मध्य प्रदेश में इस साल हो रहे विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक बनाने के लिए भाजपा मुख्यमंत्री चौहान की छवि को लेकर मैदान में उतरने जा रही है. किंतु गेमन इंडिया लिमिटेड कंपनी (मुंबई) को राजधानी भोपाल के बीचोबीच आवंटित 15 एकड़ सरकारी जमीन चौहान के लिए गले की हड्डी बन सकती है. आरोप है कि जमीन का यह आवंटन एक ऐसा महाघोटाला है जिसमें राज्य के कई मंत्रियों और आला अधिकारियों ने चुपचाप और बड़ी चालाकी से एक नहीं दर्जनों नियम तोड़े और कई सौ करोड़ रुपये की इस अमानत को कौडि़यों के भाव बेच दिया. किंतु इसी कड़ी में अब जो नए दस्तावेज आए हैं उनमें मुख्यमंत्री कार्यालय की भूमिका साफ दिखाई दे रही है. बहरहाल इस मामले की एक याचिका हाई कोर्ट में लंबित है, लिहाजा चौहान की उम्मीद और नाउम्मीदी का फैसला अब न्यायालय की चौखट पर ही तय होने वाला है.
यह मामला 2005 में राज्य की भाजपा सरकार की उस पुनर्घनत्वीकरण (रिडेंसीफिकेशन) नाम की योजना से जुड़ा है जिसका मकसद भोपाल के मुख्य बाजार इलाके, दक्षिण टीटी नगर की सरकारी कॉलोनी तोड़कर इसे नए सिरे से बसाना था. इसी के चलते सरकार ने पहले तो यहां के सरकारी मकानों और एक स्कूल को तोड़कर जमीन को खाली कराया. फिर 17 अप्रैल, 2008 को यह बेशकीमती जमीन गेमन कंपनी को 337 करोड़ रुपये में बेच दी. मगर इस पूरे सौदे में जिस तरीके से कंपनी के पक्ष में नीलामी करने, औने-पौने दाम पर कंपनी को जमीन बेचने, लीज रेंट माफ करने, फ्री-होल्ड (जमीन का
मालिकाना हक) देने और उसे वापस लेने के अलावा कंपनी को विशेष रियायत देने जैसी कई अनियमितताएं सामने आईं उससे सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े हो गए. राज्य सरकार की इन्हीं अनियमितताओं को लेकर एडवोकेट देवेंद्र प्रकाश मिश्र ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाई है. मिश्र के मुताबिक इस योजना की आड़ में राज्य सरकार के नुमाइंदों ने मामला कुछ ऐसा जमाया कि हजारों करोड़ रुपये का लाभ कंपनी के पाले में जाए और उससे होने वाला घाटा शासन की झोली में. इस सौदे में कंपनी के लिए जो लीज रेंट माफ किया गया है उससे उसे तकरीबन 5 हजार 276 करोड़ रुपये का लाभ होगा. याचिका में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके काबीना मंत्रियों (बाबूलाल गौर, जयंत मलैया और राजेंद्र शुक्ल आदि) पर आरोप है कि उन्होंने निजी कंपनी को उपकृत करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाया और सारे नियमों को ताक पर रखकर जमीन के एक बड़े घोटाले को अंजाम दिया.
क्यों मुख्यमंत्री सवालों के घेरे में हैं.
पुनर्घनत्वीकरण की एक ऐसी ही योजना के तहत ग्वालियर (थाटीपुर) में भी काम किया जाना था. किंतु ग्वालियर में छह साल बीत जाने के बाद भी जहां यह प्रक्रिया शुरू नहीं की गई वहीं भोपाल में सरकार ने गेमन की तमाम अड़चनों को महज 24 घंटे में दूर कर दिया. 17 अप्रैल, 2008 का दिन राज्य के लिए मिसाल है जब 337 करोड़ रुपये की यह प्रक्रिया मुंबई (कंपनी कार्यालय) से भोपाल (कई सरकारी विभाग) तक बेरोकटोक अपने मुकाम पर पहुंच गई. और इसी दिन गेमन ने दीपमाला इन्फ्रास्ट्रक्चर को योजना की सहायक कंपनी बनाते हुए सरकार के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता किया और योजना का सारा काम दीपमाला कंपनी को सौंप दिया. तहलका को मिले कागजात में दीपमाला कंपनी द्वारा सीधे मुख्यमंत्री को लिखे गए पत्र और उसके बाद कंपनी के पक्ष में आधिकारिक तौर पर अधीनस्थ विभागों को जारी किए गए निर्देश बताते हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने दीपमाला कंपनी को किस हद तक तरजीह दी है. इस कड़ी में 27 अप्रैल, 2008 का वह पत्र भी है जिसमें दीपमाला कंपनी के प्रबंधकों की मुख्यमंत्री से हुई पुरानी मुलाकात का हवाला देते हुए उनसे यह अपेक्षा की गई है कि वे हस्तक्षेप करके इस काम के लिए आधिकारिक अनुमतियां दिलवाएं. इसी पत्र में आधिकारिक तौर पर एक टीप लिखी गई है जिसमें ठीक एक दिन बाद यानी 29 अप्रैल, 2008 को मुख्यमंत्री की बैठक की सूचना देते हुए अधीनस्थ विभागों के आला अधिकारियों को हाजिर रहने का आदेश दिया गया है. और इस तारीख से एक महीने के भीतर दीपमाला कंपनी को कई आवश्यक अनुमतियां मिल जाती हैं.
वहीं 27 सितंबर, 2008 की नोटशीट मुख्यमंत्री कार्यालय की कार्यशैली पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती है. इस योजना की नोडल एजेंसी आवास एवं पर्यावरण विभाग को जारी इस नोटशीट पर लिखा है- ‘नोटशीट की प्रतिलिपि करा लें और प्रकरणों में लगा लें. पुनः कोई कार्रवाई आवश्यक हो तो की जाए.’ जानकारों की राय में यह एक ऐसी नोटशीट है जो जरूरत पड़ने पर कहीं भी उपयोग में लाई जा सकती है. जांच का विषय यह है कि यह नोटशीट अब तक किन-किन प्रकरणों में लगाई जा चुकी है.
इसी की अगली कड़ी में इस योजना की पर्यवेक्षक एजेंसी मप्र हाउसिंग बोर्ड द्वारा 2 फरवरी, 2009 को जारी की गई एक नोटशीट है जिसमें उसने मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा भेजी
गई सौ दिन की कार्य योजना और इस संबंध में बताए गए दिशानिर्देशों का जिक्र किया है. हम साथ ही यह भी बताते चलें कि इस मामले में मुख्यमंत्री की दिलचस्पी केवल पत्रों तक सीमित नहीं रही बल्कि उन्होंने कई बार आधिकारिक और अनाधिकारिक तौर पर निर्माण-स्थल का निरीक्षण करके यह जताने की कोशिश भी की है कि योजना सरकारी है. मगर जब तहलका ने दीपमाला कंपनी के महाप्रबंधक रमेश शाह से बातचीत की तो उन्होंने बताया, ‘यह योजना प्राइवेट है और इससे होने वाले लाभ में सरकार की कोई हिस्सेदारी नहीं है.’
मेहरबानियों का सिलसिला
गौरतलब है कि इस आवंटन में हुए गोलमोल की पोल खुलने की शुरुआत बीते साल जून में तब हुई जब सरकार ने कंपनी के पक्ष में जमीन फ्री-होल्ड (मालिकाना हक) कर दी. हालांकि विधानसभा के शीतकालीन सत्र में संसदीय मंत्री नरोत्तम मिश्र का कहना था कि सरकार ने जमीन फ्री-होल्ड नहीं की है, मगर इस बीच जब मामला हाई कोर्ट में पहुंचा तो सरकार ने 2 नवंबर, 2012 का अपना फैसला वापस ले लिया. सरकार के इस कदम ने जहां खुद ही सिद्ध कर दिया कि वह गलत थी वहीं यह पूरा सौदा ही संदेहास्पद हो गया.
कहा जा रहा है कि कंपनी को लाभ पहुंचाने की भूमिका काफी पहले बना ली गई थी. इसके लिए सरकार ने शहरी इलाके को बेहतर ढंग से बसाने के लिए 2003 में बनाई गई गाइडलाइन को जिस तरह से बदला है उससे सरकार को 5 हजार 250 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है. पुरानी गाइडलाइन में साफ लिखा था कि जब तक कंपनी निर्माण पूरा नहीं करती तब तक उससे हर साल लीज रेंट लिया जाएगा. मगर 2005 की गाइडलाइन में कंपनी की पक्ष में लीज रेंट माफ कर दिया गया. भारतीय स्टांप की धारा 33 के मुताबिक हर लीज डील में व्यावसायिक उपयोग पर साढ़े सात प्रतिशत और आवासीय उपयोग पर पांच प्रतिशत सालाना लीज रेंट लिया जाना चाहिए. याचिकाकर्ता के मुताबिक इस योजना में कंपनी को यह जमीन तीस साल के लिए लीज पर दी गई है और उसकी प्रीमियम राशि 335 करोड़ रुपये है. इस हिसाब से राज्य को कंपनी से हर साल 25.12 करोड़ रुपये मिलते.
यानी तीस साल में जनता के खजाने में 753 करोड़ रुपये आते. मगर योजना में लीज रेंट नहीं रखने से यह पैसा कंपनी के खाते में जाएगा. वहीं राजस्व के ही नियमों के मुताबिक तीस साल बाद जब लीज का नवीनीकरण किया जाता तो लीज रेंट छह गुना बढ़ जाता और अगले तीस साल तक राज्य को सालाना 150 करोड़ रुपये मिलते. मगर इस पूरी योजना के लिए किए गए अनुबंध में नवीनीकरण करने के बाद भी लीज रेंट शून्य ही रखा गया, लिहाजा यहां भी जनता के खजाने को 4 हजार 522 करोड़ रुपये का चूना लगेगा. दूसरी तरफ पुरानी गाइडलाइन में तोड़े जाने वाले मकानों को उसी स्थान पर बनाने की बात भी थी. मगर नई गाइडलाइन में पर्यावरण और यातायात के नजरिये से उक्त मकानों को यहां बनाना अनुचित बताया गया. सवाल है कि यदि रहवास के लिए यह स्थान अनुचित है तो दीपमाला कंपनी को रहवासी परिसर बनाने की मंजूरी क्यों दी गई है.
नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है. मई, 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिए. सरकार ने 17 कंपनियों को इस योजना के योग्य मानते हुए उनसे जमीन की प्रस्तावित कीमत मांगी. सरकार का दावा है कि 17 कंपनियों में से केवल गेमन ने ही अंतिम तारीख यानी 30 नवंबर, 2007 तक 337 करोड़ रुपये की प्रस्तावित कीमत भेजी थी. जबकि याचिकाकर्ता का दावा है कि उनके पास रिलायंस इनर्जी प्राइवेट लिमिटेड द्वारा 23 नवंबर, 2007 को शासन को लिखा वह पत्र है जिसमें रिलायंस ने अंतिम तारीख बढ़ाने की मांग की थी. मगर सरकार ने इसमें कोई रुचि न लेते हुए गेमन के साथ करार किया. नई गाइडलाइन में यह साफ लिखा है कि अच्छी बोली की संभावना होने पर नीलामी दोबारा की जा सकती है. सवाल है कि सरकार ने गेमन के साथ करार करने में इतनी हड़बड़ी क्यों की. विशेषज्ञों का मानना है कि नीलामी में गेमन के ब्रांड की बड़ी भूमिका थी. किंतु गेमन को आगे करके बाद में जिस दीपमाला कंपनी को सारा काम सौंप दिया गया वह इस योजना के योग्य नहीं है. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी (मुंबई) के मुताबिक इस योजना में दीपमाला की खुद की पूंजी सिर्फ एक लाख रूपये है.
नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है. मई, 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिएगेमन को सस्ते में जमीन देने का मामला भी सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है. ऐसा इसलिए भी कि उसने यह जमीन उसकी वास्तविक कीमत से काफी कम में बेची. दरअसल जब एक आम आदमी लीज डीड (रजिस्ट्रेशन) में देरी करता है तो उस पर तत्काल अधिभार लगा दिया जाता है मगर दीपमाला कंपनी ने 22 सिंतबर, 2011 यानी जमीन का सौदा होने के तीन साल बाद लीज डीड की. इस समय तक कलेक्टर की गाइडलाइन के मुताबिक जमीन 747 करोड़ रुपये की हो चुकी थी. मगर कंपनी ने 335 करोड़ रुपये ही जमा किए. इस पर भी उसने 335 करोड़ रुपये तीन साल और तीन किश्तों में चुकाए.
इसके लिए सरकार ने उससे न अतिरिक्त ब्याज की मांग की और न ही कंपनी ने यह ब्याज दिया. वहीं इस पूरे प्रकरण का दिलचस्प पहलू यह है कि इन विवादों के बावजूद सरकार द्वारा दीपमाला कंपनी पर की जा रही मेहरबानियों का सिलसिला है कि थमने का नाम नहीं लेता. इसी कड़ी में कंपनी ने नगर निगम को नर्मदा उपकर (पेयजल टैक्स) के रूप में 3.41 करोड़ रुपये की जगह 1.41 करोड़ रुपये जमा किए.
इस संबंध में तत्कालीन नगर निगम आयुक्त रजनीश श्रीवास्तव ने 13 दिसंबर को जब इस कंपनी को नोटिस थमाते हुए बकाया रकम जमा करने को कहा तो मामला तूल पकड़ गया. हालांकि बाद में दीपमाला कंपनी ने नर्मदा उपकर जमा किया लेकिन इसी के साथ श्रीवास्तव को उनके पद से हटा दिया गया. ऐसा ही एक और वाकया है जिसमें सरकार ने कंपनी के साथ मिलकर यहां के सैकड़ों पेड़ों को उखाड़कर कहीं दूसरी जगह स्थापित करने की अनोखी योजना बनाई थी. किंतु उनकी यह अनूठी और विचित्र योजना परवान नहीं चढ़ सकी और सारे पेड़ों को रातोंरात काट दिया गया.
तहलका ने इस बारे में जब मुख्यमंत्री चौहान से बात करनी चाही तो उनके निजी स्टाफ ने कोई रुचि नहीं दिखाई. वहीं राज्य की भाजपा सरकार ने गेमन मुद्दे को चुनावी हथकंडा बताते हुए हाई कोर्ट में इस प्रकरण से चौहान का नाम हटाने की गुहार लगाई है. दूसरी तरफ चौहान को पटखनी देने के लिए मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के हाथ एक बड़ा मुद्दा तो लगा लेकिन उसने भी इस मुद्दे पर विधानसभा में साधारण से सवाल पूछकर पल्ला झाड़ लिया. दरअसल इन दिनों राज्य में होने वाले बड़े घोटालों पर दोनों पार्टी के नेताओं ने एक-दूसरे को छेड़ना बंद-सा कर दिया है. इस बारे में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह से बात करने पर उन्होंने कहा, ‘हमारे पास इसके पुख्ता सबूत हैं कि गेमन घोटाले में सीएम का सीधा हाथ है. पर यह बात हम आपको क्यों बताएं? सही मंच और सही समय पर बताएंगे.’ मध्य प्रदेश में विधानसभा का चुनाव सिर पर है लेकिन कांग्रेस का सही समय पता नहीं कब आएगा?