देश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए दादरी के एक गांव में जिस तरह उन्मादी भीड़ ने एक मुस्लिम परिवार के घर में घुसकर मुखिया की हत्या कर दी और फिर उसके बाद उसी उन्माद को और आगे बढ़ाने की जो हरकतें राजनेताओं की फौज ने कीं, वह देश भर के आम लोगों को आतंकित करने वाला प्रसंग है. सामान्य लोगों का आतंकित होना इसलिए कि इस पूरी घटना से कानून व्यवस्था के पूरी तरह ध्वस्त हो जाने की तस्वीर उभरती है. जो जानकारी आई उसके मुताबिक मंदिर से कुछ घोषणाएं कराई गईं और उसके बाद उन्मादी भीड़ ने एक मुस्लिम परिवार पर उसके घर में घुसकर हमला किया जिसमें बाप की मृत्यु हो गई और बेटा अब भी अस्पताल में दाखिल है. डर के मारे परिवार एयरफोर्स की पनाह में है क्योंकि उस परिवार का एक सदस्य एयरफोर्स की नौकरी करता है. मैं सोचता हूं कि यदि वह एयरफोर्स में न होता तो वह परिवार कहां पनाह लेता? राज्य सरकार उस परिवार की सुरक्षा भी सुनिश्चित करने लायक नहीं बची. अलबत्ता उसने 5 लाख से बढ़ाते-बढ़ाते मुआवजे की रकम 45 लाख रुपये जरूर कर दी. देश के प्रधानमंत्री ने इस घटना पर दुख व्यक्त करना तथा ऐसे कदम की निंदा करना भी जरूरी नहीं समझा. बहुत आग्रह के बाद मुंह खोला भी तो अपनी राजनीति करने के अंदाज में.
यह घटना उस प्रकार की राजनीति को उजागर करती है जो धर्म व संप्रदाय का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए करती है और जिसे हिंसा से कोई परहेज नहीं है. यह कहा ही जा सकता है या कहा जा रहा है कि समाज में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है और विद्वेष की मानसिकता बन रही है लेकिन यह सही नहीं है. समाज तो अब भी प्रेम, भाईचारे और सहयोग के साथ आगे बढ़ रहा है. केवल एक वर्ग है जो निहित स्वार्थ वाली राजनीति का खिलौना बन जाता है जो किसी भी रूप में समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता. सभ्य समाज को प्रतिगामी बनाने की नीयत से कबीलाई मानसिकता की ओर धकेलते हुए सत्ता हथियाने की राजनीति करने की प्रवृत्ति तो मेरी चिंता का विषय है ही, लेकिन इससे अधिक चिंता का सबब है कानून व्यवस्था व प्रशासनिक तंत्र का ध्वस्त हो जाना. कोई भी विध्वंसक व विभाजनकारी शक्तियां सिर्फ इसलिए ही बलवती नहीं होतीं कि उन्हें राजनेताओं का प्रश्रय और प्रोत्साहन है, बल्कि इसलिए घातक रूप अख्तियार कर लेती हैं कि उनके सामने कानून, न्याय, संविधान और समूची व्यवस्था नतमस्तक हो जाती है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब हम कानून व्यवस्था को ध्वस्त होते या कुछ लोगों को कानून को धता बताते हुए समाज में कटुता, विद्वेष और हिंसा फैलाते देख रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ समय से, खासकर केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से जो हालात बन रहे हैं, वे सचमुच ऐसी स्थितियों को विस्तारित करने वाले हैं.
गांव में एक मुस्लिम परिवार के खिलाफ उन्मादी भीड़ इकट्ठा होकर उसके घर में हमला करती है और पुलिस प्रशासन को इसकी कोई पूर्व जानकारी नहीं होती. ऐसा उन्माद अचानक नहीं फैलता. इसकी तैयारी तो पहले से चलती रही होगी लेकिन प्रशासन इससे नावाकिफ रहा या मूकदर्शक. हमला हो जाने के बाद राजनेताओं की फौज निषेधाज्ञा का खुलेआम उल्लंघन करती है, वे माहौल को और उन्मादी बनाने की हरकतें करते हैं लेकिन समूची सरकार व प्रशासनिक तंत्र फिर मूकदर्शक बना रहता है. जिन राजनेताओं ने कानून तोड़ा, उन पर तत्काल ही कार्रवाई की जाती जो आम आदमी द्वारा कानून तोड़ने पर की जाती है तो ऐसे राजनेताओं को सबक मिलता जो अपने आपको कानून से ऊपर समझकर समाज में अराजकता व हिंसा का माहौल बनाते हैं. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो लोग इस घटना से दुखी या असहमत हैं, उनकी मुख्य आपत्ति सिर्फ इतनी रही कि इस घटना पर प्रधानमंत्री चुप क्यों हैं, उन्हें प्रशासन व सरकार की निष्क्रियता से कोई शिकायत नहीं है. प्रदेश के मुख्यमंत्री टोने-टोटके के चलते घटनास्थल पर नहीं जाते. चलिए, कम से कम प्रशासन को सख्ती से कार्रवाई करने का निर्देश तो दे ही सकते थे. उल्टे उनके ही एक मंत्री मामले को जब संयुक्त राष्ट्र संघ ले जाने की पहल करते हैं तो वे खामोशी से उस पहल को खारिज नहीं कर पाते. जिस राजनेता ने भी कानून का उल्लंघन किया, उसके खिलाफ कानून सम्मत कार्रवाई कर दी जाती तो अन्य नेताओं को सबक मिलता लेकिन इसमें भी राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित देखा जाने लगा.
प्रश्न यह नहीं है कि किसी घटना विशेष के प्रति प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या सरकारें विशेष रूप से ध्यान दें बल्कि असली सवाल तो यह है कि कानून का न्यूनतम पालन भी क्यों नहीं किया जाता
हिंसा और विद्वेष फैलाने की क्रिया-प्रतिक्रिया होती रही, दोषारोपण होता रहा और आम जनता आतंक के आगोश में समाती रही. यह सही है कि प्रधानमंत्री इस घटना पर तत्काल प्रतिक्रिया देते तो यह संदेश जाता कि ऐसी घटनाओं के प्रति सरकार सख्त है. हो सकता है कि अपनी राजनीति के चलते वे अपनी पार्टी के उन नेताओें के खिलाफ कार्रवाई करने की स्थिति में न रहे हों. ऐसा इसलिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक उनकी पार्टी के नेता मंत्री उन्माद फैलाने वाले, भड़काऊ और विभाजनकारी बयान देते रहे हैं लेकिन कभी किसी पर उनके या उनकी पार्टी द्वारा कार्रवाई नहीं की गई और न ही ऐसे विचारों को बयान बनने से रोका गया. अलबत्ता ऐसे नेताओं को सम्मानित करने की भी पहल की गई. यहां यह समझना चाहिए कि हत्या करने वाली उन्मादी भीड़ से अधिक गुनहगार वे लोग हैं जिन्होंने अबोध लोगों को उन्मादी भीड़ में तब्दील कर दिया. प्रश्न यह नहीं है कि किसी घटना विशेष के प्रति प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या सरकारें विशेष रूप से ध्यान दें बल्कि असली सवाल तो यह है कि कानून का न्यूनतम पालन भी क्यों नहीं किया जाता, एक खास वर्ग को कानून तोड़कर आमजन के जानो-माल को असुरक्षित करने का अधिकार क्यों दे दिया जाता है. सभी को सुरक्षा प्रदान करने का संवैधानिक दायित्व राज्य क्यों नहीं निभाता? यही वह स्थिति है जो उन लोगों को भी आतंकित करती है जो किसी घटना विशेष से बहुत दूर हैं. ‘कानून के ऊपर कोई नहीं’, ‘कानून अपना काम करेगा’, जैसे सत्ताधारी राजनेताओं के दावे आम आदमी को न्याय के प्रति आश्वस्त नहीं करते बल्कि ये ऐसे मुहावरे बन गए हैं जो एक वर्ग विशेष को कानून और संविधान से परे हर तरह के गैरकानूनी कार्य करने का विशेषाधिकार प्रदान करते हैं. कानून व्यवस्था का प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम करने का यह आधार है. सामान्यजन को सुरक्षा प्रदान करना न्याय की पहली जरूरत है और यदि तंत्र असफल होता है तो छोटे-छोटे दादरी हर दिन होते रहेंगे और समूची व्यवस्था निहित स्वार्थों के हाथों की कठपुतली हो जाएगी.
राजनीति और राजनेताओं द्वारा जाति, संप्रदाय, धर्म के आधार पर लोगों को एकजुट करने तथा समाज में हिंसा फैलाने की घटनाओं की निंदा तो की ही जानी चाहिए लेकिन उनसे ऐसा नहीं करने की अपेक्षा करने की बजाय कानून व्यवस्था का राज कायम करने पर जोर देना ज्यादा जरूरी है. दादरी जैसी घटनाओं से परे भी पूरे देश में कानून व्यवस्था की स्थिति इतनी अराजक हो चली है कि गिरोहबंद लोग कानून को अपनी बांदी मानकर चलते हैं. वहीं राजनीति और व्यवसाय के साथ गठबंधन धर्म निभाने वाला प्रशासन तंत्र भी उसी के साथ खड़ा नजर आता है जिसके साथ बल और सत्ता हो. ऐसे में लोकतंत्र, संविधान, कानून का राज, न्याय जैसी कोई चीज नजर नहीं आती. दादरी जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए जरूरी है देश व समाज में कानून व्यवस्था का राज कायम हो और वह राजनीति पर हावी हो, न कि राजनीति प्रशासन तंत्र पर. यह कहा जा सकता है कि राजनीति या सत्ता के दुरुपयोग के चलते प्रशासन तंत्र अपने आपको असहाय पाता है और कानून का राज स्थापित करने में वह सक्षम नहीं है लेकिन यह तर्क सही नहीं है. कई उदाहरण हैं जहां प्रशासकों ने सत्ता या राजनीति को कानून से खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं दी और दादरी जैसी घटनाओं से बचा जा सका.
राजनीति की बुराइयों को ढाल बनाकर प्रशासन तंत्र अपनी निष्क्रियता या अकर्मण्यता का औचित्य साबित नहीं कर सकता. इसी तरह प्रशासन पर निष्क्रियता का आरोप लगाकर राजनेता अपनी ओछी राजनीति को आगे बढ़ाने का लाइसेंस नहीं पा सकते. दोनों एक-दूसरे के पूरक भी नहीं हैं लेकिन न्यायपूर्ण व्यवस्था को कायम करने की दिशा में एक-दूसरे के विलोम हो सकते हैं. विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका का संवैधानिक प्रावधान ऐसी ही अराजकता के बदले न्याय की व्यवस्था कायम करने के लिए है. हाशिये पर पड़े लोगों को लाठी से हांकने की मानसिकता ही आगे चलकर दादरी जैसी घटनाओं को जन्म देती है और वह स्थिति तब और दुखद हो जाती है जब तंत्र द्वारा लगातार किए जा रहे अन्याय के चलते आम लोगों में प्रतिरोध की सोच और क्षमता ही खत्म होती जाती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)