हिन्दी सिनेमा जगत में बहुत कम फिल्म निर्देशक ऐसे रहे हैं जिन्होंने सिनेमा की ताकत का सही मायनों में इस्तेमाल किया है. ख्वाजा अहमद अब्बास का नाम हिन्दी के उन नामचीन फिल्मकारों में शुमार होता है जिन्होंने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के अनुरूप फिल्में बनाने की शुरुआत की. ख्वाजा ने अपनी पहली ही फिल्म नया संसार के जरिए यह साबित कर दिया कि देश और समाज के निर्माण में कला और सिनेमा अधिक अहम भूमिका निभा सकते हैं. उपन्यासकार, कहानीकार, फिल्मकार और फिल्म समीक्षक ख्वाजा अहमद अब्बास ने हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में 73 किताबें लिखीं. साथ ही उन्होंने 13 फिल्में भी बनाईं जिनमें से अधिकांश सही मायनों में सामाजिक परिवर्तन का संदेशवाहक बनीं.
पानीपत में 7 जून 1914 को जन्मे ख्वाजा अहमद अब्बास ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कानून की तालीम ली थी. उनका ताल्लुक मशहूर शायर ख्वाजा अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ के घराने से था. उनके दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास 1857 के स्वतंत्रता सेनानियों की अग्रिम पंक्ति में शामिल थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने तोप से बांधकर शहीद कर दिया था. देश के लिए कुछ करने की सीख ख्वाजा अहमद अब्बास को अपने पुरखों से मिली थी. उस पर अमल करते हुए उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया. अलीगढ़ में रहते हुए उन्होंने ‘नेशनल कॉल’ अखबार और ‘अलीगढ़ ओपिनियन’ पत्रिका में लिखा. तालीम पूरी कर 1935 में जब वह फिल्म नगरी पहुंचे तो ‘बांबे क्रॉनिकल’ अखबार से जुड़े. वहां उन्होंने फिल्मी लेखन पर ज्यादा ध्यान दिया. इसी बीच उनका नाता ‘ब्लिट्ज’ जैसे अखबार से जुड़ा, तो जीवन के आखिर (1 जून 1987) तक कायम रहा. इसमें हर सप्ताह छपने वाले उनके स्तम्भ ‘द लास्ट पेज’ को काफी ख्याति मिली, जिसे उन्होंने लगभग 52 साल तक लिखा. उनका यह स्तम्भ उर्दू संस्करण में ‘आजाद कलम’ और हिंदी में ‘आखिरी पन्ने’ नाम से प्रकाशित होता था.
ख्वाजा अहमद अब्बास का फिल्म समीक्षा लिखने का अपना बेलौस अंदाज था. यह अंदाज कुछ फिल्मकारों को रास नहीं आता था. कुछ ने टिप्पणी कर दी थी कि फिल्म समीक्षा लिखना आसान है, पर फिल्म लिखना व बनाना कठिन है. फिल्मकारों की यह टिप्पणी ख्वाजा को नागवार गुजरी. उन्होंने फिल्म बनाने की चुनौती स्वीकार की. उनकी लिखी कहानी पर बॉम्बे टाकीज ने ‘नया संसार’ (1941) फिल्म बनाई. एक आदर्शवादी पत्रकार को केन्द्र में रखकर लिखी गई इस कहानी को प्रशंसा मिली तो ख्वाजा को तीन और फिल्में लिखने को मिलीं. रिलीज होने पर ख्वाजा ने देखा कि उनकी कहानियों के अधिकांश हिस्से बदल दिए गए हैं. जब उन्होंने इसका शिकवा निर्देशकों से किया, तो व्यंग्य में जवाब मिला कि अपनी कहानी पर बिल्कुल वैसी ही फिल्म देखने की तमन्ना है तो निर्देशन क्यों नहीं कर लेते. उन्होंने अचानक आने वाली इस दूसरी चुनौती को भी स्वीकार किया. यह वह समय था जब बंगाल में अकाल पड़ा था, तो द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका ने गांवों को बदहाल कर दिया था. भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा) ने इस विपत्ति में देशवासियों की सहायता करने का फैसला किया. इप्टा के संस्थापक सदस्यों में शामिल ख्वाजा ने संगठन के इस प्रस्ताव को आजादी के एक साल पहले सिनेमा के परदे पर ‘धरती के लाल’ फिल्म के जरिए पेश किया. यह फिल्म युद्ध और अकाल की विभीषिका के बीच किसानों की मुसीबतों और उनके पलायन की पीड़ा का चित्रण करती है, साथ ही उससे मुक्ति का हल भी सुझाती है. इसी साल आने वाली दो और फिल्मों ‘नीचा नगर’ और ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ में भी ख्वाजा का योगदान था.
ख्वाजा ने अपनी पहली ही फिल्म नया संसार के जरिए यह साबित कर दिया कि देश और समाज के निर्माण में कला और सिनेमा अधिक अहम भूमिका निभा सकते हैं
ख्वाजा अहमद अब्बास के लिए सिनेमा समाज के प्रति एक प्रतिबद्धता थी. इसी के तहत उन्होंने ‘राही’ (1952) में चाय बागान के मजदूरों के हालात को दिखाया. ‘बंबई रात की बांहों में’ (1968) में महानगरों में रात में चलने वाले अवैध धंधों का चित्रण किया. ‘शहर और सपना’ (1963) फुटपाथ पर जिंदगी गुजारने वालों की समस्याओं को चित्रित करने वाली फिल्म थी. वहीं ‘दो बूंद पानी’ (1971) के जरिए उन्होंने राजस्थान में पानी की विकट समस्या को दिखाया. उनकी फिल्मों में ग्रामीण और शहरी दोनों परिवेश मौजूद हैं.
ख्वाजा को फिल्म जगत को अनेक रत्न देने का भी श्रेय जाता है. ‘धरती के लाल’ के रास्ते अभिनेता बलराज साहनी और संगीतज्ञ पंडित रविशंकर ने फिल्मों में कदम रखा. इस सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ (1969) के निर्माता-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास ही थे. ख्वाजा ने अपने करीब चार दशक के फिल्मी कॅरियर में 40 फिल्मों की कहानियां और पटकथाएं लिखीं. अपनी कंपनी ‘नया संसार’ के अलावा उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में राज कपूर के लिए लिखीं. ख्वाजा ने सामाजिक और राजनीतिक मसलों को तरजीह देते हुए फिल्मों में गरीबी, अकाल, छुआछूत और सांप्रदायिकता जैसे मसलों को पेश किया.
साहित्य की बात करें तो ख्वाजा अहमद अब्बास के अफसाने उस समय के मशहूर कहानीकारों कृश्न चंदर व सआदत हसन मंटो आदि के साथ छपते थे. कृश्न चंदर से उनका याराना मशहूर था. अपनी हर रचना और फिल्म पर कृश्न चंदर की सहमति को वह सबसे बड़ा प्रमाण पत्र मानते थे. ख्वाजा के प्रमुख कहानी संग्रहों में ‘एक लड़की’, ‘गेंहू और गुलाब’, ‘जाफरान के फूल’ और ‘मैं कौन हूं’ शामिल हैं. ‘इंकलाब’ और ‘दिया जले सारी रात’ उनके प्रमुख उपन्यास हैं. सांप्रदायिकता पर प्रहार करने वाले उनके उपन्यास ‘इंकलाब’ की काफी चर्चा रही है. वह ‘जो सही लगता है…जो सही दिखता है’ में यकीन रखकर शब्दों को आकार देते थे. इस खरेपन के कारण उनकी कुछ कहानियों को लेकर विवाद भी खड़े हुए. उन्हें अदालतों के चक्कर तक काटने पड़े. इसके बावजूद उन्होंने कभी कलम से समझौता नहीं किया. जीवन में अनेक दुश्वारियों का सामना करते हुए भी सामाजिक प्रतिबद्धता से मुंह नहीं मोड़ा.