क्या श्रीनगर और नई दिल्ली राजनीतिक टकराव की तरफ़ बढ़ रहे हैं? उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस सरकार, जिसे कांग्रेस का बाहर से समर्थन हासिल है; ने हाल में केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा में एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें केंद्र सरकार से माँग की गयी है कि वह क्षेत्र के 2019 में ख़त्म किये गये विशेष दर्जे को वापस करने के लिए प्रदेश के निर्वाचित प्रतिनिधियों से बातचीत शुरू करे। इस पर सदन में जिस तरह का हंगामा हुआ और भाजपा ने इस प्रस्ताव का जो पुरज़ोर विरोध किया, उससे ज़ाहिर होता है कि केंद्र और राज्य सरकार में आने वाले दिनों में और तनाव पैदा हो सकते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि सफल चुनाव के बाद सूबे के लोगों को जो राहत मिली है और अपनी समस्याओं के हल की जो उम्मीद उन्हें है, उस पर यह तनाव पानी फेर सकता है।
चुनाव के बाद विधानसभा के पहले ही सत्र में जो प्रस्ताव उमर सरकार की तरफ़ से पास किया गया, उसमें अनुच्छेद-370 और अनुच्छेद-35(ए) शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया गया है। अलबत्ता केंद्र से यह कहा गया है कि वह सूबे के विशेष दर्जे के बहाली के लिए चुने प्रतिनिधियों से बातचीत शुरू करे। दरअसल भारतीय संविधान के अनुच्छेद-370 से ही जम्मू-कश्मीर को विशेष सूबे का दर्जा हासिल था। लेकिन चूँकि नेशनल कॉन्फ्रेंस सरकार को बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस अनुच्छेद-370 का ज़िक्र नहीं चाहती थी, इसलिए प्रस्ताव का मसौदा इस तरीक़े से बनाया गया कि उसमें इसका ज़िक्र न हो।
अलबत्ता कांग्रेस जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य और विधानसभा की बहाली पर ज़ोर दे रही है। शायद इसका कारण उसकी इस सोच का भी है कि अनुच्छेद-370 पर हो चुके फ़ैसले को बदला नहीं जा सकता है। यह बात मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुखिया फ़ारूक़ अब्दुल्ला भी जानते हैं। लेकिन चूँकि नेशनल कॉन्फ्रेंस अनुच्छेद-370 ख़त्म करने की प्रबल विरोधी रही है और चुनाव में उसने इसे घोषणा-पत्र में शामिल किया था, उसकी यह राजनीतिक मजबूरी है कि वह सूबे की जनता को संदेश दे कि वह अनुच्छेद-370 की बहाली की माँग पर ज़ोर दे रही है। कांग्रेस की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। उलटे राष्ट्रीय राजनीति में उसे इसका नुक़सान होता लिहाज़ा उसने अपनी माँग पूर्ण राज्य के दर्जे तक सीमित रखी है। लिहाज़ा प्रस्ताव का ड्राफ्ट कांग्रेस के राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए ‘विशेष राज्य का दर्जा बहाल हो’ पर सीमित किया गया और अनुच्छेद-370 शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया।
चूँकि भाजपा की भी राजनीतिक मजबूरी है कि वह अनुच्छेद-370 के मसले को कम से कम महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनाव तक सुलगता रखे, उसने विधानसभा के भीतर ख़ूब हंगामा किया। जैसे ही प्रस्ताव जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पास हुआ, महाराष्ट्र के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा इसे अपने भाषणों में ले आये और कांग्रेस पर आक्रमण करते हुए कहा कि वह जम्मू-कश्मीर अनुच्छेद-370 वापस लाकर वह देश के हितों को नुक़सान पहुँचाना चाहती है। जबकि सच यह है कि कांग्रेस सरकार का हिस्सा नहीं है, बल्कि सिर्फ़ बाहर से उमर सरकार को समर्थन दे रही है। लेकिन इस पर जैसी राजनीतिक टिप्पणियाँ होने लगी हैं और कटुता बढ़ी है, वह श्रीनगर और नई दिल्ली के बीच सिर्फ़ खाई को बढ़ाएगी।
जम्मू-कश्मीर में इन फ़ालतू के मुद्दों के अलावा जनता से जुड़े असंख्य मुद्दे हैं। जैसे- बिजली, पानी, रोज़गार, सड़कें और स्कूल आदि। आतंकवाद के चलते इन सब चीज़ों को बहुत नुक़सान पहुँचा है। दूर ग्रामीण क्षेत्र आज भी पानी से वंचित हैं। सड़कों की भी हालत बेहतर नहीं हैं; और बिजली व्यवस्था के तो क्या ही कहने। बिजली के हालात इतने ख़राब हैं कि जम्मू जैसे शहर में यह कई बार 24 घंटे में सिर्फ़ 10-12 घंटे ही उपलब्ध रहती है। श्रीनगर में यही स्थिति है। ऐसे में ग्रामीण इलाक़ों की क्या हालत होगी, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। साल 2019 में जब अनुच्छेद-370 को ख़त्म किया गया था; उससे एक साल पहले ही सूबे में राष्ट्रपति शासन लग गया था। लेकिन उसके बाद चुनाव होने तक बिजली-पानी जैसे मौलिक सुविधाओं को बेहतर करके तरफ़ कोई ठोस काम नहीं हुआ। शराब के ठेके तो कोने-कोने में खुल गये; और जिन क्षेत्रों में सुधार होना था, उन्हें नज़रअंदाज़ ही रखा गया।
अब जबकि चुनाव के बाद जनता की चुनी हुई सरकार बनने से जैसा माहौल बन रहा है, वो अच्छे संकेत नहीं देता। राजनीतिक टकराव बढ़ रहा है और आतंकवाद बढ़ती की घटनाएँ भी परेशान कर रही हैं। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जम्मू-कश्मीर में जनता की चुनी सरकार तो बन गयी; लेकिन साथ ही आतंकवादी घटनाओं में भी बढ़ोतरी हो गयी। इसके पीछे निश्चित ही उमर अब्दुल्ला सरकार को कमज़ोर करने की साज़िश हो सकती है। न तो आतंकवादी और न ही पाकिस्तानी सरकार चाहती थी कि जम्मू-कश्मीर में जनता की चुनी हुई कोई सरकार बने। चुनी सरकार न होने से दिल्ली के जम्मू-कश्मीर पर सीधे नियंत्रण के रहते पाकिस्तान में बैठे आतंकवादियों के समर्थकों को भारत के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने में आसानी रहती थी।
पाकिस्तान की तरफ़ से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर की जनता से ज़्यादतियों का दुष्प्रचार किया जाता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर की जनता ने पूरे मन से मतदान किया और बड़ी संख्या में किया। इस डर को जानते हुए भी किया कि आतंकवादी हमले हो सकते हैं। चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस की जीत हुई जिसे कश्मीर ही नहीं हिन्दू बहुल जम्मू से भी सात सीटें मिली। यह ज़ाहिर करता है कि आज भी सूबे की जनता फ़ारूक़ अब्दुल्ला से प्यार करती है और उन पर भरोसा करती है कि वह उनकी समस्याएँ हल करेंगे। बेशक मुख्यमंत्री फ़ारूक़ के बेटे उमर बने हैं, इस चुनाव में जीत का बड़ा श्रेय फ़ारूक़ की भरोसे वाली छवि को ही जाता है। चुनाव तो हो गये, सरकार भी बन गयी; लेकिन अचानक आतंकवादी घटनाओं में भी बढ़ोतरी हो गयी।
ऐसा संदेश देने की कोशिश भी हुई है कि यह उमर सरकार की नाकामी है; लेकिन चूँकि जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) का ही दर्जा अभी है, वहाँ की क़ानून व्यवस्था केंद्र के ही तहत है। आतंकवादी घटनाओं में अचानक बढ़ोतरी तब हुई जब अभी भी सूबे की सीमाओं पर बड़ी संख्या में सेना तैनात है। मोदी सरकार चुनाव से पहले तक दावा कर रही थी कि उसने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को नकेल दिया है और अब वहाँ छिटपुट आतंकवादी या उनके समर्थक ही बचे रह गये हैं। यदि ऐसा हुआ था, तो फिर यह आतंकवादी वारदात क्यों हो रही हैं? सच तो यह है कि इन घटनाओं में बढ़ोतरी को शंका की निगाह से देखा जा रहा है। केंद्र सरकार की एजेंसियों पर भी सवाल उठ रहे हैं।
फ़ारूक़ अब्दुल्ला तो इन घटनाओं से इतने दु:खी हुए कि उन्हें कहना पड़ा कि यदि ऐसा ही चलता रहा, तो मुश्किल हो जाएगी। कश्मीर की जनता में भी इन घटनाओं से चिन्ता और आक्रोश है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि यदि आतंकवादी घटनाएँ जारी रहती हैं, तो उमर सरकार को काम करना काफ़ी मुश्किल होगा। सूबे में 10 साल के बाद चुनाव हुए हैं और त्रस्त जनता ने राहत की साँस ली है कि अब उनकी समस्याएँ ख़त्म होंगी। लेकिन स्थिति ख़राब होती दिख रही है। सबको पता है कि कश्मीर की जनता ने अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के ख़िलाफ़ वोट दिया है। यही कारण है कि उमर अब्दुल्ला सरकार को विधानसभा में सूबे के विशेष दर्जे की बहाली का प्रस्ताव पास करना पड़ा। भाजपा के 29 विधायकों को छोड़कर बाक़ी सभी 61 विधायकों ने इस प्रस्ताव का पक्ष लिया।
ज़ाहिर है भाजपा जम्मू-कश्मीर में इस मुद्दे को टकराव में बदलना चाहती है, ताकि उमर अब्दुल्ला की राह कठिन हो। इसे संयोग ही कहेंगे कि जम्मू-कश्मीर में उमर सरकार का जो हश्र भाजपा करना चाहती है, वही पाकिस्तान भी चाहता है। यहाँ तक कि आतंकवादी भी उमर सरकार को कमज़ोर करना चाहते हैं, जिनकी डोर पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के हाथ में रहती है। भाजपा को इस चुनाव में लाख कोशिश के बाद भी कश्मीर घाटी में एक भी सीट नहीं मिली है। बतौर विपक्ष सरकार का विरोध करना भाजपा का अधिकार है; लेकिन उसे यह ख़याल रखना चाहिए कि जनता ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को समर्थन दिया है।
यदि जम्मू-कश्मीर को विकास की राह पर ले जाना है तो वहाँ की जनता को यह अहसास दिलाना होगा कि हम आपको देश का मज़बूत हिस्सा मानते हैं। इसे साथ वैसी ही बेहतर व्यवहार होना ज़रूरी है; जैसे देश के अन्य तमाम राज्यों के साथ होता है। यह कहने भर के लिए नहीं है, इसके लिए ज़मीन पर काम करना होगा और केंद्र को उमर सरकार को जनता के काम करने देने में मदद और पैसा, दोनों देने होंगे। राजनीति ही होती रही, तो अभी तक शान्ति स्थापित करने की कोशिशों के मिट्टी में मिलते देर नहीं लगेगी। उमर सरकार को भी बेवजह के टकराव के मसलों को त्यागकर जनता के लिए काम में जुट जाना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है, तो नई दिल्ली और नेशनल कॉन्फ्रेंस दोनों जनता का समर्थन खो देंगी, जिसका नतीजा यह होगा कि नई दिल्ली और श्रीनगर के बीच दूर बढ़ जाएगी। अगर ऐसा हुआ, तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा।