बिहार की राजनीति एक बार फिर उस मुहाने पर खड़ी है जहां एक तरफ संभावनाओं के नये द्वार खुलते दिख रहे हैं तो दूसरी ओर विडंबनाओं के दोहराव की आहट भी मिल रही है. देखा जाए तो पिछले एक साल के दौरान राज्य की राजनीति का ध्रुव लगातार खिसका है. इस बदलाव के केंद्र में सत्ताधारी जदयू के मुखिया नीतीश कुमार हैं. करीब 18 साल पहले नीतीश ने लालू प्रसाद यादव के विरोध के नाम पर भाजपा से हाथ मिलाया था. अब भाजपा से अलगाव करने और दुश्मनी बढ़ा लेने के बाद नीतीश ने उन्हीं लालू प्रसाद का साथ मांगा है. मकसद है राज्यसभा चुनाव में अपनी फजीहत रोकना. दरअसल जदयू के कुछ बागी विधायकों ने नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है. राज्यसभा चुनाव में बागियों ने दो सीटों पर अपने उम्मीदवार भी उतार दिए हैं. नीतीश को डर है कि अगर बागियों को भाजपा का समर्थन मिल गया और उनके कुछ विधायकों ने क्रॉस वोटिंग कर दी तो नतीजे उनकी फजीहत करा सकते हैं. यही वजह है कि उन्हें लालू प्रसाद में उम्मीद की किरण दिख रही है.
यह संभवतः पहला मौका है, जब नीतीश कुमार को उन लालू प्रसाद का साथ मांगना पड़ा है जिनके वे धुर विरोधी हुआ करते थे. यह भी दिलचस्प है कि हाल ही में लोकसभा चुनाव के बाद जब नीतीश ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था तो लालू प्रसाद की पार्टी राजद ने उन्हें समर्थन दिया था. लेकिन तब नीतीश का भाव ऐसा था कि उन्हें इस समर्थन में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब लालू प्रसाद के पास मौका आया है कि वे बिहार की राजनीतिक बिसात पर चारों खाने चित्त होने के बाद भी विजयी भाव का प्रदर्शन कर सकें या कुछ माह पहले नीतीश कुमार की पार्टी द्वारा राजद में तोड़-फोड़ कर उसे कमजोर करने की कवायद का बदला भी ले सकें. और कुछ नहीं तो जुबानी तरीके से ही सही.
लेकिन लालू प्रसाद ऐसा नहीं कर रहे हैं. वे संभलकर बोल रहे हैं. उन्होंने सिर्फ इतना भर कहा है कि नीतीश कुमार की पार्टी में आग लगी हुई है तो उन्हें दमकल बनाकर बुला रहे हैं. दरअसल जितने मजबूर नीतीश हैं या उनकी पार्टी है, उससे ज्यादा मजबूर फिलहाल लालू हैं. वे जानते हैं कि फिलहाल यह मौका नीतीश से हिसाब-किताब बराबर करने का नहीं है. जैसे नीतीश को भाजपा का डर सता रहा है उसी तरह लालू भी डरे हुए हैं. नीतीश जानते हैं कि इस माहौल में राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा चाहेगी कि वह तटस्थ होकर खेल बनाए-बिगाड़े और फिर राज्य की सरकार गिर जाए तो वह मोदी लहर की सवारी करके सत्ता में आ जाए. यही डर लालू प्रसाद को भी है. लालू प्रसाद भी जानते हैं कि अभी राज्य में स्थिति उनके अनुकूल नहीं है. दोनों की मजबूरी एक-सी है. दोनों के सामने दुश्मन भी अब एक है, इसलिए संभव है कि राज्यसभा चुनाव में दोनों साथ हो जाएं. राज्यसभा में लेने-देनेवाला साथ अगले विधानसभा चुनाव तक के साथ में बदलेगा, यह कहना अभी जल्दबाजी है. न नीतीश कुछ खुलकर बोल रहे हैं न लालू. भाजपा दोनों ही स्थितियों में अपना फायदा देख रही है. उसके नेताओं को लगता है कि अगर लालू ने राज्यसभा चुनाव में जदयू का साथ नहीं दिया तो जदयू का बंटाधार तय है. और अगर साथ दे दिया तो भी उसे आगे की राजनीति करने में सहूलियत होगी.
भाजपा चाहती है कि लालू और नीतीश साथ आएं. इससे उसे यादव विरोधी और कुरमी विरोधी पिछड़ी जातियों का एक समूह तैयार करने में आसानी होगी
दअरसल भाजपा को लगता है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का साथ मिलना उसके लिए विधानसभा चुनाव में विटामिन का काम करेगा. नीतीश जब सत्ता में आए थे तो कहा गया कि यह लालू के राजपाट से मुक्ति की कामना का परिणाम तो था ही, राज्य में पिछड़े समूह में भी यादव विरोधी जातियों का एक समूह बन जाने से भी नीतीश के लिए सत्ता पाना आसान हो गया था. लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ने पारी बदलकर 15 सालों तक बिहार में शासन किया. इतने सालों के लालू शासन की वजह से पिछड़ी जातियों में भी यादव एक अलग समूह में सिमट गए थे. लालू प्रसाद मुख्यतः उसी समूह-भर के नेता के रूप में सिमटने लगे. नीतीश कुमार भी पिछले आठ सालों से सत्ता में हैं और यह माना जाता रहा है कि इतने सालों के राजपाट के बाद बिहार के पिछड़ों में कुरमी विरोधी जातियों की भी लामबंदी हुई है. इसका ही नतीजा हुआ कि भाजपा ने जब उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता को लोकसभा चुनाव में उछाला तो नीतीश के बने-बनाए समीकरण ध्वस्त हो गए. कुरमी से अधिक आबादी रखनेवाला कुशवाहा समुदाय अपनी जाति से उभरे एक नेता यानि उपेंद्र कुशवाहा के साथ चला गया या उस बहाने भाजपा के साथ भी.
भाजपा के नेता चाहते हैं कि किसी तरह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक साथ आएं. इससे उन्हें यादव विरोधी और कुरमी विरोधी पिछड़ी जातियों का एक समूह तैयार करने में आसानी होगी. चूंकि अगले विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश कुमार ने यह घोषणा पहले ही कर दी है कि जीतन राम मांझी ‘टेंपररी’ सीएम हैं, अगला चुनाव उनके ही नाम पर, उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा, इसलिए भाजपा की नजर महादलितों पर भी होगी. भाजपा नेताओं को लगता है कि वे अपने पूरे तंत्र के जरिए इस बात का प्रचार करने में सफल रहेंगे कि नीतीश ने उनके समूह के नेता को सिर्फ इस्तेमाल भर किया. भाजपा महादलित के मुकाबले अतिपिछड़े समूह से एक-दो नेताओं को आगे बढ़ाने की योजना पर भी अभी से ही काम कर रही है. पार्टी सवर्ण जातियों, पिछड़ों में वैश्यों व कुशवाहाओं को अपने पाले में मानकर चल रही है. अब वह किसी तरह अतिपिछड़ों का गठजोड़ तोड़ना चाहती है. नीतीश और लालू प्रसाद के मिलन से उसके लिए यह आसान हो सकता है. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक भाजपा यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि 23 साल तक यादव और कुरमी ही सत्ता में रहे, भविष्य में भी ये सत्ता अपने पास ही रखना चाहते हैं और अतिपिछड़ों को सिर्फ एक समूह बनाकर रखना चाहते हैं.
पार्टी की उम्मीदें और कारणों से भी हैं. केंद्र में उसकी सरकार है. भाजपा नेताओं ने अपना एक विशेष एजेंडा तैयार किया है जिसे वे नरेंद्र मोदी के जरिए बिहार में लागू करवाना चाहते हैं. कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न तक दिलवाने तक की मांग बिहार भाजपा के नेताओं ने की है, ऐसी सूचना मिल रही है. और सबसे बड़ी बात भाजपाइयों को यह दिख रही है कि आखिर जब नीतीश, लालू का साथ किसी भी रूप में लेंगे तो वे लड़ाई किस औजार से लड़ेंगे. सुशासन की बात करेंगे तो भाजपाई उसमें सहयोगी रहे हैं. अलगाव के बाद भाजपा सत्ता में रही नहीं कि उसके राजकाज पर नीतीश कुमार टिप्पणी कर सकें. इसके उलट यह जरूर संभावना बन रही है कि भाजपाई इस बात का प्रयास जोरशोर से करेंगे कि जिस कुशासन से मुक्ति का सपना दिखाकर बिहार में नीतीश कुमार को सत्ता मिली थी, कुशासन के उसी मॉडल का साथ लेकर या देकर वे फिर से किसी तरह सत्ता पाना चाह रहे हैं, विकास या सुशासन इनके एजेंडे में अब प्राथमिकता के तौर पर नहीं रहा. भाजपा यह भी बताना चाहेगी कि केंद्र में उसकी सरकार है, बिहार में भी रहेगी तो विकास की गति और तेज हो सकती है. भाजपा को इस तर्क से एक आधार मिलेगा जिसका वह फायदा उठाने की फिराक में भी है.