चलता कि उनका कई घंटे का क़ीमती समय किस तरह ख़राब चला गया?

मनोचिकित्सक कहते हैं कि यह मानव-प्रकृति है कि वह अपनी मुसीबतों भरी लाइफ में इंटरटेनमेंट चाहता है, जिसके चलते वह दूसरों की लाइफ में झाँकने के साथ-साथ फ़िल्में या वीडियो देखना पसंद करता है। यह एक आदत है, जो कई नुक़सान पहुँचाती है। इसमें दर्शक वीडियो बनाने वाले दूसरे व्यक्ति के प्रभाव में आ जाते हैं, भले ही वह वीडियो के ज़रिये उनके सामने अभिनय कर रहा हो। लेकिन इससे उन पर कई बार इतना प्रभाव तक पड़ता है, जिससे वे उसी अभिनय करने वालों की नक़ल तक करने लगते हैं। ऐसे भी मामले सामने आते रहे हैं, जब लोगों ने अभिनय करने वालों के प्रभाव में आकर ग़लत क़दम उठाये हैं या आत्महत्या कर ली है। लेकिन अब मोबाइल देखने वालों में एक नयी समस्या पैदा हो गयी है, जिसे ग्लूकोमा कहते हैं। इस समस्या के चलते लोगों में अंधेपन के ख़तरे बढ़ने लगे हैं। मोबाइल की स्क्रीन से निकलने वाली रंग-बिरंगी रोशनी, ख़ासकर नीली रोशनी के कारण इस बीमारी के ख़तरे बढ़ रहे हैं।

एक अध्ययन के मुताबिक, मोबाइल की वजह से तक़रीबन 40 फ़ीसदी बच्चों की आँखों की दृश्यता कम हो चुकी है। वहीं क़रीब 50 फ़ीसदी बड़ों की आँखें भी मोबाइल देखने से कमज़ोर हुई हैं। ऐसे मरीज़ों की आँखों में जलन, पानी बहना, आँखों में भारीपन रहना आम बात हो चुकी है। मोबाइल देखने से आँखों को सबसे ज़्यादा नुक़सान रात को होता है। क्योंकि ज़्यादातर लोग रात में मोबाइल की फुल स्क्रीन लाइट करके वीडियो देखते हैं। अँधेरे में मोबाइल देखना सबसे घातक है। अध्ययन में पाया गया है कि शहरों में ही नहीं, बल्कि गाँवों में भी लोग रात को खाना खाने के बाद देर रात तक मोबाइल देखने लगे हैं। फरवरी, 2023 में हैदराबाद की एक महिला मोबाइल देखते-देखते अचानक अंधी हो गयी थी। बताया जाता है कि महिला रात के अँधेरे में मोबाइल देख रही थी।

जनरल फिजिशियन डॉक्टर मनीष कुमार कहते हैं कि देश के ज़्यादातर लोगों, ख़ासकर बच्चों को मोबाइल फोन में वीडियो देखने की आदत हो चुकी है, जिसके चलते सिर्फ़ उनके समय और काम का नुक़सान ही नहीं हो रहा है, बल्कि उनकी आँखों की रोशनी भी जा रही है। मोबाइल देखते रहने के चलते बच्चों से लेकर बड़े तक चिड़चिड़े, ग़ुस्सैल और मनमौज़ी होते जा रहे हैं। रिश्तों से कटते जा रहे हैं और बाहरी दूर बैठे अनजान लोगों के साथ बिना किसी वजह के ही जुड़ रहे हैं, जिसके चलते साइबर क्राइम भी बढ़ रहा है। मोबाइल देखने के अलावा ज़्यादातर लोग कानों में हेडफोन लगाकर फुल आवाज़ में ऑडियो-वीडियो सुनते हैं, जिससे कई लोगों में बहरेपन या ऊँचा सुनने की शिकायतें भी आ रही हैं। दिक़्क़त ये है कि आँखों और कानों में समस्या शुरू होने पर भी लोग मोबाइल नहीं छोड़ते हैं और न ही डॉक्टरों को दिखाते हैं।

बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर आनंद कहते हैं कि बच्चों को मोबाइल देने के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार माँ-बाप ही हैं। बच्चों के साथ सबसे ज़्यादा समय उनकी माँएँ रहती हैं, इसलिए इसमें उनका सबसे ज़्यादा भूमिका है। वो बच्चों को रोने से चुप कराने और ख़ुद को बच्चों पर ज़्यादा ध्यान देने से बचने के लिए उन्हें मोबाइल थमा देती हैं और बाद में बच्चे मोबाइल को छोड़ना नहीं चाहते। इससे बच्चों को कई तरह के बड़े नुक़सान हो रहे हैं, जो शुरू में किसी भी माँ-बाप को नज़र नहीं आते और बाद में उनका कोई इलाज नहीं होता। ऐसे भी पैरेंट्स हमारे पास आते हैं, जो यह कहते हैं कि उनका बच्चा खाना नहीं खाना चाहता, पढ़ने और खेलने में भी उसका कोई इंट्रेस्ट नहीं है। जबकि बच्चों के विकास के लिए उनका खेलना, घूमना और ठीक से भोजन करना बहुत ज़रूरी होता है। इस तरह से ज़्यादातर माँ-बाप अपने बच्चों के आज ख़ुद ही दुश्मन बन बैठे हैं।

महिला एवं बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर विकास कहते हैं कि आजकल कई माताएँ ख़ुद इतना मोबाइल देखने लगी हैं कि वे गर्भ से हों, तो भी मोबाइल के साथ ज़्यादा समय बिताती है। इससे न सिर्फ़ उन्हें कई नुक़सान होते हैं, बल्कि उनके गर्भ में पल रहे शिशु को भी बहुत नुक़सान पहुँचता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से गर्भवती महिलाओं के लिए शारीरिक एक्टिविटी सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। लेकिन मोबाइल एक ऐसा किलर है, जिसे देखने के चक्कर में हर कोई एक जगह बुत की तरह बैठ जाता है, जिससे उसका शरीर जाम होने लगता है और शरीर में चलने वाली क्रियाशीलता बहुत धीमी हो जाती है। गर्भवती माताओं के लिए यह सबसे घातक होता है, जिसके चलते बाद में उनके बच्चे को ऑपरेशन करके बाहर लाना पड़ता है।

आज मोबाइल में चलने वाले वीडियो ने दुनिया के एक-चौथाई लोगों को अपने प्रभाव में ले रखा है। भारत में मोबाइल के प्रभाव में आने वालों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है, जिसके चलते हर उम्र के लोगों को इसकी लत लग चुकी है। यहाँ तक कि ज़्यादातर लोगों के हाथ में मोबाइल तब भी देखा जाता है, जब  वो कोई भी काम कर रहे होते हैं। मोबाइल में खोये रहने के चलते भारत में सड़क दुर्घटनाएँ बढ़ गयी हैं। मोबाइल फोन पर वीडियो, वीडियो गेम और अन्य ऐप के अधिक इस्तेमाल से लोगों में तनाव, चिन्ता, ग़ुस्सा और कई गंभीर बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। लगातार मोबाइल फोन के इस्तेमाल से आँखें ख़राब होना, कम सुनायी देना, सिरदर्द होना, रक्तचाप होना, माइग्रेन की शिकायत होना, दिल के रोग होना, पेट के रोग होना और शरीर में दर्द, थकान होना आम बीमारियाँ होती जा रही हैं।

अप्रैल, 2008 में सामने आये केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, भारत में नेत्रहीनों की संख्या (उस समय) क़रीब 1.20  करोड़ थी, जिसमें से सबसे ज़्यादा क़रीब 15 लाख नेत्रहीन उत्तर प्रदेश में थे। उस समय पूरी दुनिया में क़रीब 3.5 करोड़ नेत्रहीन लोग थे। लेकिन अब मोबाइल के कारण आँखों की रोशनी कम होने और नेत्रहीन होने के आँकड़े बढ़े हैं, जो अभी तक भले ही सामने नहीं आये हैं; लेकिन चश्मा लगाने वालों की बढ़ी तादाद से लगता है कि कम-से-कम भारत में आज कम-से-कम चार लाख नेत्रहीन और कम-से-कम 50 करोड़ कमज़ोर आँखों वाले लोग होंगे। अहमदाबाद के एक स्कूल के टीचर सोमेश ने बताया कि उनके स्कूल में 150 से ज़्यादा बच्चे हैं, जिनमें क़रीब 25-26 बच्चों को चश्मे लगे हैं। आँखों के विशेषज्ञ दिव्यांश कहते हैं कि आँखों के मरीज़ पहले से बढ़ रहे हैं। पहले 40 साल से ऊपर के ही आँखों के मरीज़ उनके पास ज़्यादा आते थे; लेकिन अब दो-तीन साल के बच्चे भी आँखों की समस्या के शिकार हो रहे हैं। स्थिति यह है कि अगर हमारे पास महीने में आँखों के 100 मरीज़ आते हैं, तो उनमें 40 मरीज़ 50 साल से ऊपर के होते हैं। बाक़ी में 30 महिला-पुरुष होते हैं और 20 नयी उम्र के बच्चे, जिनमें दो साल से लेकर 18-19 साल तक के युवा होते हैं। 

विशेषज्ञों के मुताबिक, आँखों की बीमारियाँ कई कारणों से होती हैं। लेकिन मोबाइल और कम्प्यूटर ने इसमें तेज़ी से बढ़ोतरी की है। स्थिति यह है कि आज आनुवांशिक और शारीरिक रूप से कमज़ोरी के चलते जितने लोगों की आँखें कमज़ोर हैं, उससे ज़्यादा मोबाइल और कम्प्यूटर के कारण आँखों की बीमारियाँ हो रही हैं। पहले कहा जाता था कि लोगों में अशिक्षा की वजह से नेत्रहीनता के मामले ज़्यादा हैं। लेकिन अब देखा जा रहा है कि पढ़े-लिखे लोग भी यह बीमारी मोबाइल और कम्प्यूटर से जानबूझकर ख़ुद में बढ़ा रहे हैं। कई रिपोर्ट्स में यह ख़ुलासा हुआ है कि मोबाइल और कम्प्यूटर के ज़्यादा इस्तेमाल से भारतीय अपनी आँखों की रोशनी खो रहे हैं। कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि दुनिया में सबसे ज़्यादा आँखों के मरीज़ भारत में हैं। एक शोध के मुताबिक, भारत में हर आदमी हर दिन औसतन 06 घंटे 36 मिनट मोबाइल पर वीडियो देखने में गुज़ार देता है, जबकि ज़्यादातर लोग मोबाइल पर बात करने समेत तक़रीबन 12 से 15 घंटे गुज़ार देते हैं। अगर मोबाइल फोन साथ रखने की बात करें, तो हर आदमी हर दिन औसतन 18 घंटे मोबाइल के साथ गुज़ार देता है। वहीं फिलीपींस में हर आदमी हर दिन औसतन 10 घंटे 56 मिनट, साउथ अफ्रीका में 10 घंटे 06 मिनट, ब्राजील में 10 घंटे 08 मिनट, यूएस में 7 घंटे 11 मिनट, न्यूजीलैंड में 6 घंटे 39 मिनट का समय मोबाइल स्क्रीन पर बिता रहे हैं। मोबाइल के इतने ज़्यादा इस्तेमाल से भारतीयों को बचाने के लिए सरकार को उन्हें सलाह-मशविरा देना चाहिए और डॉक्टरों को इसके लिए एक मुहिम चलानी चाहिए, जिससे लोग जागरूक हो सकें और मोबाइल के फ़िज़ूल के इस्तेमाल से बचकर बैठे-बिठाए बीमारियाँ मोल लेने से बचें।