आपने देखा अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की को किस तरह जलील किया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी उनका व्यवहार वैसा नहीं था, जैसा एक राजा का दूसरे राजा के साथ होना चाहिए। ज़ेलेंस्की ने तो फिर भी प्रतिरोध की भाषा इस्तेमाल की थी; मोदी सिर्फ़ हँसते रहे। हो सकता है यह उनका कूटनीतिक अंदाज़ हो। या फिर हो सकता है कि वह अपने डिअर फ्रेंड ट्रम्प को नाराज़ नहीं करना चाहते हों। ट्रम्प दुनिया भर के देशों पर टैरिफ में कटौती को लेकर दबाव बना रहे हैं; भारत पर भी बना रहे थे। कनाडा और मैक्सिको ने ट्रम्प के दबाव के आगे झुकने से मना कर दिया। दो दिन बाद ही ट्रम्प ने कनाडा और मेक्सिको पर लगाये गये नये टैरिफ से कई उत्पादों को छूट देने का फ़ैसला कर लिया। लेकिन इसी दौरान ट्रम्प ने ख़ुलासा किया कि भारत टैरिफ में कमी करने के लिए तैयार हो गया है। ट्रम्प ने अपमानजनक भाषा में कहा- ‘क्योंकि आख़िरकार कोई उनके (भारत के) किये की पोल खोल रहा है।’ ट्रम्प ने जब यह ख़ुलासा किया, तब तक भारत ने आधिकारिक रूप से इस विषय पर चुप्पी साधे रखी थी। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने मित्र के दबाव के आगे झुक गये हैं?
जब यह सारी क़वायद चली हुई थी, उस दौरान भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर अमेरिका में ही थे। अमेरिका की भाषा उस दौरान भी किसी तरह मित्र वाली नहीं थी। अमेरिका एक तरह से हाँकने वाली भाषा इस्तेमाल कर रहा है। भारत ने ख़ुद को इस स्थिति में क्यों पहुँचा दिया? इसका बेहतर जवाब तो मोदी सरकार ही दे सकती है। पूर्व के प्रधानमंत्री नेहरू, इंदिरा गाँधी और यहाँ तक कि वाजपेयी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को लेकर बेहद संवेदनशील रहे हैं और उन्होंने ऐसा होने पर साफ़ शब्दों में प्रतिवाद करने या अपनी नाराज़गी जताने में कभी हिचक नहीं दिखायी थी। लेकिन दुनिया में भारत के इस डंका-काल में यह सब होना हैरानी भरा है और मोदी सरकार की विदेश नीति पर सवाल उठाता है।
भारत की अमेरिका के साथ व्यापार हिस्सेदारी समय के साथ बढ़ी है। मोदी-काल की ही बात की जाए, तो इन 11 वर्षों में फार्मा, इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल आदि में बेहतर निर्यात के चलते अमेरिका के साथ भारत का माल व्यापार बढ़ते बढ़ते 35 अरब डॉलर तक पहुँच गया है। भारत अमेरिका से पेट्रोलियम पदार्थ, कच्चा तेल, मोती, क़ीमती पत्थर, मशीनरी, विमान के पुर्जे और सैन्य उपकरण आयात करता है। ट्रम्प ने धमकी दी थी कि यदि ब्रिक्स देश अमेरिकी डॉलर को कमज़ोर करते हैं, तो वह भारत समेत उन पर 150 फ़ीसदी टैरिफ लगा देंगे। अब इन टैरिफ शर्तों के चलते निश्चित ही भारत का व्यापार प्रभावित होगा। ट्रम्प ने 08 मार्च को जब मीडिया ब्रीफिंग में कहा कि भारत उन (अमेरिका) से भारी टैरिफ वसूलता है, तो आप भारत में कुछ भी नहीं बेच सकते।
प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के बाद कुछ रिपोर्ट्स में कहा गया कि भारत सरकार अमेरिका से आयात किये जाने वाले प्रमुख सामानों पर टैरिफ में कटौती करने पर विचार कर रही है। ट्रम्प ने अमेरिकी कांग्रेस के साझे सत्र में अपने भाषण में भी भारत के आयात शुल्क को निशाने पर रखा था। ट्रम्प ने कहा था कि भारत हमसे 100 फ़ीसदी से ज़्यादा ऑटो टैरिफ वसूलता है। फरवरी में ट्रम्प ने कनाडा और मैक्सिको से आयात पर भी 25 फ़ीसदी और चीन से आने वाले सामानों पर 10 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ की घोषणा की थी।
याद रहे भारत अमेरिका के साथ रेसिप्रोकल टैरिफ की जगह द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) पर ज़ोर दे रहा है। भारत के साथ इस कड़ाई के बीच ट्रम्प कनाडा और मेक्सिको पर लगाये गये नये टैरिफ से कई उत्पादों को छूट देने का फ़ैसला कर चुके हैं। सिर्फ़ दो दिन में ट्रम्प ने अपने दो सबसे बड़े व्यापारिक भागीदारों पर लगाये गये आयात करों को दूसरी बार वापस लिया।
चूँकि ट्रम्प ने 02 अप्रैल से पारस्परिक टैरिफ लगाने की घोषणा की है, इसलिए भारत को लेकर उनके दावे के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि अमेरिका के सामानों पर भारत टैक्स की क्या सीमा तय करता है। सम्भावना है कि यह कटौती व्यापक स्तर पर हो सकती है। अमेरिका के वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक ने हाल में कहा था कि व्हिस्की और हार्ले डेविडसन बाइक जैसे कुछ विशेष उत्पादों पर टैरिफ कम करने से काम नहीं चलेगा, बल्कि भारत को बड़े स्तर पर टैरिफ में कटौती करनी होगी। उन्होंने भारतीय बाज़ार में कृषि उत्पादों को लेकर व्यापारिक खुलापन लाने को भी बहुत ज़रूरी बताया था। ज़ाहिर है भारत जैसे बड़े बाज़ार में अमेरिका अपनी सुविधा के नियम चाहता है। दिलचस्प यह है कि प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के बाद से ही भारत की ऑटो पार्ट्स, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स, ज्वेलरी, कपड़े बनाने वाली कम्पनियाँ अपने अमेरिकी व्यापारिक साझेदारों के साथ अपने व्यापारिक जोखिम कम करने की रणनीति बनाने में जुट गये थे।
ट्रम्प की इस चाल से निश्चित ही भारतीय उद्योग प्रभावित होंगे। जब अमेरिकी उत्पादों पर आयात कर (टैरिफ) घटेगा, तो वो उत्पाद भारत में सस्ते मिलेंगे। उपभोक्ताओं का तो इसमें लाभ होगा; लेकिन ख़राब असर भारतीय उद्योगों पर पड़ेगा। इलेक्ट्रॉनिक सहित जिन अमेरिकी उत्पादों का मूल्य कम होगा, उनमें भारतीय कम्पनियों के लिए न सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा बढ़ जाएगी, बल्कि कई कम्पनियों के सामने अस्तित्व का संकट भी खड़ा हो सकता है। भारतीय उपभोक्ताओं की कमज़ोरी हमेशा से विदेशी उत्पाद रहे हैं। वे इसे स्टेटस सिम्बल से जोड़कर देखते हैं। ऐसे में जब कोई विदेशी उत्पाद कम्पीटीटिव क़ीमत पर उपलब्ध होगा, तो निश्चित ही देश के उपभोक्ताओं की प्राथमिकता अमेरिकी उत्पाद होंगे।
भारत में विदेशी बॉन्ड्स को बढ़त मिलने से मेक इन इंडिया की नीति भी कमज़ोर पड़ जाएगी। जब ऑटो पार्ट्स की क़ीमत नीचे जाती है, तो इसका सीधा और ख़राब असर भारतीय ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग कम्पनियों पर पड़ेगा। उनको नुक़सान हो सकता है। भारत की फार्मा सेक्टर और डेयरी इंडस्ट्री पर भी इसका व्यापक दबाव बनेगा। इसके लिए भारत सरकार को नियमों में बहुत बेहतर संतुलन बनाना होगा। ज़ाहिर है वर्तमान हालत यह संकेत कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में भारत-अमेरिका के बीच संशोधित या नया व्यापार समझौता ड्राफ्ट बनेगा। अमेरिका से आने वाले कुछ ख़ास सामानों पर आयात शुल्क कम होने की स्थिति में भारतीय कम्पनियों को उन्हें सस्ता करना होगा। इससे उपभोक्ताओं को तो सस्ती क़ीमत पर कुछ वस्तुएँ मिलेंगी; लेकिन इससे कई भारतीय सेक्टर्स को घाटा हो सकता है। दरअसल पूर्व सरकार के समय उच्च टैरिफ लगाने की ख़ास वजह ही यही थी कि भारतीय कम्पनियाँ फले-फूलें।
अमेरिका पहले से ही भारत की इस नीति का विरोधी रहा है और वह अमेरिकी उत्पादों पर ज़्यादा आयात शुल्क का विरोध करता रहा है। निश्चित ही मोदी सरकार पर दबाव रहेगा कि वह ऐसा रास्ता निकाले, जिससे भारतीय उत्पादों पर संकट न आये। यह इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि मेक इन इंडिया के सबसे बड़े समर्थक ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी रहे हैं। लेकिन यदि इस नीति में सरकार अमेरिकी हितों के आगे समर्पण करती है, तो भारतीय कम्पनियाँ निश्चित ही संकट में घिर जाएँगी।
प्रधानमंत्री मोदी ट्रम्प को दोस्त कहते हैं। हाल ही में जब वह अमेरिका के दौरे पर गये थे, तो ट्रम्प के सामने आते ही वह हेलो फ्रेंड कहते हुए ट्रम्प के गले जा लगे थे। यह अलग बात है कि ट्रम्प ने मोदी के स्वागत के लिए गेट पर ख़ुद न जाकर अपनी एक महिला अधिकारी को भेजा था। बचपन के मित्र सुदामा जब कृष्ण के महल में उनसे मिलने गये थे, तो कृष्ण न सिर्फ़ उनका स्वागत करने आगे आये थे, बल्कि उनके लाये चावल भी प्रेम से उन्होंने खाये थे। कहने का अर्थ यह है कि मित्रता में कोई बड़ा-छोटा नहीं होता। लेकिन याद रखना होगा कि ट्रम्प कृष्ण नहीं हैं। राष्ट्रपति होते हुए भी वह शुद्ध रूप से एक व्यापारी हैं। ट्रम्प सिर्फ़ अमेरिका का हित देखते हैं। प्रधानमंत्री मोदी को भी भारत का हित देखते हुए कुछ अनोखा करना होगा, अन्यथा उनकी छवि ताक़तवर राष्ट्र के सामने झुकने वाले नेता की बनते देर नहीं लगेगी।
अप्रवासी भारतीयों को जितने अपमानजनक तरीक़े से बेड़ियों में बाँधकर अमेरिका ने भारत भेजा था, उसके ज़$ख्म अभी तक गहरे हैं। ऐसे में मोदी सरकार के अमेरिका के सामने झुकने और ट्रम्प के दबाव में आने की चर्चाओं ने भारतीय अस्मिता पर चोट पहुँचायी है। सन् 1971 के युद्ध में जब अमेरिका ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी पर सातवें बेड़े को लेकर दबाव बनाने की कोशिश की थी, तो इंदिरा गाँधी ने देश की अस्मिता को सर्वोपरि रखते हुए दबाव के आगे झुकने से मना कर दिया था। कुछ वैसा ही जिगरा अब दिखाने की ज़रूरत है। कनाडा और मेक्सिको ही नहीं, यूरोप भी ट्रम्प की दादागीरी के सामने समर्पण न करने की हिम्मत दिखा चुके हैं। चीन ने तो यह चुनौती ही दे दी कि अमेरिका (ट्रम्प) युद्ध लड़ना चाहता है, तो लड़कर देख ले। मोदी सरकार को भी भारत की असली ताक़त दिखानी होगी; क्योंकि इतिहास में वही याद किया जाता है, जो देशहित से समझौता नहीं होने देता।