बात गणतंत्र दिवस के दो दिन पहले की है. पटना में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव पार्टी की तरफ से राज्यसभा में जाने वाले तीन नए सदस्यों के नाम का एलान कर रहे थे. घोषणा जब हो गई तो जदयू के एक नेता बोले, ‘आपने गौर नहीं किया. शरद यादव जब यह घोषणा कर रहे थे तो वे खुद ही तनाव में थे. इस वजह से नहीं कि वे अपनी पार्टी के जरिए किसी ऐसे व्यक्ति को राज्यसभा भेज रहे हैं जिससे पार्टी की साख को बट्टा लगेगा या नुकसान होगा बल्कि इसलिए क्योंकि शरद खुद चाहते थे कि वे इस बार राज्यसभा से सांसद बनकर छह साल के लिए गंगा नहाएं.’
राज्यसभा के लिए वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश, महिला आयोग की अध्यक्ष कहकशां और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व अतिपिछड़ा समूह के चर्चित नेता रहे स्व. कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर की घोषणा हुई थी. इन नामों ने दूसरों को तो हैरान किया ही, नीतीश की अपनी ही पार्टी में भी कइयों के लिए यह चौंकाने वाला रहा. चर्चा हुई कि नीतीश कुमार के दांव समझना बिहार के दूसरे राजनीतिक दलों के लिए तो क्या, जदयू नेताओं के लिए भी इतना आसान नहीं है. शरद यादव द्वारा नामों की घोषणा के पहले तक इसकी रत्ती भर भनक भी जदयू के वरिष्ठ नेताओं तक को नहीं लग सकी. वैसे एक पत्रिका को दिए हालिया इंटरव्यू में नीतीश खुद भी बोल चुके हैं कि 2004 से अब तक कभी उनका कैलकुलेशन गलत नहीं हुआ. हालांकि अभी उनका कैलकुलेशन क्या है, इस पर उनका कहना था, ‘अभी तो कैंपेन (चुनावी) भी शुरू नहीं हुआ. बक्सा खुलने दीजिए.’
नीतीश कुमार की इस गुप्त तरीके वाली राजनीति से सबसे ज्यादा परेशानी जदयू के उन नेताओं के सामने आई जो यह छवि बनाए रहते हैं कि वे मुख्यमंत्री के करीबी हैं. इससे भी ज्यादा बड़ी चुनौती दूसरे राजनीतिक दलों के सामने आ गई. वजह सिर्फ वही है. नीतीश के बारे में पूर्वानुमान के आधार पर तय नहीं कर सकते कि आखिरी समय में वे कौन-सा दांव खेलकर दूसरे का खेल बिगाड़ देंगे. यह अलग बात है कि राज्यसभा का टिकट न मिलने से खुद उनकी अपनी पार्टी के कई नेता भी नाखुश हैं. पार्टी प्रवक्ता देवेश चंद्र ठाकुर ने इसके साफ संकेत देते हुए कहा भी कि वे सही समय आने पर फैसला करेंगे क्योंकि उन्हें लगता है कि पार्टी को उनकी क्षमताओं पर भरोसा नहीं है.
राज्यसभा के लिए तीन उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भर से बिहार की सियासत में अलग तरीके से तैयारियां शुरू हो गई हैं. अब तक जो दिख रहा है, उसमें कुछ बातें मोटे तौर पर सबको पता चल चुकी हैं. उसी आधार पर अनुमान भी लगाए जाने लगे हैं. जैसे यह लगभग तय है कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने के मूड में नहीं हंै. मूड में जदयू नहीं है या कांग्रेस ने ही न के संकेत दिए, यह अभी तक साफ नहीं, लेकिन नीतीश कुमार और उनके दल के प्रमुख शरद यादव लगातार कांग्रेस को निशाने पर लेने की प्रक्रिया को रफ्तार देना शुरू कर चुके हैं.
दूसरी ओर यह साफ दिख रहा है कि चारा घोटाले में दोषी साबित होने के चलते खुद चुनाव लड़ने से वंचित हो चुके लालू प्रसाद यादव येन केन प्रकारेण अपनी पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ जोड़ देना चाहते हैं. मुख्य वजह यही है कि कांग्रेस को साथ रखकर किसी तरह मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण अपनी ओर हो सके और मुस्लिम-यादव नाम से दो दशक पहले जो नया सियासी समीकरण बना था, वह फिर खूब फायदा देने की स्थिति में आ जाए.
अभी यह साफ नहीं कि कांग्रेस किधर जाएगी. कुछ समय पहले तक तो बिहार आने वाले कांग्रेसी नेताओ ने साफ-साफ संकेत दिए थे कि वे नीतीश कुमार और लालू प्रसाद में पहले का ही साथ देना पसंद करेंगे. इस बात को कई बार कांग्रेस के खेमे से परोक्ष तौर पर कहा भी गया और भाजपा से अलगाव के बाद बिहार विधानसभा में जब नीतीश के बहुमत साबित करने की बारी आई तो कांग्रेसी विधायकों ने दिल खोलकर उनका साथ भी दिया. वह समर्थन अब तक जारी है, लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि अगर लोकसभा में कांग्रेस ने राजद का साथ दिया तो फिर क्या विधानसभा में कांग्रेसी विधायकों का समर्थन नीतीश के पक्ष में ही जारी रहेगा. क्या कांग्रेस लोकसभा में नीतीश के खिलाफ और विधानसभा में नीतीश के साथ रहकर अपनी भद्द पिटवाएगी?
जवाब अभी साफ-साफ तौर पर किसी के पास नहीं लेकिन कुछ लोग दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच के रिश्ते का उदाहरण दे रहे हैं. विश्लेषक बता रहे हैं कि कांग्रेस ने जिस तरह से विचार व सरोकार नहीं मिलने के बावजूद दिल्ली में भाजपा को रोकने के लिए विधानसभा में आम आदमी पार्टी का साथ दिया है, कुछ वैसा ही वह बिहार में जदयू को समर्थन देकर कर सकती है. हालांकि इस बारे में बात करने पर जदयू नेता संजय झा कहते हैं, ‘अभी बिहार की सरकार ठीक से चल रही है तो आगे की बात अभी से ही क्यों करें?’ जदयू के ही एक और वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘राजनीति में पूर्वानुमान बहुत काम नहीं आते. स्थितियों के अनुसार निर्णय लिए जाते हैं.’
शिवानंद तिवारी ठीक कहते हैं. राजनीति में स्थितियों के अनुसार निर्णय लिए जाते हैं. और यह फॉर्मूला सिर्फ नीतीश कुमार पर ही नहीं बल्कि बिहार में सभी सियासी दलों पर लागू होता है. सभी ताक में हैं. आगे क्या होगा, अभी कहना मुश्किल है. उधर, भाजपा और जदयू के अलगाव के बाद नीतीश कुमार को समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायकों की नजर इस गहमागहमी में भी लोकसभा चुनाव के बहाने विधानसभा पर है. वे उम्मीद लगाए हुए हैं कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव के पहले नीतीश सरकार से समर्थन वापस ले ले तो उनकी स्थिति मजबूत होगी. उन्हें मंत्री बनने का मौका मिलेगा. वे नीतीश सरकार के लिए ऑक्सीजन पाइप बन जाएंगे जिसका फायदा उठाते हुए वे किसी तरह अगली बार भी विधानसभा पहुंचने का जुगाड़ कर सकेंगे.
यह तो जदयू और कांग्रेस के बनने या बिगड़ने वाले समीकरण की बात हुई. राज्य में दूसरे कई किस्म के सियासी समीकरण भी बनने-बिगड़ने की राह पर चल रहे हैं. भाजपा और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के बीच गठबंधन तय माना जा रहा है, जबकि दूसरी ओर जदयू के साथ आने के संकेत अब तक सिर्फ भाकपा की ओर से ही दिख रहे हैं. जदयू ने एक कोशिश झारखंड में सक्रिय व उस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में गठित झारखंड विकास मोर्चा के साथ तालमेल बनाने की भी की थी और यह बात तेजी से फैल भी गई थी, लेकिन बाद में मरांडी की पार्टी के नेताओं ने ही इसका खंडन कर दिया कि जदयू के साथ उनका कोई तालमेल होने जा रहा है.
सबसे विचित्र स्थिति रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी की है. पासवान के बारे में कहा जा रहा है कि वे एक साथ कई दांव चल रहे हैं. वे कांग्रेस के साथ भी बने रहना चाहते हैं, लालू प्रसाद के साथ मौजूदा गठबंधन भी जारी रखना चाहते हैं और नीतीश के साथ तालमेल का विकल्प भी बनाए रखना चाहते हैं. पिछले दिनों इसकी झलक भी दिखी जब नीतीश और रामविलास ने अलग-अलग मंचों से एक-दूसरे की तारीफ की. नीतीश ने एक सभा में कहा कि रामविलास पासवान एक अच्छे नेता हैं और वे 2005 में ही चाहते थे कि पासवान इस राज्य के मुख्यमंत्री बनें. दूसरी ओर पासवान ने भी कहा कि नीतीश कुमार उनके पुराने साथी रहे हैं और दोनों ने साथ मिलकर काम भी किया है. पासवान यहीं नहीं रुके. उन्होंने यह कहकर राजद पर दबाव भी बना दिया कि यदि लालू प्रसाद यादव 31 जनवरी तक गठबंधन पर स्थिति साफ नहीं करते हैं तो फिर वे अलग राह अपनाने को स्वतंत्र हैं. लोजपा के प्रदेश प्रवक्ता रोहित कुमार सिंह कहते हैं, ‘अभी कुछ कहना मुश्किल है. लालू प्रसाद की पार्टी से हमारे दल का पुराना नाता रहा है. बिहार के हित में हम उस नातेदारी को जारी रखने के पक्ष में हैं.’ लोजपा के कई नेता इसके पक्ष में हैं, कई विपक्ष में.
लेकिन सबसे मुश्किल दौर में लालू प्रसाद यादव की पार्टी चल रही है. लालू की मजबूरी का लाभ उठाते हुए लोजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां उन पर अधिक से अधिक सीटें छोड़ने का दबाव बना रही हैं. सूत्र बता रहे हैं कि लोजपा 10 सीटें चाहती है, कांग्रेस भी 10 सीटें चाहती है, अगर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी इस गठजोड़ में शामिल हुई तो तारिक अनवर को भी अपनी पत्नी के लिए एक सीट चाहिए. यानी बिहार की 40 सीटों में से 21 दूसरे दल चाहते हैं. लालू प्रसाद की स्थिति न उगलते, न निगलते जैसी बनने वाली है. देखना दिलचस्प होगा कि वे क्या करते हैं.
उधर, इस सबके बीच फुटकर टूट-फूट का दौर भी जारी है. चर्चा है कि जदयू के तीन लोकसभा सांसद पूर्णमासी राम, कैप्टन जयनारायण निषाद और सुशील कुमार सिंह लोकसभा चुनाव के पहले किसी तरह भाजपा का दामन थामने को लालायित हैं. इस बार राज्यसभा भेजे जाने से वंचित रहे जदयू नेता शिवानंद तिवारी के बारे में खबर आ रही है कि वे लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ अगली यात्रा शुरू कर सकते हैं.
ऐसी ही कई खबरें फिलहाल एक-दूसरे से टकरा रही हैं. सब कुछ साफ होने में थोड़ा वक्त लगेगा क्योंकि इन सबके बीच नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए कौन- सा कदम उठाएंगे, यह उनके अलावा कोई नहीं जानता, उनके दल के दूसरे नेता तक नहीं. कई बार तो शरद यादव भी नहीं जिन्हें अध्यक्ष के बजाय प्रवक्ता की भूमिका में आकर घोषणा भर करनी होती है. दूसरे दलों की परेशानी यही है कि शांत-शांत चल रहे नीतीश आखिर कौन-सा कदम उठाएंगे.