कहते हैं कि राजनीति में टोटके खूब चलते हैं. ऐसा ही एक टोटका सत्तारूढ़ भाजपा में चल रहा है. यह टोटका हिंदुत्व, पिछड़ा और चायवाला कंबिनेशन का है. लोकसभा चुनाव में ऐसे ही उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने बड़ी जीत दर्ज की तो अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ऐसे ही कंबिनेशन के सहारे जीत हासिल की जाने की तैयारी हो रही है. उप्र भाजपा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य इस कंबिनेशन पर सटीक बैठ रहे हैं. अपेक्षाकृत कम अनुभवी और दागदार छवि वाले केशव कोइरी जाति से आते हैं. वे बजरंग दल से जुड़े रहे हैं. विश्व हिंदू परिषद के संगठन में रहे हैं और एक जमाने में चाय भी बेचते रहे हैं.
गत आठ अप्रैल को जब भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उनके नाम की घोषणा की तो पार्टी कार्यकर्ता, विरोधी और राजनीतिक विश्लेषक सभी भौचक रह गए. पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए धर्मपाल सिंह, स्वतंत्रदेव सिंह, मनोज सिन्हा, दिनेश शर्मा, विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह जैसे दूसरे नेताओं के नाम की चर्चा चल रही थी, लेकिन इसके बजाय शीर्ष नेतृत्व ने केशव को उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को अगले आम चुनावों के पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस बार भी नरेंद्र मोदी की सरकार बनाने में उत्तर प्रदेश का बड़ा हाथ रहा है. पार्टी ने यहां से 73 सीटों पर जीत दर्ज की है. हालांकि उसके बाद से होने वाले पंचायत चुनावों, विधान परिषद चुनावों समेत अन्य मुकाबलों में पार्टी की बुरी गत हुई है. ऐसे में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है. हालांकि विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के खेवनहार केशव की जिंदगी भी काफी उठापटक भरी रही है.
केशव प्रसाद मौर्य इलाहाबाद से सटे कौशांबी के सिराथू के कसया गांव के रहने वाले हैं. जानकार बताते हैं कि किसी जमाने में उनके पिता श्याम लाल वहां चाय की दुकान चलाते थे. केशव की प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा भी वहीं हुई थी. उन्होंने पिता की चाय की दुकान में मदद करने से लेकर अखबार बेचने का काम किया. इसी दौरान एक दिन उनकी मुलाकात विहिप नेता दिवंगत अशोक सिंहल से हुई. इसके बाद से केशव का रुझान संघ की तरफ हो गया और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने संघ की शाखाओं में जाना शुरू कर दिया. सिंहल से करीबी और अपने जुनून से वे बहुत जल्द संगठन में जिला स्तर तक पहुंचने में सफल हो गए. विहिप कार्यकर्ता के रूप में केशव 18 साल तक गंगापार और यमुनापार में प्रचारक रहे.
साल 2002 में इलाहाबाद शहर पश्चिमी विधानसभा सीट से उन्होंने भाजपा प्रत्याशी के रूप में राजनीतिक सफर शुरू किया. उन्हें बसपा प्रत्याशी राजू पाल ने हराया था. इसके बाद साल 2007 के चुनाव में भी उन्होंने इसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा. पर इस बार भी उन्हें जीत तो हासिल नहीं हुई. 2012 के चुनाव में उन्हें सिराथू विधानसभा से जीत मिली. यह सीट पहली बार भाजपा के खाते में आई थी. दो साल तक विधायक रहने के बाद केशव ने फूलपुर लोकसभा सीट पर भी पहली बार भाजपा का झंडा फहराया. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में इससे पहले भाजपा को कभी जीत नहीं मिली थी.
‘केशव प्रसाद मौर्य आपराधिक नहीं जुझारू प्रवृत्ति के नेता हैं. वे हमेशा अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं. आप देख सकते हैं कि उन पर ज्यादातर मुकदमे कार्यकर्ताओं का साथ देने के चलते दायर हुए हैं. इसमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है’
इन सबसे अलग मौर्य का एक पहलू और भी है. लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने मई 2014 में जो हलफनामा चुनाव आयोग में जमा किया था, उसके अनुसार केशव के खिलाफ 10 आपराधिक मामले हैं. इनमें धारा 302 (हत्या), धारा 153 (दंगा भड़काना) और धारा 420 (धोखाधड़ी) के तहत लगाए गए आरोप शामिल थे. इसके अलावा हलफनामे में यह भी बताया गया है कि कभी चाय बेचने वाले केशव और उनकी पत्नी करोड़ों के मालिक हैं. केशव दंपति पेट्रोल पंप, एग्रो ट्रेडिंग कंपनी, लॉजिस्टिक कंपनी आदि के मालिक हैं. साथ ही वे इलाहाबाद के जीवन ज्योति अस्पताल में पार्टनर भी हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश जातीय राजनीति की प्रयोगशाला है. यहां सपा ने पिछड़ों के सहारे जातीय समीकरण साधकर इस बार सत्ता का सफर तय किया है तो इससे पहले बसपा ने ब्राह्मण और दलितों को एकजुट कर सत्ता हासिल की थी. कुछ ऐसा ही भाजपा केशव प्रसाद मौर्य को अध्यक्ष बनाकर करना चाह रही है. दरअसल उत्तर प्रदेश में भाजपा 2003 से सत्ता से बाहर है. इसके बाद से हर विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटों में तेजी से गिरावट आई है. 2002 के विधानसभा चुनाव में जहां भाजपा ने 88 सीटों पर जीत दर्ज की थी वहीं 2007 में यह संख्या 51 रही तो 2012 में यह घटकर 47 हो गई. ऐसे में 12 सालों बाद प्रदेश में किसी पिछड़े की ताजपोशी कर भाजपा सत्ता हथियाना चाहती है. केशव को अध्यक्ष बनाए जाने का यह सबसे प्रबल कारण रहा.’
हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी इस बात से इत्तफाक नहीं रखते हैं. वे कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्या का चुनाव किसी जाति विशेष से आने के कारण नहीं हुआ है. उनके चुनाव का कारण सिर्फ उनका हिंदू होना है. वे एक कुशल राजनेता हैं.’
कुछ ऐसी ही राय वहीं कौशांबी के सरसवां ब्लॉक के पूर्व प्रमुख और भाजपा नेता लाल बहादुर भी रखते हैं. वे कहते हैं, ‘केशव प्रसाद का चुनाव जाति के आधार पर नहीं हुआ है. उनकी ताकत संगठन को मजबूत करने और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता है. संघ और विहिप में रहने के दौरान ही केशव प्रसाद ने अपनी इस प्रतिभा को दिखा दिया था. संघ का विश्वास उनके ऊपर है. वे अपने काम को लेकर जुनूनी हैं. उनमें बहुत उत्साह है. जिस दौर में इलाहाबाद में भाजपा से लोग दूर जा रहे थे उस दौर में कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम उन्होंने किया था. इसी के बलबूते वे ऐसी जगहों पर जीतने में भी सफल रहे जहां भाजपा ने कभी जीत हासिल नहीं की थी. सिराथू विधानसभा सीट और फूलपुर लोकसभा सीट दोनों पर पहली बार भाजपा ने उन्हें ही प्रत्याशी बनाकर जीत हासिल की. पार्टी में उनकी स्वीकार्यता खूब है. वे किसी गुट विशेष से जुड़े हुए नहीं माने जाते हैं. अध्यक्ष बनने के बाद वे जहां भी गए उनका जोरदार स्वागत किया गया है. लखनऊ में कार्यकर्ताओं ने नारा लगाया- केशव मौर्या संत है, सपा-बसपा का अंत है.’
लेकिन वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में भाजपा हमेशा यह कोशिश करती है कि अगड़ी और यादव के अलावा बाकी पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाया जाए. यह दीनदयाल उपाध्याय के जमाने से भाजपा की सामाजिक रणनीति रही है. जब भाजपा इसमें कामयाब हो जाती है मतलब जब उसे अगड़ी जातियों के साथ लोधी, कोइरी, कुर्मी, पटेल आदि गैर-यादव पिछड़ी जातियों का वोट मिल जाता है तो उसकी सीटों में भारी इजाफा हो जाता है. इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने अब अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया है जो कोइरी जाति का है. अब वहां कुर्मी और कोइरी को जोड़कर लव-कुश कंबिनेशन बनाया जा रहा है. अपना दल वगैरह के साथ गठबंधन करके भाजपा पहले से ही कुर्मियों को अपने साथ करने में सफल रही है. ऐसे में भाजपा यह दांव खेलकर कितनी कामयाब होगी यह कहना जल्दबाजी होगा क्योंकि सिर्फ अध्यक्ष बदलने से आप विधानसभा चुनाव जीत नहीं सकते हैं. इसके लिए आपको टिकट वितरण को ध्यान में रखना होगा. इसके अलावा विपक्षी पार्टियां अपनी रणनीति कैसी बनाती हैं यह भी देखना होगा.’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष के रूप में केशव प्रसाद मौर्य का चुनाव नहीं किया गया है. दरअसल इस पद पर उनकी नियुक्ति अमित शाह द्वारा की गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास की कितनी भी बात करें लेकिन जब-जब अमित शाह को निर्णय लेने का मौका मिलता है तो वह सिर्फ राम मंदिर और हिंदुत्व का ही मुद्दा चलाने की कोशिश करते हैं. हालांकि वह इसमें फेल भी होते हैं, लेकिन अभी इस मुद्दे से उनका मोह गया नहीं है. अब इस फैसले में भी यह साफ नजर आता है. केशव का इतिहास देखें तो हिंदुत्व और अशोक सिंहल के करीबी होने के अलावा उन्होंने कुछ खास नहीं किया है. उन्होंने गोहत्या पर रोक लगाने के लिए एक संगठन बनाया लेकिन कौशांबी के रहने वाले लोगों का कहना है कि वह गोहत्या करने वाले लोगों को बचाने में भी खूब लगे रहे.’
हालांकि ऐसा नहीं रहा कि केशव प्रसाद मौर्य का विरोध नहीं हुआ. इलाहाबाद में ही भाजपा नेत्री राजेश्वरी पटेल ने उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में पार्टी से इस्तीफा दे दिया. लेकिन ज्यादातर भाजपा नेताओं ने इस घटना को ज्यादा तवज्जो नहीं दी और इस इस्तीफे को निजी रंजिश का परिणाम बताया. हालांकि इलाके में यह उनकी इकलौती रंजिश नहीं है. इसकी फेहरिस्त काफी लंबी है. जिले में जैसे-जैसे उनका कद और पद बढ़ा, उन पर मुकदमे भी बढ़ते गए. इनमें साजिश, लूट, दंगा भड़काने, धार्मिक स्थल तोड़ने, धोखाधड़ी समेत तमाम संगीन धाराओं में उन पर मुकदमे दर्ज हैं. इनमें सबसे अधिक मुकदमे दंगा भड़काने के हैं. उनके खिलाफ इलाहाबाद और कौशांबी के विभिन्न थानों में कुल दस एफआईआर दर्ज हैं.
केशव प्रसाद के खिलाफ सबसे पहले 1996 में कौशांबी के पश्चिम शरीरा थाने में दंगा भड़काने, सरकारी काम में बाधा डालने, पुलिस पर हमला, और बलवा करने का मामला दर्ज हुआ था. इसके बाद ठीक दो साल बाद इलाहाबाद के कर्नलगंज थाने में ऐसे ही मामलों में एफआईआर हुई . 2008 में कौशांबी के मोहम्मदपुर पइंसा थाने में धोखाधड़ी, जालसाजी समेत अन्य धाराओं में रिपोर्ट लिखी गई. इसी घटना के साथ एक अन्य मुकदमा किया गया है जिसमें केशव पर मोहम्मदपुर पइंसा थाने में ही धार्मिक स्थल तोड़ने, बलवा करने और दंगा भड़काने की एफआईआर दर्ज हुई. उनके खिलाफ कौशांबी में 2011 में तीन मुकदमे दर्ज हुए. पहला मंझनपुर थाने में बलवा, दंगा भड़काने समेत अन्य मामलों में दूसरा कोखराज थाने में एक मुस्लिम युवक की हत्या और साजिश के मामले में वे नामजद हुए. कोखराज थाने में भी दंगा भड़काने की एफआईआर हुई. 2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ प्रतियोगी छात्रों के आंदोलन के दौरान हुए बवाल में केशव के खिलाफ बलवा, सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचाने, तोड़फोड़, पुलिस टीम पर हमला, सरकारी काम में बाधा समेत अनेक धाराओं में मुकदमा किया गया.
हालांकि मुकदमों की लंबी फेहरिस्त बताकर विरोध करने वालों को केशव ने जोरदार भाषा में जवाब दिया. लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि अन्याय के खिलाफ उनकी लड़ाई जारी रहेगी. सरकार 11 नहीं, 11 हजार मुकदमे लगा दे तब भी कोई परवाह नहीं है. वहीं इस मामले पर कौशांबी भाजपा के जिलाध्यक्ष रमेश पासी कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्य आपराधिक नहीं जुझारू प्रवृति के नेता हैं. वे हमेशा अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं. आप देख सकते हैं कि उन पर ज्यादातर मुकदमे कार्यकर्ताओं का साथ देने के चलते दायर हुए हैं. इसमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है. मेरा मानना है कि भाजपा कार्यकर्ता अब विपक्ष का अत्याचार बर्दाश्त नहीं करेगा.’
कुछ ऐसी ही बात लक्ष्मीकांत बाजपेयी भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘किसी भी पार्टी का कोई कार्यकर्ता जब किसी जिले में अपने काम की बदौलत तेजी से उभरना शुरू होता है तो वह सत्तारूढ़ दल समेत अन्य लोगों को खटकना शुरू हो जाता है. फिर उस पर अंकुश लगाने के लिए विभिन्न अर्जी-फर्जी मुकदमे दायर होने लगते हैं. जो इन मुकदमों से डर जाता है वह नेपथ्य में चला जाता है, लेकिन जिसने अपने शर्ट के दो बटन खोल दिए उसके उपर दो मुकदमे और दायर हो जाते हैं. वैसे भी ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ मुकदमे दायर होने से जनप्रतिनिधि नहीं बन सकता है. अगर वह जनप्रतिनिधि बन सकता है तो संगठन के लिए क्यों अयोग्य होगा?’
हालांकि बाजपेयी से जब यह पूछा गया कि आखिर भाजपा की ऐसी कौन-सी मजबूरी थी जिसके चलते वह संगठन में तमाम वरिष्ठ लोगों की मौजूदगी के बावजूद आपराधिक छवि वाले केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी अध्यक्ष के रूप में चुनती है तो उन्होंने कहा, ‘मुझसे आप तीन वाक्य सुन लो पहला, टिट फॉर टैट; दूसरा, जैसे को तैसा और तीसरा शठे शाठ्यम् समाचरेत. अरे, सामने वाला नंगा है और आप मुझसे कह रहे हैं कि आपने लंगोट क्यों पहन लिया है. अरे, माला जपने से राजनीति नहीं होती है. राजनीति के हिसाब से चीजें बदल जाती है.’
आपराधिक छवि को लेकर 47 वर्षीय केशव का समर्थन करने वालों में सिर्फ भाजपा नेता नहीं बल्कि इलाहाबाद में रहकर सिविल परीक्षाओं की तैयारी करने वाले कुछ युवा भी शामिल हैं. सिविल परीक्षा की तैयारी करने वाले अनूप तिवारी कहते हैं, ‘2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ प्रतियोगी छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ तो केशव छात्रों के समर्थन में कूद पड़े. 2015 में लोकसेवा आयोग के मुद्दे पर छात्रों का आंदोलन चल रहा था तो वे बेली अस्पताल में छात्रों से मिलने पहुंचे. इस दौरान उनकी दरोगा से कहासुनी भी हो गई थी. इसके पहले वे 2013 में सिविल लाइंस में छात्रों के साथ खड़े रहे. इन तीनों मामलों में उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज है. अब इसमें उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं हैं. जहां दूसरे नेता छात्रों के साथ खड़े नहीं होते हैं वही केशव एक आवाज देने पर हमारे साथ कहीं भी चलने के लिए तैयार हो जाते हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें इसका फायदा मिला और छात्रों ने उनके पक्ष में जबरदस्त माहौल बनाया था.’
हालांकि ऐसा नहीं है कि सब केशव प्रसाद मौर्य की इस छवि से खुश हैं. चायल विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ चुके सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद रूफी कहते हैं, ‘शीर्ष भाजपा नेतृत्व केशव की छवि को कैसे भी दिखाए लेकिन इलाहाबाद में हकीकत सबको पता है. केशव ने अपराध के सहारे ही अपनी राजनीति चमकाई है. उनके उपर मामले इसलिए नहीं दर्ज हुए कि वे राजनीतिक रूप से मजबूत हो रहे थे बल्कि जितना अपराध में वे मजबूत हुए उतना ही राजनीति में उनका कद बढ़ा. गोरक्षा समेत दूसरे अभियान चलाकर उन्होंने हमेशा अल्पसंख्यकों को डराने और बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण की कोशिश की है. इलाहाबाद से मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी समेत दूसरे भाजपा नेता भी रहे हैं, लेकिन केशव इस कड़ी में सबसे कमजोर हैं. उनके नेतृत्व में भाजपा के मजबूत होने के आसार कम ही हैं. खुद उनकी अपनी ही जाति में उनका जनाधार बहुत ज्यादा नहीं है. उनका कद इतना बड़ा नहीं है कि अल्पसंख्यक उनके साथ अपने को जोड़ सकें. कुल मिलाकर केशव भाजपा के लिए फायदे का सौदा नहीं हैं.’
‘चुनाव से पहले केशव की नियुक्ति से साफ पता चलता है कि भाजपा को हिंदुत्व और राम मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता है. जबकि यह साफ है कि राम मंदिर और हिंदुत्व को भुनाने का वक्त बीत चुका है. पार्टी जब-जब इस मुद्दे पर चुनाव लड़ती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है’
वहीं शरत प्रधान कहते हैं, ‘चुनाव से पहले केशव की नियुक्ति से साफ पता चलता है कि भाजपा को हिंदुत्व और राम मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता है. जबकि यह साफ है कि राम मंदिर और हिंदुत्व को भुनाने का वक्त बीत चुका है. पार्टी जब-जब इस मुद्दे पर चुनाव लड़ती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है. लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा उपचुनावों में पार्टी ने योगी आदित्यनाथ को आगे बढ़ाकर चुनाव लड़ा था लेकिन सफलता नहीं मिल पाई थी. इस दौरान जमकर हिंदुत्व, लव जेहाद और राम मंदिर जैसे मुद्दों को उछाला गया था. वैसे भी चुनाव के ठीक पहले लक्ष्मीकांत बाजपेयी को हटाकर केशव की नियुक्ति करके भाजपा भी कांग्रेस की राह पर है. कांग्रेस में पहले से ही यह कल्चर रहा है कि काम करने वाले आदमी को चुनाव के ठीक पहले हटाकर अपने आदमी को नियुक्त कर दें. यही अब अमित शाह कर रहे हैं. योगी आदित्यनाथ को उपचुनाव की बागडोर देकर हार का सामना कर चुकी भाजपा अब दूसरे योगी आदित्यनाथ यानी केशव को बागडोर सौंप रही है. मुझे आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्या में खास फर्क नजर नहीं आता है. आगामी विधानसभा चुनावों में अमित शाह की कलई खुल जाएगी.’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता रमेश यादव कहते हैं, ‘केशव के चुने जाने से कुछ अलग होने का दावा करने वाली भाजपा का चेहरा प्रदेश की जनता के सामने खुल गया है. विधानसभा चुनाव से पहले दागी छवि वाले व्यक्ति को प्रदेश की कमान सौंपे जाने से सीधे-सीधे यह पता चलता है कि अमित शाह और मोदी की जोड़ी सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. हालांकि उत्तर प्रदेश में उनका यह दांव नहीं चलने वाला है. प्रदेश की जनता ने पिछले दो साल में केंद्र की सत्ता में भाजपा के कुशासन को देख लिया है.’
विपक्षी उनकी संपत्ति को लेकर भी सवाल उठाते रहे हैं. उनका कहना है कि चाय बेचने से अपने जीवन की शुरुआत करने वाले केशव सिर्फ दो दशक के भीतर करोड़पति हो गए. हालांकि भाजपा नेता लाल बहादुर इसके जवाब में कहते हैं, ‘विरोधियों ने केशव का जुझारूपन नहीं देखा है. वह आदमी मेहनती और उर्जा से भरपूर है. उन्होंने बिजनेस करके सारा पैसा कमाया है और खुद अपनी संपत्ति घोषित की है. उन्होंने कोई चोरी नहीं की है. उनका व्यापार इलाहाबाद समेत अन्य जिलों में फैला है. अगर आपको कुछ गड़बड़ लगता है तो जांच करा लीजिए. प्रदेश में कौन-सी हमारी सरकार है. दरअसल यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा है, जिसके जरिए जनता को भरमाया जा रहा है.’
फिलहाल प्रदेश में नेतृत्व संभालते ही केशव अपने तेवर दिखाने लगे हैं. वे अभी प्रदेश में ताबड़तोड़ दौरे कर रहे हैं और स्थानीय नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं. जल्ह ही वे आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अपनी टीम का गठन भी करने वाले हैं. प्रदेश कार्यकारिणी समेत जिला कार्यकारिणी में बड़े बदलाव किए जाने की बात भी हो रही है. वे मंदिर मुद्दे से तो परहेज कर रहे हैं लेकिन प्रदेश में रामराज्य लाने की बात कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर भी सक्रिय केशव ने मिशन 265 प्लस को अपना एजेंडा बना लिया है. जीत के लिए सपा-साफ, बसपा-हाफ और बीजेपी ऑन ‘टॉप’, सपा-बसपा मुक्त उत्तर प्रदेश जैसे जुमले भी गढ़े जा रहे हैं.
हालांकि इस सबके बावजूद विश्लेषक भाजपा और केशव की राह को कांटों भरी ही बता रहे हैं. डॉक्टर प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्य के सामने चुनौती काफी बड़ी है और उनका कद काफी छोटा है. प्रदेश की कुल 20-25 विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखने वाले व्यक्ति को मिशन 265 प्लस की जिम्मेदारी सौंपा जाना समझ से परे है. प्रदेश में लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा समर्थकों में कमी ही आई है. इसमें इजाफा नहीं हुआ है. हालांकि केशव जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए सबसे मुफीद हैं, लेकिन बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रूहेलखंड, मध्य यूपी और अवध जैसे अलग-अलग हिस्सों में वे कैसे प्रभाव जमाएंगे यह देखने वाली बात होगी. पूरे प्रदेश में आप एक नारे से जीत नहीं हासिल कर सकते हैं. हर जगह अपने स्थानीय मुद्दे और समीकरण हैं जिन्हें साधकर चलना होगा. हालांकि अभी तक भाजपा पिछली विधानसभा में हासिल की गई सीटों में सिर्फ 10-20 सीटों का इजाफा करती नजर आ रही है. इसे बहुमत तक पहुंचाना केशव, अमित शाह और संघ सभी के लिए चुनौतीपूर्ण है.’