क्या नेटवर्क 18, दैनिक भास्कर समूह, जी नेटवर्क, टाइम्स ग्रुप या ऐसे तमाम मीडिया समूह जनतंत्र की मूल आत्मा और उसके ढांचे के लिए खतरनाक हैं जो एक ही साथ दर्जनभर से ज्यादा ब्रांड को चमकाने और उनसे अपने मीडिया बिजनेस का प्रसार करने में लगे हैं? देश के इन प्रमुख मीडिया घरानों के संबंध में अगर ये बात सवाल की शक्ल में न करके बयान देने के तौर पर की जाए तो बहुत संभव है कि इनकी ओर से संबंधित व्यक्ति पर मानहानि का मुकदमा या कम से कम कानूनी नोटिस तो भेजा ही जाएगा. लेकिन भारत सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय, उसकी सहयोगी संस्था टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) और मीडिया के मालिकाना हक को लेकर समय-समय पर गठित कमेटी पिछले कुछ सालों से लगातार इस बात को दोहराती आई हैं कि जो मीडिया संस्थान एक ही साथ प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो, ऑनलाइन और मीडिया के कई दूसरे व्यवसाय से जुड़े हैं, वे दरअसल देश के लोकतांत्रिक ढांचे और उसकी बुनियाद कमजोर करने का काम कर रहे हैं.
15 फरवरी 2013 को ट्राई ने मीडिया के मालिकाना हक को लेकर करीब सौ पेज से भी ज्यादा का जो परामर्श पत्र तैयार किया, उसमें क्रॉस मीडिया ओनरशिप को परिभाषित किए जाने से लेकर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय एवं उसके आदेश से तैयार की गई उन तमाम रिपोर्टों की चर्चा है जो कि क्रॉस मीडिया ओनरशिप को जनतंत्र के लिए खतरा मानती है. इस पत्र में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है कि प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और ऑनलाइन जैसे दूसरे माध्यमों पर कुछ ही मीडिया संस्थानों का कब्जा होने से समाचार एवं मनोरंजन सामग्री की बहुलता नष्ट होती है. माध्यम के अलग होने के बावजूद भी कंटेंट के स्तर पर बहुत अधिक भिन्नता नहीं होती. ऐसे में माध्यमों के रूप बदलने और संख्या में इजाफा होते जाते जाने पर भी विविधता जो कि जनतंत्र के लिए अनिवार्य है, आ नहीं पाती, उनका प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता. लिहाजा इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूत है.
एक ही मीडिया घराने के समाचारपत्र, न्यूज चैनल, एफएम रेडियो और वेबसाइट से गुजरने वाले पाठक-दर्शक ये बात बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि माध्यम के बदले जाने के बावजूद कंटेंट और प्रभाव के स्तर पर हमारे बीच सूचना एवं मनोरंजन के दायरे का विस्तार क्यों नहीं हो पाता? ये भी संभव है कि सामान्य दर्शक-पाठक को इस बात की जानकारी तक न हो कि वो जो अखबार पढ़ रहे हैं, न्यूज चैनल देख रहे हैं, एफएम रेडियो सुन रहे हैं या विज्ञापन से गुजर रहे हैं, वो सबके सब एक ही मीडिया संस्थान की उपज है. इन सबों पर एक ही संस्थान का मालिकाना हक है.
मीडिया इंडस्ट्री पर आधारित वेबसाइट ‘न्यूज लॉन्ड्री’ ने ये बताने के लिए कि दर्शक-पाठक जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानकर जुड़ते हैं, उन पर किन-किन व्यावसायिक घरानों का कब्जा है और किस घराने में किन राजनीतिक, कॉर्पोरेट और मीडियाकर्मियों का पैसा लगा है, अलग से एक विंडो ही बनाई हुई है. वेबसाइट पर ‘हू ओन्स योर मीडिया’ (आपका मीडिया कौन चला रहा है) नाम से एक साइड बार है जिससे गुजरने पर क्रॉस मीडिया ओनरशिप की पूरी वंशावली स्पष्ट हो जाती है.
सूचना और प्रसारण मंत्रालय एवं ट्राई अभी तक क्रॉस मीडिया ओनरशिप के तहत सिर्फ माध्यमों के मालिकाना हक पर रिपोर्ट तैयार करती आई है. इस वेबसाइट के जरिए मालिकाना हक की वंशावली से जब गुजरते हैं तब अंदाजा लगता है कि जिस क्रॉस मीडिया ओनरशिप को ये जनतंत्र के लिए खतरा बता रहे हैं, वो सिर्फ प्रारंभिक चरण है. इस खतरे को समझने के लिए ऊपर की परतें हैं जबकि मीडिया की जो व्यावसायिक शक्ल है वो इससे कहीं अधिक चिप्पीदार हैं जिनमें एक ही मीडिया संस्थान पर इतने सारे व्यवसाय के पैबंद लगे हैं कि इस निष्कर्ष तक पहुंचने में बहुत मुश्किल नहीं होती कि मौजूदा दौर में मीडिया दरअसल वो वॉल मार्ट है जो अपनी दखल उन तमाम व्यवसायों में रखना चाहता है जिसका संबंध या तो प्रत्यक्ष मुनाफे या फिर अप्रत्यक्ष व्यावसायिक लाभ (सरोगेट बिजनेस प्रॉफिट) से है. मिसाल के तौर पर डीएमके प्रमुख करुणानिधि के पड़पोते और कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन के भाई कलानिधि मारन जो कि देश में सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाले सीईओ हैं, एक ही साथ 45 रेडियो स्टेशन, दर्जनभर से भी ज्यादा टीवी चैनल, समाचारपत्र और पत्रिकाओं पर मालिकाना हक रखने के साथ-साथ स्पाइसजेट एयरलाइंस, फिल्म प्रोडक्शन और डीटीएच सेवा के व्यवसाय से जुड़े हैं यानी उनकी कंपनी ‘कल मीडिया सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड’ का एक तरफ तो मीडिया के तमाम रूपों पर व्यावसायिक कब्जा है, इससे बिल्कुल अलग एयरलाइंस जैसे व्यवसाय में भी दखल है.
ये कहानी सिर्फ सन ग्रुप की नहीं है. यही स्थिति भास्कर ग्रुप, दैनिक जागरण समूह, जी नेटवर्क या ऐसे दूसरे दर्जनों मीडिया घरानों की है जो एक ही साथ न्यूज चैनल, रेडियो स्टेशन, समाचारपत्र के कारोबार में लगी है तो दूसरी तरफ चिटफंड, ठेकेदारी, कोयला एवं खनन, मॉल एवं रियल एस्टेट से लेकर स्कूल चलाने तक धंधे का विस्तार करने में लगी है. पर्ल ग्रुप, लाइव इंडिया समूह जैसे मीडिया के दर्जनों संस्थान ऐसे हैं जिनका मुख्य व्यवसाय चिटफंड या रियल एस्टेट रहा है, जिनकी मदर कंपनी मीडिया नहीं है. अपने कई दूसरे व्यवसायों के साथ-साथ वो मीडिया के भी कारोबार में भी हाथ आजमाने उतरे हैं.
ऊपरी तौर पर जो स्थिति बनती है इसमें तीन तरह के कारोबार प्रमुखता से जुड़े हैं. एक तो कॉर्पोरेट जिसमें कि चिटफंड से लेकर रियल एस्टेट तक के बिजनेस शामिल हैं, दूसरा राजनीति और तीसरा डिस्ट्रीब्यूशन एवं पीआर प्रैक्टिस. मीडिया का पूरा कारोबार किसी न किसी रूप में इन्हीं व्यवसायों से जुड़े लोगों के बीच चल रहा है. अब अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि खबरों या मनोरंजन का कारोबार करते हुए मीडिया संस्थान एक ही साथ कई दूसरे कारोबार के लिए अपनी पृष्ठभूमि बनाने या संतुलन बनाने का काम करते हैं.
मीडिया के इस ओनरशिप पैटर्न को हम कंटेंट के हिसाब से समझने की कोशिश करें तो स्वाभाविक है कि माध्यमों की बहुलता के बावजूद सामग्री के स्तर पर एकरूपता होगी. लेकिन इसका दूसरा पक्ष जो कि आमतौर पर चर्चा में नहीं आ पाता वो ये है कि क्या एक मीडियाकर्मी प्रेस कार्ड का पट्टा लगाकर सिर्फ अपने पत्रकारीय धर्म का निबाह कर रहा होता है या फिर उसका काम सिर्फ पत्रकारिता का रह गया है? दूसरा कि क्या उस पर सिर्फ अपने संबंधित न्यूज चैनल या अखबार के प्रसार की चिंता है? ये सवाल तब और भी जरूरी हो जाता है जब एस्सेल ग्रुप (जिसके दूसरे कई कॉर्पोरेट उपक्रम के अलावा मीडिया में जी न्यूज से लेकर जी सलाम जैसे दर्जनभर से भी ज्यादा चैनल हैं और डिश टीवी नेटवर्क का कारोबार है) के चेयरमैन डॉ. सुभाष चंद्रा लोकसभा चुनाव 2014 में एक राजनीतिक दल के लिए कुरुक्षेत्र में रैली के दौरान वोट देने की अपील करते हैं. इस रैली को जी न्यूज पर लाइव प्रसारित किया जाता है और फिर प्राइम टाइम की खबर बनती है. इस चैनल का संपादक जब खबर के बदले विज्ञापन में बिचौलिए की भूमिका में सौदेबाजी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है तो इंडिया गेट पर इस चैनल के मीडियाकर्मियों को मोमबत्ती जलाकर विरोध प्रदर्शन करने के लिए दवाब बनाया जाता है. देर रात सामान्य दर्शक स्टूडियो में रुक नहीं सकते तो इंडिया टीवी अपने ही कर्मचारियों को मेल जारी करते हुए अपने रिश्तेदारों को बतौर दर्शक मौजूद रहने के आदेश देता है. ऐसे में क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि मीडिया की इस ओनरशिप पैटर्न में मीडियाकर्मी का काम सिर्फ पत्रकारिता के दायरे के तहत काम करना रह गया है. स्वाभाविक है कि जैसे-जैसे मीडिया संस्थानों ने पत्रकारिता के नाम पर अपने व्यवसायिक दायरे का विस्तार किया है, मीडियाकर्मियों की जिम्मेदारी पत्रकारिता से आगे जाकर पीआर, लॉबिंग, लाइजनिंग, रिसेप्शनिस्ट जैसे उन कामों की भी हो गई है जिसका सैद्धांतिक तौर पर मीडिया से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है.
दूसरा कि खासकर टेलीविजन इंडस्ट्री के संदर्भ में सब टीआरपी के लिए किया जाता है, मुहावरा ही बन गया है और अब तो ये मुहावरा इतना घिस गया है कि गली-मोहल्ले के सामान्य दर्शक तो बात-बेबात इसका इस्तेमाल करते हैं. पैनल डिस्कशन में अक्सर राजनीतिक दलों के प्रवक्ता तक बोलते नजर आते हैं. एक तरह से मीडिया के इस बदलते चरित्र पर पर्दा ही डालने का काम करते हैं. पत्रकारीय जिम्मेदारी से छिटककर मीडियाकर्मी जिन सारी गतिविधियों में शामिल हैं उनसे टीआरपी का सवाल दूर-दूर से जुड़ा नहीं है बल्कि ये वो गतिविधियां हैं जिसका संबंध मीडिया संस्थान के उस प्रमुख व्यवसाय से है जिसके बूते चैनल के बने रहने की संभावना मजबूत होती है. जिस दिन मीडिया संस्थान का मूल व्यवसाय गड़बड़ाया नहीं कि मीडिया के कारोबार पर भी ताला लगते देर नहीं लगेगी. हमारे सामने एक के बाद एक चैनलों के बंद होने के उदाहरण हैं जो ये स्पष्ट करते हैं कि ये इसलिए बंद नहीं हुए क्योंकि टीआरपी की दौड़ में पिछड़ गए या इन्हें विज्ञापन नहीं मिले. ये इसलिए बंद होते चले गए क्योंकि अपने रियल एस्टेट, चिटफंड, राजनीति या ठेकेदारी के जिस मूल व्यवसाय की दम-खम पर टिके थे, उसमें कंपनी को भारी नुकसान हुआ और जिसका सीधा असर पहले कटौती, फिर वेतन रोक दिए जाने और अंत में इसके बंद ही कर दिए जाने पर हुआ. ऐसे में इस ओनरशिप पैटर्न के तहत मीडियाकर्मी लगातार इस बात की सलामती चाहते हैं कि कंपनी का जो मूल व्यवसाय है वो हर हाल में सुरक्षित रहे. एक ही मीडिया घराने का मीडियाकर्मी अंग्रेजी से हिंदी, टीवी स्क्रीन से ऑनलाइन तक पर जब दिखते हैं तो बात फिर भी समझ आ जाती है कि उनके ऊपर एक संस्थान के लिए काम करने का मतलब एक चैनल या वेबसाइट के लिए काम करना नहीं है, उन तमाम ब्रांड के लिए काम करना है जिसे उसकी कंपनी चलाती है.
नेटवर्क 18 में साल 2012-13 में रातोंरात सैंकड़ों मीडियाकर्मियों की छंटनी हुई, उसका आधार भी यही था. लेकिन एक मीडियाकर्मी पत्रकारिता के अलावा भी दूसरे कई काम कर रहा है वो कभी-कभार मीडिया संस्थान की ओर से आयोजित कॉन्क्लेव या फेस्टिवल में भले दिख जाते हों लेकिन खुले तौर पर सामने नहीं आ पाता.
ये स्थिति तो उस कॉर्पोरेट मीडिया का है जिसकी ओनरशिप माध्यमों के दायरे से लांघकर उस पैटर्न पर आकर टिकी है कि जहां-जहां मुनाफे की संभावना है, मीडिया संस्थान अपने पैर वहां-वहां बढ़ाएंगे. लेकिन पिछले कुछ सालों से खासकर लोकसभा चुनाव 2009 के बाद से चुनावी राजनीति की जो शक्ल बदली है उसमें एक नए किस्म की मीडिया ओनरशिप का दौर शुरू हुआ है.
ये कोई नई परिघटना नहीं है कि जो भी सरकार सत्ता में आती है, पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग से लेकर सरकारी विज्ञापनों पर निर्धारित खर्च को अपने पक्ष में इस्तेमाल करती है. ऑल इंडिया रेडियो से लेकर सरकारी भोंपू दूरदर्शन जैसे कई मुहावरे इतने प्रचलित रहे हैं कि इनकी व्याख्या किए बिना समझ आ जाता है कि माध्यमों पर कब्जा उसी का होगा, जिसका चुनाव के जरिए जनतंत्र पर है और तब वो अपनी सुविधानुसार छवि का जनतंत्र गढ़ने का काम करेंगे.
लोकसभा चुनाव 2009 के बाद फिक्की-केपीएमजी की मीडिया और मनोरंजन से संबंधित जो रिपोर्ट आती है, उसके बाद से मीडिया ओनरशिप का एक नया पैटर्न उभरकर आता है. रिपोर्ट का दिलचस्प पहलू है कि जब दुनियाभर में आर्थिक मंदी का दौर था और जिसका सीधा असर इस देश के कारोबार पर भी पड़ा, उस वक्त भी मीडिया इंडस्ट्री न केवल मुनाफे में रही बल्कि उसका विकास दर पहले से कहीं ज्यादा रहा. इसकी बड़ी वजह चुनाव से हासिल राजस्व रहा. मीडिया के लिए ये बात समझना कोई मुश्किल नहीं रहा कि एफएमसीजी, ऑटोमोबाइल और टेलीकॉम के विज्ञापनों की तरह राजनीति दल भी बेहतरीन क्लाइंट हो सकते हैं और न ही राजनीतिक दलों को इंडिया शाइनिंग के जबरदस्त पिट जाने के वाबजूद अंतिम सत्य मान लेने में देरी लगी कि भारी लागत के विज्ञापनों के बिना वे चुनाव में टिके रह सकते हैं. नतीजा माध्यमों पर निर्भरता का एक ऐसा दौर शुरू हुआ कि जिसमें विज्ञापन से कहीं ज्यादा इवेंट, पीआर प्रैक्टिस, स्ट्रैटजी और प्रोपेगेंडा प्रभावी होते चले गए.
आज देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दल बाकायदा पट्टाधारी मीडियाकर्मियों को अपने वॉररूम के लिए नियुक्त कर रहे है. उन्हें उसी तरह बायमेट्रिक कार्ड पंच करके शिफ्ट वाइज काम करना होता है जैसा कि मीडिया दफ्तरों में किया जाता है. उनका काम सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया की एक-एक सामग्री पर नजर रखनी होती है जो कि उनके पक्ष-विपक्ष में अपनी बात कर रहे होते हैं. उनका काम वेतन देने वाली अपनी राजनीतिक पार्टी के लिए लगातार पक्ष में माहौल बनाना होता है जिसे सोशल मीडिया की भाषा में ‘बज़’ क्रिएट करना कहते हैं. इसे चाहें तो कार्यकाल मीडिया ओनरशिप कह सकते हैं जिसकी स्ट्रैटजी में हर अगला पांच साल शामिल है. ऊपरी तौर पर जो राजनीतिक पार्टियां सरकार चलाती हुई दिख रही हैं, विपक्ष में बैठी नजर आ रही है वो एक ऐसे वॉररूम की ओनरशिप लिए बैठी हैं जो बिल्कुल न्यूजरूम की शक्ल में काम करता है.
इस वॉररूम के एजेंडे जितने स्पष्ट हैं, उसकी राजस्व संरचना उतनी ही धुंधली. मसलन जब इन राजनीतिक दलों की गतिविधियां ही सीधे-सीधे न आकर वाया मेनस्ट्रीम मीडिया या सोशल मीडिया आ रही हैं तो बैलेंस शीट आने में तो सालों लग जाएंगे, लेकिन ओनरशिप के इस नए पैटर्न से इतना तो स्पष्ट है कि ट्राई अपनी रिपोर्ट में जनतंत्र के भीतर जिस बहुलता की चिंता करती है, वो यहां तक आते-आते बादशाहत कायम करने के सवाल पर टिक जाता है. कंटेंट का सवाल बहुत मामूली और पीछे रह जाता है. और इन सबके बीच सबसे बड़ी बात कि अब इस पर आखिर चिंता कौन जाहिर करे, जिसे चिंता करनी चाहिए वो तो खुद वॉररूम को और भी आक्रामक बनाने की कवायद में जुटे हैं.
(लेखक मीडिया अध्ययन से जुड़े हैं)