‘यों तो नोई चलेगी’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम

आप लाख सफाइयां देते फिरें कि शार्ली हेब्दो के 11 पत्रकारों के नरसंहार की एक खास पृष्ठभूमि है. कोई भी मुसलमान अपने पैगंबर का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता. यह बात मुसलमानों की समझ में तो आ जाएगी, मगर इस दुनिया में 75 फीसद गैर-मुस्लिम भी तो हैं. उनमें से कितनों को पकड़-पकड़कर आप समझाएंगे कि असल में बात यह है… चलिए शार्ली हेब्दो के कार्टूनिस्टों को तो रसूल की तौहीन के जुर्म में मारा गया. बाकी चार यहूदी पेरिस के सुपरमार्केट में किस तौहीन के बदले मार दिए गए? हां, डेनमार्क के एक अखबार ने ऐसे ही अपमानजनक कार्टून छापे थे जो किसी भी मुसलमान को गुस्सा दिलाने के लिए काफी थे. मगर ये गुस्सा भी तो मुसलमानों ने खुद पर ही निकाला और इसके नतीजे में 20 मुसलमान प्रदर्शनकारी दुनिया के अलहदा हिस्सों में मारे गए.

हां, शार्ली हेब्दो में भी ऐसे ही कार्टून छपते हैं, हां एक जर्मन पत्रिका ने भी ऐसा ही किया, हां पश्चिम में कोई भी संता-बंता थोड़े समय बाद ऐसी ही हरकत कर देता है और आइंदा भी करता रहेगा. तो आप चिढ़ते रहेंगे और वो आपको चिढ़ाते रहेंगे. उपाय क्या है? जो भी ऐसी हरकत करे उसे मार डालो! तो क्या आप किसी गैर-मुस्लिम से भी महान, आदरणीय, पवित्र इस्लामी शख्सियत के लिए उतनी ही समानता की उम्मीद रखते हैं, जितना सम्मान एक मुसलमान अपने पैगंबर और उनके सहाबियों को देता है. और अगर कोई गैर मुस्लिम ऐसा न करे तो उसे भी वही सजा मिले जो एक धर्मत्यागी के लिए है. अगर इतना ही सम्मान करना है तो फिर गैर-मुस्लिम मुसलमान ही क्यों नहीं हो जाते. भला इससे बड़ा अपमान क्या होगा कि हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर मक्का की एक बुढिया रोजाना गली से गुजरते समय गंदगी फेंकती थी. और जब एक दिन उसने आप पर कचरा नहीं फेंका तो उन्होंने लोगों से दरयाफ्त की. लोगों ने बताया कि वह बीमार है. ऐसे में जब वह उसका हाल पूछने उसके घर पहुंचे तो वह बुढ़िया आपके पैरों में गिर गई और आपने उसे गले से लगा लिया. यह किस्सा हर मुसलमान बच्चे को मुंहजबानी याद है, लेकिन सवाल यह है कि इस किस्से से किसने सीखा और क्या सीखा?

कहा जाता है कि ये मुठ्ठी-भर लोग हैं जो इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं. अधिकांश मुसलमानों का इनकी करतूतों से कोई लेना-देना नहीं है. हालांकि यह बात ठीक है लेकिन विश्व के अधिकांश गैर-मुसलिमों को यह जाने क्यों हजम नहीं हो रही. जो यह बात मान भी लेते हैं वे भी कहते हैं कि मुसलिम समुदाय इन मुठ्ठी-भरों के सामने इतना बेबस क्यों है? आप अपने धर्म की छवि बिगाड़नेवालों को इस्लाम के दायरे से निकालने का ऐलान क्यों नहीं करते? हालांकि वे आतंकवादी तो आपको कबका इस्लाम से निकाल बाहर कर चुके हैं. पेरिस में तो सिर्फ 17 व्यक्तियों की हत्या के विरोध में 30 लाख लोग सड़कों पर आ गए. मुसलमान देशों खासतौर पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में तो हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चे इस हिंसा का हर दिन निशाना बनते हैं, खानदान के खानदान उजड़ गए, क्या कभी उनके खिलाफ किसी मुसलमान देश के किसी शहर में पिछले 15 वर्ष में किसी दिन एक लाख लोग भी सड़क पर उतरे?

यह बात ठीक है कि अगर कोई हिंदू, ईसाई या यहूदी आतंकवाद फैलाए तो कोई नहीं कहता कि यह धार्मिक आतंकवाद है. कहा जाता है कि यह किसी रामलाल, जॉनसन या कोहेन नाम के बदमिजाज का निजी काम है. लेकिन किसी मुहम्मद अली का नाम सुनते ही घंटियां बज जाती हैं. देखो-देखो ये मुसलमान है, ये इस्लामी आतंकवादी है. हां यही हो रहा है. मगर क्यों हो रहा है? भले ही अल कायदा के बनने के पीछे कितना भी जायज-नाजायज गुस्सा हो, लेकिन 9/11 की घटना के बाद अल कायदा ने जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर अपने पांव फैलाए हैं उससे इस धारणा को बल मिला है. हां, हिंदू आतंकवादी भी हैं, लेकिन आज तक कोई हिंदू आतंकवादी पश्चिम छोड़िए, पाकिस्तान तक में नहीं फटा. यहूदी आतंकी भी हैं लेकिन उनका आतंक  फिलहाल इजरायल और फिलीस्तीन से बाहर नहीं उबलता. अमेरिकी ईसाई टोरंटो में नहीं, ओकलाहोमा में बम फोड़ रहा है और नार्वेजियन पागल सिडनी में लोगों को बंधक नहीं बना रहा है, बल्कि वह ओस्लो के नजदीक ही 70 से अधिक बेगुनाह लोगों का नरसंहार कर रहा है. किसी हिंदू, ईसाई या यहूदी आतंकवादी ने यह नारा नहीं लगाया कि वह पूरी दुनिया को हिंदू, यहूदी और ईसाई बनाकर दम लेगा. अगर गैर-मुसलिम समुदाय समझ रहा है कि यह सब इस्लाम के नाम पर हो रहा है तो इसकी बड़ी वजह इस्लामी नजरिये से दुश्मनी नहीं बल्कि यह है कि एक उजबक अश्काबाद की बजाय इस्लामाबाद में फट रहा है. एक अल्जीरियन अपने मुल्क में मुसलमान और पेरिस में यहूदी मार रहा है. कोई सऊदी राजधानी रियाद को छोड़कर न्यूयॉर्क में विमान टकरा रहा है. किसी का काशाब्लांका में बस नहीं चल रहा है तो वह मैड्रिड में ट्रेन उड़ा रहा है. अफगानी तालिब जलालाबाद में भी बारूदी जैकेट फाड़ रहा है और सीरिया में भी लड़ रहा है. पाकिस्तानी क्वेटा में शियाओं का संहार कर रहा है और मुंबई में भी घुस जा रहा है. ब्रिटेन में ही पैदा होनेवाला ब्रैडफोर्ड का एक लड़का लंदन ट्यूब ट्रेन में भी विस्फोट कर रहा है और आईएसआईएस की तरफ से इराक में यजीदियों का अपहरण भी कर रहा है.

मुसलिम समुदाय इन मुठ्ठी-भरों के सामने बेबस क्यों है? धर्म की छवि बिगाड़ने वालों को इस्लाम से बाहर क्यों नहीं करते? जबकि वे आतंकी तो कबका सबको इस्लाम से खारिज कर चुके हैं

जिस जमाने में फिलिस्तीनी गुरिल्ले विमान अपहरण कर रहे थे, तब किसी ने नहीं कहा कि ये इस्लामिक आतंकवादी हैं. जब अल्जीरियन फ्रांस से अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे तब उन्हें मुसलमान आतंकी नहीं बल्कि अल्जीरियन मुक्तिवादी पुकारा गया. कश्मीर में लड़नेवाले भारत सरकार की नजर में भले ही आतंकवादी रहे हों, लेकिन क्या बाकी दुनिया भी हुर्रियत कांफ्रेंस को इस्लामिक अतिवादी समूह कहती है? पेरिस में मुसलमान आतंकवादी अहमद कुलिबाई ने मुसलमान अधिकारी अहमद मिरावत को फुटपाथ पर मारा. कौसर मार्केट के एक मुसलमान मुलाजिम लिसान बेथली ने यहूदी ग्राहकों को कोल्ड स्टोरेज में बंद करके क्यों बचाया? पेरिस हमले के बाद हुए प्रदर्शन में मुसलिमों के नाम की तख्ती भी बहुत से गैर-मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के हाथ में क्यों थी? इसका मतलब यह हुआ कि हर मुसलमान के सींग नहीं होते. कहा जाता है कि मुसलमानों में अतिवाद इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि पश्चिमी साम्राज्य ने उत्तरी अफ्रीका और मध्यपूर्व, खासतौर पर फिलीस्तीन के साथ ऐतिहासिक अन्याय किया है. जिसका सबसे बड़ा उदाहरण इजरायल की पैदाइश है. पश्चिम का ऐसा अंधेर ही अतिवादी गुटों के लिए ऑक्सीजन बना है. हां, अन्याय हुआ है, लेकिन लड़ाई जालिमों से होनी चाहिए. आम मुसलमान और गैर-मुस्लिम लोगों को किस न्याय के तहत मारा जा रहा है? धोबी पर बस नहीं चल रहा है, तो गधे के कान क्यों मरोड़े जा रहे हैं? अगर यही ठीक है तो फिर तमाम काले अफ्रीका को बंदूकें लेकर पश्चिम पर चढ़ जाना चाहिए. उनसे ज्यादा राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक अन्याय तो किसी के साथ नहीं हुआ और आज तक हो रहा है. लेकिन सिवाय बोको हराम और सोमालिया के अल सहाब गुट के शायद सभी अफ्रीकियों ने बेगैरती का कैप्सूल खा रखा है. लैटिन (दक्षिणी) अमेरिका को तो यूएसए को धमाकों से हिला देना चाहिए, क्योंकि वॉशिंगटन से ज्यादा पिछले 100 सालों में उसका रक्त किसी ने नहीं चूसा. सैकड़ों बोस्नियाई मुसलमानों को बम बांधकर रूस में उधम मचा देना चाहिए क्योंकि सर्ब हत्यारों का सबसे बड़ा समर्थक यह मरदूद रूस ही तो था. लेबनानी हिज्बुुल्ला के शिया समर्थकों को हर यूरोपीय राजधानी में बारूद से भरे ट्रक भेज देने चाहिए.

मगर ऐसा तो नहीं हो रहा. लगभग पांच साल पहले जब मैं दिल्ली से चंडीगढ़ जा रहा था तो गुड़गांव से आगे हाईवे पर मैंने पिछले विश्वयुद्घ के जमाने की एक खटारा बस देखी जिसके पीछे से काला धुंआ निकल रहा था. बस के पीछे लिखा हुआ था- यों तो नोई चलेगी. जब तक तमाम सोचने-समझनेवाले मुसलमान अपनी सरकारों को मजबूर नहीं करेंगे कि वे एक-दूसरे को घूरने और नीचा दिखाने के बजाय असल दुश्मन को पहचानें, तब तक यों तो नोई चलेगी.