सच का मुखौटा, झूठ का साम्राज्य: पश्चिमी मुल्कों की ढोंग वादी राजनीति

ब्रिटिश साम्राज्य की कलम से खींची गई मनमानी सीमाओं ने आज भी दुनिया को खून-खराबे में झोंक रखा है। 2003 के इराक युद्ध से लेकर यूक्रेन संकट तक—पश्चिम का हर “महान” उद्देश्य असल में झूठ का जाल साबित हुआ है। वे कहते हैं “मानवाधिकार”, मगर करते हैं “तेल की लूट”। वे गाते हैं “लोकतंत्र”, मगर खेलते हैं “तख्तापलट का खेल”। यह कोई भूल नहीं, बल्कि सौ साल पुरानी नीति है—जिसमें सच को दफन करके झूठ को सत्ता का हथियार बनाया गया। आज भी, जब यूरोप रूसी गैस का मोह नहीं छोड़ पा रहा, अमेरिका अफ्रीका को “सहयोग” के नाम पर निचोड़ रहा है, और ब्रिटेन अपने औपनिवेशिक पापों की मिट्टी ढकने में लगा है—क्या दुनिया इस ढोंग का अंत देख पाएगी? 

बृज खंडेलवाल द्वारा

पश्चिमी देशों का अंतरराष्ट्रीय मामलों में ढोंग कोई नई बात नहीं है। ये एक ऐसी चाल है जो ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों से शुरू हुई और आज तक चल रही है। पश्चिमी देश जो कहते हैं, वो करते नहीं—ये उनकी पुरानी आदत है। ब्रिटिश साम्राज्य ने दुनिया को बांटने और झगड़े पैदा करने में महारत हासिल की थी, और आज की कई समस्याएं उसी की देन हैं।

ब्रिटिश साम्राज्य ने दुनिया को टुकड़ों में बांटा। 1916 का साइक्स-पिकोट समझौता इसका बड़ा सबूत है, जिसने मध्य पूर्व को मनमाने ढंग से बांट दिया, बिना वहां के लोगों की परवाह किए। इससे इराक, सीरिया और इजरायल-फलस्तीन जैसे झगड़े पैदा हुए। 1919 का वर्साय संधि जर्मनी को सजा देकर द्वितीय विश्व युद्ध की ज़मीन तैयार की। 1947 में भारतीय सब कॉन्टिनेंट में सीमाएं अधूरी छोड़ीं, जिससे आज तक तनाव है। मैकमोहन-हुसैन पत्राचार में अरबों से आज़ादी का वादा किया, मगर बाद में धोखा दे दिया। ये सब गलतियां नहीं, बल्कि जानबूझकर की गई चालबाज़ियां थीं ताकि भविष्य में तनाव बना रहे और पश्चिमी देश फायदा उठा सकें। अफ्रीका और एशिया के तमाम मुल्क बेवजह विभाजित किए गए, जहां आज भी आग सुलग रही है।

एक्सपर्ट्स बताते हैं, 2003 में इराक पर हमला इसका बड़ा नमूना है। अमेरिका और ब्रिटेन ने दावा किया कि सद्दाम हुसैन के पास खतरनाक हथियार हैं, जो बाद में झूठ साबित हुआ। डाउनिंग स्ट्रीट मेमो से पता चला कि उन्हें सच पता था, फिर भी झूठ बोला गया। इस हमले ने इराक को बर्बाद कर दिया, आईएसआईएस जैसा आतंकी समूह पैदा हुआ, और लाखों लोग मरे। मगर कोई जवाबदेही नहीं। लीबिया में 2011 में “मानवता” के नाम पर हमला किया, जो बाद में अराजकता में बदल गया। सीरिया में चुनिंदा बागियों को समर्थन देकर गृहयुद्ध को और भड़काया।

अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार मुक्ता बेंजामिन कहती हैं, “रूस के साथ यूरोप का रवैया भी दोमुंहा है। यूक्रेन पर रूस के हमले की निंदा तो करते हैं, मगर 2022 तक रूसी गैस पर निर्भर रहे। ऊपर से इंसाफ की बात करते हैं, नीचे से मुनाफे की। अफ्रीकी देशों के साथ व्यापार में भी यही ढोंग है। यूरोपीय यूनियन के “पार्टनरशिप” समझौते गरीब देशों को फायदा कम, नुकसान ज़्यादा देते हैं। ये औपनिवेशिक लूट का नया रूप है।”

पुराने झूठ भी कम नहीं। 1953 में ईरान में मोसद्दक को हटाने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन ने तख्तापलट किया, क्योंकि उसने तेल का राष्ट्रीयकरण किया था। इसे साम्यवाद के खिलाफ बताया गया, मगर असल में तेल का लालच था। इससे 1979 की इस्लामी क्रांति की नींव पड़ी। सऊदी अरब जैसे दोस्तों के मानवाधिकार उल्लंघन पर चुप्पी और चीन जैसे दुश्मनों की आलोचना भी इस दोहरे चरित्र को दिखाती है।

पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “झूठ बोलना बुरा है, लेकिन झूठ के जाल पर जीवन बसर करना और भी बुरा है। पश्चिमी राजनीति संस्थागत झूठ के अलावा कुछ भी नहीं है। यूरोप रूस के साथ अपने संबंधों की बात करते समय झूठ बोलता है, यह तथ्य छिपाते हुए कि यूक्रेन के खिलाफ रूस की बिना उकसाव की आक्रामकता के बावजूद, उसने ऊर्जा क्षेत्र में पुतिन के देश के साथ संबंध तोड़े नहीं हैं। वह व्यापार और अर्थव्यवस्था में कम विकसित देशों के साथ व्यवहार करते समय भी झूठ बोलता है। ऐसे उदाहरणों की सूची लंबी है। याद करें तो पश्चिम के झूठ का पहला और सबसे चौंकाने वाला उदाहरण 2003 में सद्दाम हुसैन के इराक पर आक्रमण था। तब से वह असत्य बोलने और नैतिक बुलंदियों से गिरने का दोषी रहा है। हालाँकि, इसने पश्चिम और उसकी उपलब्धियों को धूमिल कर दिया है। अब वह केवल निर्दयी स्वार्थी और लाभ के पीछे भागने वालों का समूह लगता है। संयोग से, सच्चाई के मामले में दुनिया का बाकी हिस्सा भी बेहतर नहीं कर रहा है। विश्व स्तर पर झूठ के खिलाफ एक आंदोलन शुरू करने की आवश्यकता है। हम एक उच्च सभ्यता का निर्माण तभी कर सकते हैं जब हम असत्य तथ्यों का उपयोग करना बंद कर दें।”

ये सारी समस्याएं ब्रिटिश औपनिवेशिक ढोंग से शुरू हुईं, जिन्होंने वादे तोड़े, सीमाएं अधूरी छोड़ीं, और लोगों को बांट दिया। आज कश्मीर, फलस्तीन, इराक—सब उसी की देन हैं। पश्चिमी देशों का “महानता” का दावा अब खोखला लगता है। वो बस अपने फायदे के लिए झूठ बोलते हैं। दुनिया को बेहतर बनाने के लिए झूठ के खिलाफ एक आंदोलन चाहिए। जब तक कहने और करने में फर्क रहेगा, पश्चिमी देशों की साख डूबती रहेगी, और दुनिया उनकी चालबाज़ी का खामियाज़ा भुगतेगी।