‘कुछ साल पहले जब मेरे परिवार के लोगों ने मेरी दीदी के लिए दूल्हा ढूंढना शुरू किया तो बहुत मुश्किलें आ रही थीं. मेरे वालिद किसी के घर रिश्ता लेकर जाते तो लड़के वाले यही कहते थे कि आप भले लोग हैं. लड़की पढ़ी-लिखी और सयानी भी है, लेकिन आप लोगों के मोहल्ले में हम बारात लेकर कैसे आएंगे? आप लोग तो खत्ते (स्थानीय लोग डंपिंग यार्ड को खत्ता कहते हैं) में बसे हुए हैं. खत्ते के आसपास से गुजरना भी मुश्किल है तो फिर वहां बारात सारी रात कैसे रहेगी? निकाह की रस्में कैसे पूरी होंगी? आपके मोहल्ले की आबोहबा में सड़ांध बसी हुई है.’
मेरे अब्बू को यह जवाब कम से कम पचास-साठ लड़के वालों से सुनने को मिला. अब्बू के पास उनकी बातों का कोई जवाब नहीं होता. अब्बू और अम्मी पिछले तमाम साल दिन-रात इसी चिंता में घुलते रहे कि कैसे बेटी का निकाह कराया जाए. वे बहुत तनाव में रहते थे. एक वक्त ऐसा भी आया जब अब्बू-अम्मी इस बात के लिए भी राजी हो गए कि बेटी का निकाह हैसियत से कमतर घर में कर दिया जाए, लेकिन अल्लाह का बहुत-बहुत शुक्र है कि कुछ साल पहले मेरी बहन की शादी हो गई. उसे पढ़ा-लिखा, नौकरी वाला, नेकदिल शौहर मिल गया. दिल्ली के ही एक साफ-सुथरे मोहल्ले में उसकी ससुराल है. अब उसकी जिंदगी बदल गई है लेकिन हम तो आज भी खत्ते की बदबू झेलने को मजबूर हैं. यह खत्ता मानो हमारी जिंदगी में नासूर की तरह शामिल हो गया है. ये कहानी दिल्ली के गाजीपुर थाने के घडौली एक्सटेंशन के निवासी मोहम्मद अकरम की है, जहां डंपिंग यार्ड होने की वजह से यहां के रहवासियों को तमाम परेशानियों से हर दिन दो-चार होना पड़ता है. यहीं की मुल्ला कॉलोनी में ई-रिक्शा का वर्कशॉप चलाने वाले रियाजुद्दीन सैफी अपने इलाके की सड़ांध के बारे में कहते हैं, ‘हमारा घर खत्ते के पास तो है ही, खत्ते और हमारे घर के बीच तीन बजबजाते नाले और एक नहर (नाले में ही तब्दील) है, जो हमारी जिंदगी को नरक बनाने के लिए काफी है.’
एक अनुमान के मुताबिक ये एक स्याह सच है कि तरक्की से लैस दिल्ली की लगभग चालीस फीसदी आबादी जानवरों से भी बदतर जिंदगी जीने को मजबूर है. इस आबादी का बड़ा हिस्सा डंपिंग यार्ड के आसपास वाले इलाकों में रहता है, जो बहुत गरीब और तरह-तरह की बीमारियों का प्रकोप झेलने को मजबूर है. गाजीपुर स्थित डंपिंग यार्ड पर सुबह के 6:30 बजे पहुंचने पर जो दिखा वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की नींद उड़ा देने के लिए काफी था. कई महिलाएं कूड़े के पहाड़ से खाना ढूंढ रही थीं, ताकि बच्चों को कुछ खिला सकें. कुछ कूड़े में से पीतल, एल्युमीनियम, प्लास्टिक, ईंट आदि के टुकड़े निकाल रही थीं ताकि सूरज डूबने तक उसे कबाड़ के भाव बेचकर 100-200 रुपये जुटा सके. काम में लगी हुई महिलाओं से कुछ ही कदम की दूरी पर प्लास्टिक के झोपड़ीनुमा घरौंदे में बिछी प्लास्टिक के ऊपर नवजात और कुछ छोटे बच्चे लेटे हुए थे. वहीं 8-10 साल के बच्चे कूड़ा बीनने में मां की मदद कर रहे थे. हाल ही में बाल श्रम कानून में हुए सुधार के बाद 14 साल से कम उम्र के बच्चों का घरेलू काम में हाथ बंटाना अब कोई अपराध नहीं रह गया है, सो पारिवारिक काम के नाम पर अब उनसे कुछ भी करवाया जा सकता है. किसी के चेहरे पर किसी किस्म का अपराधबोध नजर नहीं आ रहा था, अगर उनके चेहरे पर कुछ नजर आ रहा था तो बस बेचारगी और चार पैसे जुटा लेने की जद्दोजहद.
ये तो साफ ही है कि डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में भू-जल बुरी तरह से प्रदूषित हो जाता है. इस वजह से इन इलाकों में संक्रामक बीमारियों के फैलने की आशंका हमेशा बनी रहती है. नई दिल्ली स्थित विज्ञान और पर्यावरण से जुड़े मसलों पर शोधकार्य करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) से जुड़ीं शोधार्थी स्वाति सिंह साम्बयाल बताती हैं, ‘हम लोगों ने लगभग दस डंपिंग यार्ड के आसपास स्थित मोहल्लों में जाकर पानी और हवा के प्रदूषण पर शोध किया, पानी के 15-16 नमूनों की जांच की. इन इलाकों में पानी के प्रदूषण का स्तर बहुत भयावह स्थिति में जा पहुंचा है. पानी में खतरनाक स्तर पर सल्फेट, नाइट्रेट, कैल्शियम, मैगनीशियम पाए गए हैं. डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों का पानी कठोर जल में तब्दील हो चुका है, जिसे किसी भी सूरत में पीया नहीं जा सकता. इस पानी को नहाने-धोने के लिए इस्तेमाल में लाना त्वचा संबंधी रोगों को आमंत्रित करने जैसा है. प्रदूषित पानी के उपयोग की वजह से इन इलाकों के लोगों को आंत संबंधी बीमारियों से लगातार जूझना पड़ता है. कई बार शरीर में निर्जलीकरण की समस्या से लोगों की हालत खराब हो जाती है.’
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पानी छूना भी खतरे से खाली नहीं
हम लोगों ने लगभग दस डंपिंग यार्ड के आसपास स्थित मोहल्लों में जाकर पानी के प्रदूषण और हवा के प्रदूषण पर शोध किया है. भू-जल के 15-16 नमूनों की जांच की गई. पानी में प्रदूषण का स्तर बहुत भयावह स्थिति में जा पहुंचा है. पानी में खतरनाक स्तर पर सल्फेट, नाइट्रेट, कैल्शियम, मैगनीशियम पाए गए हैं. डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में उपलब्ध पानी पूरी तरह कठोर जल में तब्दील हो चुका है, जो किसी भी सूरत में पीया नहीं जा सकता है. उसे नहाने-धोने के लिए इस्तेमाल में लाने से त्वचा संबंधी रोग होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं. दुखद तो यह है कि डंपिंग यार्ड के आसपास झुग्गी-झोपड़ियां बसी हुई हैं जो इस पानी को पीने और उसे इस्तेमाल में लाने को मजबूर है. संक्रमण की वजह से दस्त, उल्टी की शिकायत बहुत आम है. इन हालात में शरीर में निर्जलीकरण की समस्या से कई बार लोगों की हालत खराब हो जाती है.
डंपिंग यार्ड में अक्सर आग लग जाने या लगाए जाने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन गैस का निर्माण होने लगता है, जो फेफड़े और संबंधी बीमारियों को या तो जन्म देते हैं या फिर उसे बढ़ाने का काम करते हैं. हालांकि अब तक डंपिंग यार्ड से वायु प्रदूषण और उनसे होने वाली बीमारियों को लेकर कोई व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है. दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी (डीपीसीसी) डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में वायु प्रदूषण के स्तर की जांच-पड़ताल नहीं करती है. डीपीसीसी के पास न तो कोई आंकड़ा उपलब्ध है और न ही कोई रिकॉर्ड.
शहर की आबादी के स्वास्थ्य के प्रति सरकारी महकमों और निगमों की लापरवाही का आलम देखिए कि डंपिंग यार्ड की उम्र 25 साल निर्धारित की गई थी, लेकिन भलस्वा डेयरी और गाजीपुर डंपिंग यार्ड को लगभग तीस साल से ज्यादा हो चुके हैं. ओखला वाला डंपिंग यार्ड नया है. भलस्वा डेयरी स्थित डंपिंग यार्ड की उम्र ज्यादा होने की वजह से यहां पहुंचने वाला रसायनयुक्त कचरा घुलकर भूजल को प्रदूषित कर रहा है. बरसात में भलस्वा डेयरी और आसपास की कॉलोनियों में प्रदूषित पानी का खतरा और बढ़ जाता है.
स्वाति सिंह साम्बयाल, प्रोगाम ऑफिसर, सीएसई
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दिल्ली, मुंबई सहित देश के सभी बड़े शहरों में आमतौर पर डंपिंग यार्ड गरीब आबादी वाले इलाकों में बनाए जाते हैं. मिसाल के तौर पर दिल्ली के तीन भीमकाय डंपिंग यार्ड (गाजीपुर, भलस्वा और ओखला) के आसपास की आबादी को देखा जा सकता है. गाजीपुर स्थित डंपिंग यार्ड के आसपास के इलाकों में निम्न वर्गीय मुसलमान, दलित, पिछड़े, घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जातियों और जनजातियों के लोग बसे हुए हैं. भलस्वा डेयरी, कलंदर कॉलोनी, जहांगीरपुरी आदि इलाकों में भी बहुसंख्यक आबादी निम्न वर्गीय मुस्लिम और दलितों की ही है. ओखला डंपिंग यार्ड का इलाका भी पूरी तरह निम्न वर्ग की मुस्लिम आबादी वाला ही है. गाजीपुर के डंपिंग यार्ड का मुंह गरीब आबादी की ओर खुला हुआ है. जरा सी हवा चलने भर से ही बस्ती में दमे और सांस संबंधी बीमारियों से पीड़ित लोगों की जान पर बन आती है. यहां तक कि सामान्य लोगों का भी दम घुटने लगता है. इन पर कहर तो तब टूटता है जब कूड़े के इन पहाड़ों में आग लगा दी जाती है. जो कई बार तीन-चार दिन तक लगी रहती है. तब धुंए में मिला मीथेन और कार्बन डाई ऑक्साइड लोगों की मुश्किलों में कई गुना इजाफा कर देता है. जहांगीरपुरी स्थित बाबू जगजीवन राम अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने बताया, ‘प्रदूषित पानी और प्रदूषित वायु के रोगियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. हृदय, फेफड़े, पेट संबंधी रोगों के अलावा कैंसर के रोगियों की संख्या भी बढ़ रही है, जो चिंता की बात है.’
गाजीपुर के पास से गुजर रहे राष्ट्रीय राजमार्ग 24 के दूसरी ओर वैशाली, वसुंधरा और इंदिरापुरम जैसी पॉश रिहायशी कॉलोनियां बसाई गई हैं. यहां रहने वाले लोगों का जीना मुहाल न हो इसका ख्याल रखते हुए राजमार्ग की तरफ के कूड़े के पहाड़ को ढंक दिया गया है. इन छोटी बस्तियों की ओर खत्ते का मुंह खुला हुआ है जबकि राजमार्ग के दूसरी ओर डंपिंग यार्ड को ढंक दिया गया है, इसके जवाब में गाजीपुर डेयरी फॉर्म के इरशाद भाई तल्ख आवाज में कहते हैं, ‘सरकार और नगर निगम अमीर लोगों के इशारों पर नाचते हैं. उन्हें तो हम गरीब लोगों से हर चुनाव में यार्ड को यहां से हटाए जाने का वायदा करके बस चुनाव जीतना होता है. फिर इस बास में नाक देने कौन आएगा?’ घडौली में बुटीक चलाने वाले सलीम नेताओं की वादाखिलाफी को याद करते हुए कहते हैं, ‘यहां अरविंद केजरीवाल ने खुद सभा की थी और कहा था कि चुनाव जीतने के बाद हम इस डंपिंग यार्ड को खत्म कर देंगे.’ उत्तरी दिल्ली के नगर निगम के एक अधिकारी ने पहले बात करने में आनाकानी की लेकिन भरोसा दिलाने पर इतना ही बोल पाए, ‘कूड़ा कहीं न कहीं तो डाला ही जाएगा. जाहिर है कि गरीब आबादी वाले इलाकों में ऐसा करना सुविधाजनक भी है.’
गाजीपुर में 1986 में डंपिंग यार्ड के बनने से पहले 20 फुट गहरा तालाब हुआ करता था, जिसे एनएच-24 बनाने के क्रम में मिट्टी से पाट दिया गया था. भलस्वा डेयरी के डंपिंग यार्ड वाली जमीन पर 1970 के दशक में गन्ने की खेती होती थी. यार्ड की वजह से भलस्वा झील भी अब बदबू और गंदगी का पर्याय बन चुकी है. प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र बताते हैं, ‘आजादी मिलने से पहले दिल्ली में 350 से ज्यादा तालाब थे, आज तो तीन तालाब भी नहीं बचे होंगे. अगर कुछ बचे हैं तो उनकी स्थिति नालों जैसी है. नई जीवनशैली की वजह से कूड़ा बढ़ा है. राजधानी दिल्ली के कूड़े का प्रबंधन ही नहीं हो पा रहा है. ऐसे में 100-50 स्मार्ट सिटी बनाएंगे तो उनके लिए पानी का इंतजाम कहां से हो पाएगा और उन शहरों से निकलने वाला कचरा कहां ठिकाने लगाया जाएगा?’
डंपिंग यार्ड को पर्यावरणीय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित बने नियमों के अनुसार इन्हें 25 साल तक ही इस्तेमाल में लाना चाहिए. स्वाति बताती हैं, ‘भलस्वा डेयरी और गाजीपुर डंपिंग यार्ड को लगभग तीस साल हो चुके हैं. डंपिंग यार्ड के लिए निर्धारित अवधि के बाद उसे इस्तेमाल में लाने से कचरे के खतरनाक रसायन मिट्टी में रिसकर जमीन को बंजर बना देते हैं और भूजल पूरी तरह प्रदूषित कर देते हैं.’
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ई-कचरे पर इतनी लापरवाही क्यों?
हमारी जीवनशैली में रोज नए-नए इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिक उपकरण शामिल हो रहे हैं. इन उपकरणों पर हमारी निर्भरता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि हर साल पूरे देश में 70 लाख से ज्यादा उपभोक्ता कंप्यूटर खरीद रहे हैं. ऐसे ही हमारे दूसरे जरूरी उपकरणों में मोबाइल, लैपटॉप, टीवी, वॉशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर, एसी आदि भी शामिल हो चुके हैं. इन उपकरणों की एक तय उम्र होती है, जिसके बाद ये ठीक से काम करना बंद कर देते हैं. इन अनुपयोगी या खराब उपकरणों को ई-वेस्ट (कचरा) कहा जाता है. सामान्य कचरे की तरह ई-कचरे को भी डंप (व्यवस्थित तरीके से कचरे को ठिकाने लगाना) किया जाना चाहिए. सरकार ने ई-कचरा (मैनेजमेंट और हैंडलिंग) नियम 2011 में ही बना दिया था और 1 मई 2012 को इसे लागू कर दिया है. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की कार्यकारी निदेशक (शोध) अनुमिता राय चौधरी के अनुसार, ‘सरकार सामान्य कचरा प्रबंधन के मामले तक में अभी बहुत पीछे है, जबकि ई-कचरे के प्रबंधन मामले में तो सरकार और उसकी मशीनरियां अभी जागी भी नहीं हैं.’ वे उदाहरण देकर बताती हैं, ‘सीएफएल बल्ब के पैकेट पर उसके सुरक्षित निस्तारण के बारे में लिखा होता है, लेकिन उसे अमल ला पाना इतना आसान नहीं? सरकार या उद्योग जगत ने इस दिशा में कोई खास पहल नहीं की है. आलम ये है कि भारत में सर्वाधिक सालाना 10 फीसदी की दर से बढ़ रहे कचरे के कारण प्रदूषण में लगातार बढ़ोतरी हो रही है.’
राज्यसभा द्वारा कराए गए एक शोध में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, ‘देश में 2005 तक प्रतिदिन 1.47 लाख टन ई-कचरा पैदा होता था, जबकि उसी शोध में यह भी अनुमान लगाया गया था कि 2012 में यह बढ़कर 8 लाख टन प्रतिदिन हो जाएगा. दिक्कत तो ये है कि सरकार इस पर लगाम लगाने की बजाय विकसित देशों से मुक्त व्यापार संधि के नाम पर ई-कचरा आयात भी करती है. सीमा शुल्क विभाग की ओर से उपलब्ध कराए गए एक आंकड़े के अनुसार, ‘सरकार हर साल 50 लाख टन ई-कचरा रिसाइकिलिंग के लिए आयात करती है. सामान्यत: 14 इंच के एक मॉनीटर में इस्तेमाल होने वाली ट्यूब में 2.5-4.0 किग्रा शीशा होता है. ई-कचरे में आर्सेनिक, बेरियम, कैडमियम, क्रोम, कोबाल्ट, तांबा, सीसा, निकल, जस्ता जैसे जहरीले पदार्थ शामिल होते हैं, जो वायु में मिलकर प्रदूषण को बढ़ाते हैं.’
दिल्ली के मायापुरी औद्योगिक इलाके में 2010 में ‘कोबाल्ट 60’ के रेडिएशन की वजह से एक व्यक्ति की मौत हो गई थी और छह लोगों की तबियत खराब हो गई थी. पिछले 10 साल के दौरान देश में वायु प्रदूषण का स्तर तीन गुना बढ़ चुका है. बेसल समझौते के बाद यूरोपीय संसद ने एक कानून बनाया, जिसके तहत ई-कचरे को इनकी उत्पादक कंपनियों को हर हाल में वापस लेना होगा. भारत में भी इसके लिए कानून है, लेकिन कई कंपनियों के कस्टमर केयर पर पूछे जाने पर निशानाजनक या कानून के बारे में जानकारी न होने की बात कही जाती है. ई-कचरा वापस लेने के नाम पर बैट्री, मोबाइल, कंप्यूटर आदि वापस लिए जाने लगे हैं, लेकिन ये प्रयास नाकाफी हैं.
उत्पादकों द्वारा ई-कचरा वापस नहीं लिए जाने की वजह से आम लोग कबाड़ी को ही ये कूड़ा बेच देते हैं. कबाड़ी कचरे में लाए गए उपकरण को तोड़कर तांबे जैसी कीमती धातु निकाल लेते हैं और दूसरे जहरीले तत्वों को खुले में छोड़ देते हैं. नतीजा ये होता है कि ये जहरीले तत्व सांस के जरिए शरीर में पहुंचकर बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाते हैं. शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. विनय कुमार मिश्रा का कहना है, ‘ई-कचरे के उचित प्रबंधन की व्यवस्था नहीं हो पाने की वजह से किडनी, लीवर, रक्तसंचार में बाधा, मानसिक आघात, दमा, डीएनए का क्षतिग्रस्त होना, हार्मोन में गड़बड़ी, कमजोरी, बच्चों के मानसिक विकलांग होने जैसी समस्याएं पैदा हो रही है.’
ई-कचरा कानून में यह साफ शब्दों में कहा गया है कि खराब उपकरणों को वापस लेने की जिम्मेदारी उत्पादक कंपनी की होगी और उसे 180 दिन के भीतर कचरे का पुनर्चक्रण करना होगा. शहरों में जगह-जगह कलेक्शन सेंटर होंगे, जहां के हेल्पलाइन नंबर लोगों को देने होंगे. इसी कानून में यह भी जिक्र किया गया है कि नए बन रहे उपकरणों में सीसा, पारा, कैडमियम, हेक्सावैलेट, क्रोमियम जैसे तत्वों का प्रयोग नहीं किया जाएगा. कानून की जमीनी हकीकत के बारे में अनुमिता राय चौधरी कहती हैं, ‘खाली कानून बनाए जाने से बात नहीं बनने वाली है. सरकार ई-कचरा कलेक्शन सेंटर खोलने पर जोर दे और साथ ही उत्पादक कंपनियों को इस बात के लिए जवाबदेह बनाए कि वे उपभोक्ताओं के पास से खराब या बेकार पड़े उपकरणों को वापस लें और उनका पुनर्चक्रण जल्द करे. इससे इतर एक तथ्य यह भी है कि भारत में 75 फीसदी ई-कचरा उपभोक्ताओं के स्टोर या घर के किसी कोने में पड़ा रहता है.’
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सरकार के पास कचरे का आंकड़ा तक नहीं
दिल्ली में भवन निर्माण और तोड़फोड़ की प्रक्रिया में हर रोज करीब 4000-5000 मीट्रिक टन कचरा इकट्ठा होता है. यह दिल्ली नगर निगम का आंकड़ा है. हालांकि सही-सही आंकड़ा नगर निगम के पास भी नहीं है. यह बस एक अनुमान है. इस मलबे के पुनर्चक्रण के लिए दिल्ली में सिर्फ एक संयंत्र बुराड़ी में स्थित है, जहां सिर्फ उत्तरी दिल्ली के मलबे का पुनर्चक्रण किया जाता है. इसकी कचरा पुनर्चक्रण क्षमता 500 टन प्रतिदिन है. मतलब दिल्ली में जितना मलबा भवन-निर्माण और तोड़फोड़ के दौरान इकट्ठा होता है उसके सिर्फ 10 फीसदी हिस्से का ही पुनर्चक्रण हो पाता है. पूर्वी दिल्ली में एक पुनर्चक्रण संयंत्र स्थापित किया गया है, लेकिन इसे शुरू नहीं किया जा सका है. कचरा प्रबंधन के दौरान एक समस्या तो बहुत आम है कि जैविक और अजैविक कूड़े को अलग नहीं किया जाता. निर्माण के दौरान निकले हुए मलबे को, खासतौर पर छोटे बिल्डरों द्वारा डंपिंग यार्ड पर पहुंचाने, इसका पुनर्चक्रण करने की बजाय उसे शहर के किसी नाले, नहर या तालाबों में डाल दिया जाता है.
इस मामले में दिल्ली की स्थिति सबसे अच्छी है. ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि दिल्ली में इनकी स्थिति को लेकर थोड़े-बहुत आंकड़े तो मौजूद हैं. देश के दूसरे शहरों में भवन-निर्माण और तोड़फोड़ का सिलसिला तेज हुआ है लेकिन उन शहरों से कोई खास आंकड़ा नहीं मिलता. पूर्व शहरी विकास मंत्री ने पिछले साल राज्यसभा में बताया था कि इस बारे में कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. शहरी विकास मंत्रालय के ठोस कचरा प्रबंधन की नियमावली (मैनुअल) में वर्ष 2000 में 10-12 मिलियन टन सालाना कचरा इकट्ठा होने की बात कही गई थी और 2015 में भी 10-12 मिलियन टन कचरा जमा होने की बात है. इन पंद्रह सालों में देश में निर्माण और विध्वंस दोनों ही प्रक्रियाओं में तेजी आई ऐसे में मंत्रालय के इस आंकड़े पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने 2013 में इस बारे में एक अनुमान लगाया था कि 530 मिलियन टन निर्माण व विध्वंस का कचरा जमा हुआ होगा. अब सवाल है कि जब आंकड़े इकट्ठे करने में इतनी लापरवाही बरती जा रही है तब इसके समाधान को लेकर सरकार की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है.
अविकल सोमवंशी, रिसर्च एसोसिएट, सीएसई
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