महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों पर 20 नवंबर को मतदान होगा। यह चुनाव सूबे के मुखिया एकनाथ शिंदे, देवेंद्र फडणवीस, उद्धव ठाकरे, शरद पवार और अजित पवार जैसे अहम सियासी चेहरों के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं होगा। इस चुनाव के ज़रिये 2022 के बाद के राजनीतिक गठबंधन का महाराष्ट्र में पहली बार परीक्षण होने जा रहा है। चुनावी नतीजे तय करेंगे कि इन चेहरों का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? सत्ता की भागीदारी में उनका वजूद उनका क़द घटेगा, बढ़ेगा या फिर बना रहेगा। चुनावी नतीजे महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य को नया रूप देने में महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं।
महाराष्ट्र के मौज़ूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस वक़्त यूबाटी यानी उद्धव ठाकरे की शिवसेना है, जिसका दावा है कि वह असली शिवसेना है। उद्धव ठाकरे की शिवसेना के बढ़ते जनाधार को नज़रअंदाज़ करना अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेने जैसा होगा। दो साल पहले शिवसेना को विभाजित करने के बाद शिंदे के लिए मुख्यमंत्री पद पा लेना भले ही एक बड़ी उपलब्धि रही हो; लेकिन जनाधार बढ़ा पाना उनके लिए आज भी एक बड़ी चुनौती है। महिलाओं के लिए शुरू लाडली बहन कल्याण योजना के लाभ मिलने की संभावना के साथ शिंदे की नज़र कम-से-कम 40 और सीटें जीतने और मुख्यमंत्री पद के लिए एक और मौक़ा पाने पर होगी। लेकिन मुख्यमंत्री पद की दौड़ में उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस हैं। पिछली बार जब शिंदे शिवसेना को तोड़कर महाविकास अघाड़ी सरकार का तख़्तापलट करवाने के इनाम में दिल्ली से मुख्यमंत्री पद प्राप्त करने का आशीर्वाद ले चुके थे, तब देवेंद्र फडणवीस को निश्चित ही झटका लगा था; भले ही उन्होंने बिना कुछ बोले सरकार में दूसरे स्तर को स्वीकार कर लिया।
अगर आक्रामक विपक्ष शिंदे के विधायकों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और अवसरवाद के आरोपों के लपेटे में लेने में कामयाब हो जाता है और शिवसेना (शिंदे गुट) पर्याप्त संख्या में सीटें नहीं जीत पाती है, तो उसके बिखरने के ख़तरे से इनकार नहीं किया जा सकता है। शिंदे महायुति में रणनीतिकार, सख़्त सौदेबाज़, लोकप्रिय नेता और भीड़ जुटाने वाले के तौर पर अपना चेहरा बनाने में कामयाब रहे हैं; लेकिन इसे बनाये रखना और उसे मतों में तब्दील करना उनके लिए आसान नहीं होगा।
महाराष्ट्र के मौज़ूदा उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस 2019 में तत्कालीन मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य चुनाव अभियान के लिए भाजपा का चेहरा थे। उन्होंने ‘मी पुन्हा येइन’ (मैं वापस आऊँगा) का बयान देकर अपनी अपनी भद्द पिटवा दी थी। 2019 में उनके नेतृत्व में भाजपा ने 105 सीटें जीतीं, जबकि 2014 में 122 सीटें जीती थीं। 2022 में शिवसेना और एनसीपी में विभाजन ने उन्हें सरकार में वापस ला दिया। लेकिन मुख्यमंत्री नहीं, उप मुख्यमंत्री के रूप में। सामाजिक तनावों से बढ़ी क़ानून-व्यवस्था की समस्याओं को लेकर फडणवीस आज बैकफुट पर हैं। मराठा आन्दोलन के नेता जरांगे पाटील ने उन पर निशाना साधा है। आज हालात यह है कि अपना वजूद बनाए रखने के लिए उन्हें देवा भाऊ वाली नयी छवि को मीडिया में चमकाना पड़ रहा है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि आलाकमान देवेंद्र से ज़्यादा शिंदे को तवज्जो देता है। अब नतीजे तय करेंगे कि फडणवीस फिर से मुख्यमंत्री बनते हैं या नहीं। और यदि महाराष्ट्र में भाजपा उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाती है, तो इसका असर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर भी पड़ सकता है। लेकिन इसका ठीकरा फडणवीस के माथे पर ही फूटेगा, साथ-ही-साथ उन्हें प्रधानमंत्री मोदी की गुड बुक में बने रहने के लिए जद्दोजहद भी करनी होगी।
शिवसेना (यूबीटी) के पक्ष प्रमुख उद्धव ठाकरे, ठाकरे परिवार के पहले सदस्य हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर संवैधानिक पद सँभाला है। उनका सौम्य स्वभाव शिवसेना के परंपरागत वोटरों को उनसे जोड़े रखने में कामयाब रहा है। शिवसेना में दो-फाड़ के बावजूद ठाकरे परिवार के प्रति लोगों की सहानुभूति अभी भी क़ायम है और यही शिवसेना (शिंदे) का तोड़ भी है। 21 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़कर उद्धव ठाकरे ने नौ पर जीत दर्ज की थी। लोकसभा के नतीजों ने साबित कर दिया कि विपरीत स्थिति में भी वह अपना वजूद क़ायम रखने में सफल रहे। विधानसभा चुनावों में दाँव बहुत पेचीदा होंगे और शिवसेना (यूबीटी) फिर से सत्ता-विरोधी भावना पर निर्भर होगी। विधानसभा चुनाव में भी इस बात की असली अग्नि परीक्षा होगी कि दोनों में से कौन-सी सेना प्रमुख है। यह चुनाव उद्धव के लिए उनकी लोकप्रियता, संगठन सामर्थ्य और चातुर्य की परीक्षा होगी। साथ ही इस चुनाव के नतीजे उनकी छवि को एक ऐसे शक्तिशाली नेता के तौर पर मज़बूत करेंगे, जिसने कट्टर हिन्दुत्व के आदर्शों पर आधारित पार्टी को कांग्रेस और एनसीपी के साथ साझा करने के लिए फिर से खड़ा किया और जून, 2022 तक महाविकास अघाड़ी सरकार का सफल नेतृत्व किया। अब तक शिवसेना (यूबीटी) ने अपनी ज़मीन पर क़ब्ज़ा बनाये रखा है। उद्धव ठाकरे अब विपक्ष में मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर सबसे मुफ़ीद शख़्सियत हैं। मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में भी हैं। लेकिन उनके प्रत्याशियों की जीती सीटों की संख्या ही यह सुनिश्चित करेगी कि वह इस पद पर दोबारा आ सकते हैं या नहीं।
61 वर्षीय महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नाना पटोले को पूरा भरोसा है कि पार्टी विधानसभा चुनावों में लोकसभा चुनावों जैसा उल्लेखनीय प्रदर्शन दोहराएगी। उनकी नज़र में हरियाणा में कांग्रेस पार्टी की हार कोई मायने नहीं रखती। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 13 सीटें जीतीं। इस दौरान कांग्रेस का एक बा$गी उम्मीदवार भी जीत गया, जिसके बाद पटोले ने मोदी सरकार की किसान-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ ज़ोरदार घेराव किया। नाना पटोले का मानना है कि जिस तरह से महाविकास अघाड़ी ने सीटों के बँटवारे को लेकर फॉर्मूला तय किया है, उसे देखते हुए महाविकास अघाड़ी गठबंधन के लिए 288 में से 180 विधानसभा सीटें जीतना मुश्किल नहीं होना चाहिए।
महाराष्ट्र राजनीतिक के क्षत्रप शरद पवार किसी फिनिक्स से कम नहीं हैं। जब उनके भतीजे अजित पवार ने अपने नेतृत्व के ख़िलाफ़ विद्रोह किया, तो आम धारणा यह थी कि 80 वर्षीय शरद पवार का राजनीतिक करियर ख़त्म हो गया है; क्योंकि 55 में से 44 विधायकों ने एक साथ उनका साथ छोड़ दिया था। लेकिन बारिश में भीगते हुए भाषण देकर हुए शरद पवार ने माहौल बदल डाला। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राज्य में तूफ़ान मचा दिया। उन्होंने ग्रामीण संकट और सरकारी एजेंसियों द्वारा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाये जाने जैसे मुद्दों को इस क़दर प्रचारित किया कि उनका एनसीपी गुट 10 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़कर आठ सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रहा। जो अब तक का उनका सबसे बड़ा स्ट्राइक रेट रहा है। पवार ने बारामती से अजित की पत्नी सुनेत्रा पवार की हार भी सुनिश्चित की। लोकसभा चुनावों में उनकी सफलता को देखते हुए उनके अधिकांश पूर्व सहयोगी अब उनके $खेमे में वापस आने की कोशिश कर रहे हैं। शरद पवार को भरोसा है कि महाविकास अघाड़ी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महायुति से सत्ता छीन लेने में कामयाब होगी। हालाँकि यह सुनने में भले आसान लगता हो; लेकिन उतना भी आसान नहीं है।
बहुत कम-कम समय के लिए पहले भी चार बार (एक बार सिर्फ़ तीन दिन के लिए) महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री रहे 65 वर्षीय अजित पवार मौज़ूदा समय में भी उप मुख्यमंत्री ही हैं और उनकी हालत इस वक़्त सबसे कमज़ोर मानी जा रही है। हालाँकि अजित पवार अपने चाचा शरद पवार का साथ छोड़कर एक बड़े राजनीतिक पार्टी की कृपा से एनसीपी का नाम और चुनाव चिह्न हासिल करने में सफल रहे; लेकिन लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद से वह काफ़ी चिन्तित हैं। कहा जा रहा है कि उनके कई विधायक उनके चाचा के कैंप में वापस जा रहे हैं। महायुति गठबंधन में भी उनके लिए समर्थन कम होता जा रहा है। उनके सहयोगियों को यक़ीन नहीं है कि अगर शरद पवार अपने पोते युगंधर पवार को बारामती से चुनाव लड़ाते हैं, तो अजित ख़ुद चुनाव जीत भी पाएँगे! ऐसे में अगर उन्हें पर्याप्त संख्या में सीटें नहीं मिलती हैं, तो पार्टी नेता के तौर पर उनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।
सबसे ज़्यादा डर भाजपा, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित) गुट को है। उन्हें साफ़ दिखायी देने लगा है कि कहीं-न-कहीं अब जनता उनकी तोड़फोड़ की राजनीति से उकता गयी है। वैसे भी तोड़-फोड़ और जोड़-तोड़ की राजनीति का वक़्त ज़्यादा नहीं चलता। जैसे-जैसे मतदान का वक़्त क़रीब आ रहा है, वैसे-वैसे प्रतिद्वंद्विता और राजनीतिक छींटाकशी बढ़ती जा रही है। हर पार्टी दूसरी पार्टी की लकीर छोटी करने और अपनी लकीर बड़ी करने में लगी है। जनता का रुझान बताएगा कि कौन-से गुट व गठबंधन मज़बूत होंगे और कौन-कौन सी पार्टियाँ राज्य में राजनीतिक प्रासंगिकता खो देगी या कमज़ोर हो जाएगी।