खेसारी दाल : मिलावटी कारोबार को आबाद करने का औजार

 

khesari-dalwebपिछले दिनों केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का एक बयान टीवी पर देखा-सुना. उन्होंने कहा कि खेसारी की दाल बहुत स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है. साथ में उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि वे उसका सेवन 15 सालों से कर रहे हैं और सेहतमंद हैं. पासवान को सुनते-देखते हुए मैं कोई 35 साल पहले 1982-83 के समय में चला गया. उनका संसद का वह भाषण याद आया, जिसमें उन्होंने खेसारी की खेती का जमकर विरोध करते हुए उसे पूरी तरह से प्रतिबंधित करने की बात कही थी.

पासवान का भाषण इतना बेजोड़, तर्कों और तथ्यों से भरा था कि हम उन्हें दिल्ली बधाई देने गए थे. रामविलास पासवान कब से खेसारी प्रेम करने लगे, नहीं मालूम लेकिन खेसारी पर फिर से बात शुरू हुई है तो 1979 से शुरू होकर 1983 तक हम लोगों द्वारा चलाया गया एक अभियान याद आ रहा है. विंध्य पर्वत के इलाके यथा सतना, जबलपुर आदि के क्षेत्रों में हम साथियों ने तब बंधुआ मजदूरी के खिलाफ एक अभियान की शुरुआत की थी, जब बंधुआ मजदूरों की स्थिति पर काम करने गए तो वहां उनसे जुड़ी दूसरी कहानी सामने आई. वह कहानी खेसारी की थी. हमने देखा कि जो मजदूर काम करते हैं, उन्हें मजदूरी के रूप में खेसारी ही दिया जाता है. दाल, रोटी से लेकर सत्तू… सब रूप में वे खेसारी का सेवन करते थे. उन मजदूर परिवारों में भारी संख्या में लंगड़े लोगों की संख्या देखने को मिली. हमने खेसारी के पेंच को समझने की शुरुआत की. वैज्ञानिक तथ्यों को जुटाना शुरू किया. मालूम हुआ कि खेसारी में तीन से लेकर 6.5 प्रतिशत तक जहरीले तत्व होते हैं, इसलिए यह बीमारी हो रही है. फिर वैज्ञानिकों ने बताया कि अगर इसे उबाल लिया जाए, उसे सुखा दिया जाए यानी पूरी प्रोसेसिंग की जाए तो यह खाने लायक हो जाता है, इसके विष कम हो जाते हैं. मजदूरों को बोला गया कि जो मजूरी मिलती है, उस दाल को प्रोसेस कर इस्तेमाल में लाया करो. भला मजदूरों के पास आग, पानी, समय आदि कहां था. उन्होंने मना नहीं किया लेकिन हमें यह मालूम हो गया कि इनसे संभव नहीं होगा.

तब हम लोगों की ओर से एक प्रस्ताव था कि एक प्रोसेसिंग यूनिट लगाते हैं, वहां खेसारी दाल को प्रोसेस करते हैं और फिर मजदूरों से खेसारी दाल लेकर उससे उतनी ही मात्रा में अदला-बदली किया करेंगे ताकि उन्हें विषमुक्त दाल मिल सके. लेकिन यह भी व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं था. हम लोग सुप्रीम कोर्ट गए. उसी समय में एक जनहित याचिका दायर की कि खेसारी दाल की खेती बंद की जाए. दुनिया भर से वैज्ञानिक तथ्य हम लोग जुटा चुके थे. योजना आयोग का भी दरवाजा खटखटाया. बहुत खेल हुआ कोर्ट में मामला पहुंचने पर लेकिन योजना आयोग ने पहल और मदद की. तब मध्य प्रदेश की सरकार ने तय किया कि वह पारंपरिक दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन देगी. उस समय खेसारी दाल की खेती बंद होने की स्थिति बनी कि तभी दिल्ली स्थित पूसा संस्थान ‘पूसा 24’ नाम से एक नए किस्म का खेसारी बीज लाया. बताया गया कि इस बीज के प्रयोग से उपजाई गई दाल खाने लायक होगी. इस खेसारी बीज का नाम ‘पूसा-24’ इसलिए रखा गया क्योंकि एक तो इसे पूसा में तैयार किया गया था और दूसरा यह कि इसमें जहरीले तत्व की मात्रा मात्र 0.24 प्रतिशत ही होती थी. इस खेसारी को खेतों में उतारने की तैयारी हुई, तब हम लोगों ने मालूम किया तो पता चला कि पूसा ने इस बीज को लेकर प्रायोगिक खेती कर कई जगहों पर देखा और यह पाया कि तीसरी फसल आते-आते तक फिर इसमें जहरीले तत्वों की मात्रा तीन से 6.5 प्रतिशत तक पहंुच जाती है. बीज के विज्ञान को देखेंगे तो ऐसा ही होता भी है. कुछ फसल के बाद वह उत्पादन के क्रम में अपने मौलिक गुण के साथ आने लगता है. तब हाल यह जानिए कि सिर्फ मध्य प्रदेश में ही 10 लाख टन से अधिक खेसारी का उत्पादन होता था. पूरे देश का आंकड़ा न जाने कितना होगा! खेसारी की खेती पर प्रतिबंध की बात हुई लेकिन वह खेल चलता रहा. पारंपरिक दालों की खेती में कमी आती गई. खेसारी मजदूरी के रूप में सस्ता भुगतान का विकल्प होने के बाद मिलावट के बाजार में पहुंचने लगी. अरहर-चना आदि दालों में उसे मिलाया जाने लगा. मैं आज भी दावे के साथ कहता हूं कि बाजार में जो बेसन मिलते हैं, उनमें 80 प्रतिशत बेसन ऐसे होते हैं, जिनमें 50 प्रतिशत से अधिक खेसारी की मिलावट होती है.

खेसारी का विरोध करते-करते रामविलास पासवान इसके समर्थक कैसे बन गए, जबकि 35 साल पहले संसद में उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगाने को कहा था

अब एक बार फिर आईसीएआर का ही हवाला देकर कहा जा रहा है कि दाल की किल्लत से निजात पाने के लिए आईसीएआर ने खेसारी की ऐसी किस्म विकसित की है, जिसका सेवन किया जाए तो उससे नुकसान नहीं होगा. यह भी बताया जा रहा है कि उसमें प्रोटीन से लेकर पोषक तत्व तक सब मौजूद रहेंगे. चलिए मान लिया, लेकिन दो सवालों का जवाब तो वैज्ञानिकों को पहले ही दे देना चाहिए. एक तो यह कि इसकी गारंटी कौन देगा कि खेसारी की इस उन्नत किस्म की जब खेती होगी तो उस खेसारी की खेती नहीं होगी, जिसमें जहरीले तत्व की भरपूर मात्रा होती है? क्या दोनों खेसारी के स्वाद में कोई अंतर होगा? दोनों खेसारी को मिला देने से कैसे पता चलेगा कि मिलावट हो गई है? उन्नत किस्म का जो बीज मिलेगा, वह महंगा होगा, उसकी खेती कम की जाएगी और फिर उस नाम पर साधारण खेसारी की अधिक खेती कर उसमें मिलाने का नया खेल चलेगा, सामान्य बुद्धि से यह जान लेने की जरूरत है. और एक महत्वपूर्ण सवाल और है. खेसारी के बारे में यह सर्वज्ञात वैज्ञानिक तथ्य है कि वह टिप्सिन एलिवेटर होता है. टिप्सिन एक किस्म का एंजाइम होता है. वह शरीर में मौजूद होता है. उसका काम प्रोटीन को पचाना उसके जरिये शरीर में पोषक तत्वों का निर्माण करना है. खेसारी में लाख प्रोटीन रहे लेकिन चूंकि यह गुण से टिप्सिन एलिवेटर होता है इसलिए इसके प्रोटीन का शरीर में कोई उपयोग नहीं हो सकता. जो होगा, वह शौच के रूप में बाहर निकल जाएगा. उसका कोई फायदा नहीं होगा. अब ऐसे खेसारी का क्या फायदा होगा, यह भी तो कोई बताए. खेसारी पर बातें बहुत सारी हैं. खेसारी हमेशा से खेल का जरिया रहा है. एक समय में मजदूरों को सताने का जरिया था, अब मिलावट के कारोबार को आबाद करने का जरिया.

लेखक चिकित्सक हैं 

(निराला से बातचीत पर आधारित)