क्या भ्रष्टाचार में लिप्त है न्यायपालिका?

– न्याय के पदों पर आसीन भ्रष्टाचारियों को भी मिलना चाहिए कठोर दंड

संविधान की सर्वशक्तिमान पीठ न्यायपालिका एक ऐसी संवैधानिक संस्था है, जहाँ से हर पीड़ित न्याय की आशा रखता है; मगर कुछ भ्रष्ट न्यायाधीशों ने न्यायपालिका की इस छवि को धूमिल कर दिया है। अगर न्यायालयों पर से उठ रहे आमजन के विश्वास के लिए न्याय के पदों पर आसीन कुछ न्यायाधीश उत्तरदायी हों, तो उन्हें कठोर दंड भी मिलना चाहिए। मगर भारत में संवैधानिक पदों पर विराजमान व्यक्तियों को दंड मिलना सपने में मिले धन का वास्तविक रूप से हाथ में होने के बराबर हो चला है। जबकि भारत में राजनीतिक एवं संवैधानिक पदों पर ही सबसे अधिक धाँधली भ्रष्टाचार एवं अनाचार होने की घटनाएँ सामने आती हैं। अभी वर्तमान में मार्च के महीने में ही दो अन्यायकारी एवं भ्रष्ट न्यायाधीशों की ऐसी ही करतूतों ने पूरे देश को झकझोरकर रख दिया है। इनमें एक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने एक दुष्कर्म के प्रयास करने वाले आरोपी पर दुष्कर्म के प्रयास का मुक़दमा चलाने से मना कर दिया। उधर देश की राजधानी दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के आवास पर भ्रष्टाचार करके कमाये गये रुपयों के अकूत भंडार के उजागर होने ने न्याय के पदों पर विराजमान न्यायाधीशों की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगा दिये हैं।

इस बारे में अधिवक्ता प्रवीण सिंह कहते हैं कि ऐसे न्यायाधीशों के कारण पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता है; क्योंकि न्याय के पदों पर बैठे ऐसे भ्रष्ट लोग उन्हीं लोगों के पक्ष में फ़ैसले सुनाते हैं, जो अन्यायी एवं झूठे होते हैं। ऐसे न्यायाधीशों के कारण ही न्यायालयों में मुक़दमे वर्षों तक चलते रहते हैं। अधिवक्ता तो झूठ एवं सही दोनों पक्षों के होते ही हैं अब तो न्यायाधीश भी दोनों प्रकार के होते हैं। अधिकांश भ्रष्टाचारी न्यायाधीश चंद पैसों के लालच में ग़लत फ़ैसले सुना देते हैं, यह विकट चिन्ता का विषय है। अधिवक्ता संजय कहते हैं कि न्यायालयों की विधायी प्रक्रिया में राजनीति ने सबसे अधिक ध्वस्त किया है। राजनीति ने स्वहित के लिए इसका दुरुपयोग करके न्यायाधीशों की मूल न्याय की भावना को भ्रष्ट बनाने से लेकर डराने तक की स्थितियों में अन्यायकारी फ़ैसले सुनाने को बढ़ावा दिया है। आज भी न्यायाधीशों पर अनेक मुक़दमों में सरकारी दबाव रहते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ भी राजनीतिक मनपसंद बन चुकी हैं। कई न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सरकारों की घुसपैठ के उदाहरण देखे जा सकते हैं।

न्यायाधीशों के अन्यायपूर्ण निर्णयों पर उनके विरुद्ध महाभियोग लाया जा सकता है। निचले न्यायालयों के न्यायाधीशों के विरुद्ध महाभियोग सर्वोच्च न्यायालय ला सकता है; मगर सभी भ्रष्ट एवं अनुचित निर्णय देने वाले न्यायाधीशों के विरुद्ध संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया जा सकता है। मगर न्यायाधीश को दंड मिलने अथवा पद से हटाये जाने का अंतिम निर्णय राष्ट्रपति के हाथ में होता है, जो महाभियोग पर अंतिम हस्ताक्षर करके सहमति देते हैं। वर्ष 2024 के अंतिम महीने में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के द्वारा विश्व हिन्दू परिषद् के एक कार्यक्रम में अल्पसंख्यकों को लेकर विवादित बयान देने पर उनके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर महाभियोग प्रस्ताव लाने की माँग की गयी थी। अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने एक मुक़दमे में अत्यधिक अन्यायपूर्ण निर्णय सुनाकर संकट मोल ले लिया है।

न्यायमूर्ति के घर में करोड़ों रुपये

भारत की राजधानी दिल्ली के उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के आवास में 14 मार्च को आग लगने के उपरांत अकूत मात्रा में मिलीं 5-5 सौ के रुपयों की गड्डियाँ एवं जले हुए सैकड़ों करोड़ रुपये न्यायमूर्ति के भ्रष्ट होने की गवाही दे रहे हैं। इन पूरे देश में अब इस बात की चर्चा है कि न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा एक भ्रष्ट न्यायमूर्ति हैं। मगर राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते इतने बड़े भ्रष्टाचार के उपरांत भी उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को दिल्ली उच्च न्यायालय से इलाहाबाद उच्च न्यायालय पदस्थ करने की योजना बनायी जा रही है। न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास में मिले रुपये कितने थे, इसका कोई ठोस प्रमाण सामने नहीं आया है; मगर कुछ अपुष्ट सूत्रों के अनुसार जले हुए रुपये ही लगभग 15 करोड़ थे। इसके अतिरिक्त आरोप यह भी है कि बिना जले रुपये भी बड़ी संख्या में थे; मगर वो कहाँ गये? किसी को नहीं पता। हालाँकि न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने अपने आवास पर करोड़ों रुपये मिलने की जानकारी से स्पष्ट अनभिज्ञता जतायी है।

न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा वर्ष 2021 में ही इलाहाबाद से स्थानांतरित होकर दिल्ली उच्च न्यायालय आये थे। अक्टूबर, 2014 में ही उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्ति मिली थी, जिसके बाद अक्टूबर, 2021 में उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किया गया था। अब उनके आवास में भारी संख्या में रुपये मिलने पर उनका एक बार फिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरण कर दिया गया है। उनके ऊपर कथित रूप से भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद उनका स्थानांतरण करने की जगह उन पर महाभियोग लगाकर उन्हें दंडित करने की माँग उठी थी; मगर केंद्र सरकार ने उनके स्थानांतरण को स्वीकार कर लिया। अब 56 वर्षीय न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा सन् 2031 में सेवानिवृत्त होंगे। अगर उन्हें पदोन्नत किया गया, तो उनका कार्यकाल तीन वर्ष और बढ़ जाएगा, अर्थात् वह सन् 2034 में सेवानिवृत्त होंगे। हालाँकि उनके आवास पर रुपये मिलने की जाँच होगी, जिसमें निष्पक्षता की दरकार है। मगर यह जाँच ईडी अथवा सीबीआई नहीं अथवा आयकर विभाग के जाँच दल नहीं करेंगे, वरन् सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक समिति करेगी, जिसमें तीन पूर्व न्यायमूर्ति सम्मिलित हैं।

न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा वहीं हैं, जिन्होंने कुछ महीने पहले ही सेवानिवृत्त हुए पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के साथ मिलकर गंगा एवं दूसरी नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को कृत्रिम तालाब बनाकर विसर्जित करने आदेश दिया था। इसके अतिरिक्त न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने उत्तर प्रदेश के चर्चित भू-माफ़िया एवं अनेक अपराधों में लिप्त रहे अतीक अहमद को लेकर कई कड़े आदेश दिये थे। बाद में अन्य अपराधियों ने अतीक अहमद की 15 अप्रैल, 2023 को एक अस्पताल के परिसर में हत्या कर दी थी।

इसके अतिरिक्त साक्ष्यों के अभावों के उपरांत भी न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री रहते हुए उनकी जमानत याचिका ख़ारिज कर दी थी। अब उन्हीं न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर अकूत संख्या में रुपये मिलने से उन पर भ्रष्ट होने का कलंक लग गया है एवं उनके विरुद्ध महाभियोग की माँग देश भर में हो रही है। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कथित रूप से भ्रष्ट न्यायमूर्ति का स्थानांतरण वापस इलाहाबाद उच्च न्यायालय में करने का प्रस्ताव रखा है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि न्यायमूर्ति के स्थानांतरण का प्रस्ताव आंतरिक जाँच प्रक्रिया से अलग है। इस मामले में पहली जाँच पूरी हो गयी है। जाँच की रिपोर्ट मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना तक पहुँच गयी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल तिवारी ने न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के विरुद्ध सीबीआई अथवा ईडी द्वारा जाँच की माँग की है। न्यामूर्ति यशवंत वर्मा पर एफआईआर मामले में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि न्यायमूर्ति के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनुमति के बिना कोई एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती। उनके इस बयान से अब ये रहे हैं कि केंद्र सरकार न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को बचा रही है। अगर यह मामला किसी ऐसे न्यायाधीश पर होता, जो किसी मामले में केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा कर चुका होता, तो उस न्यायाधीश के विरुद्ध अब तक कड़ी कार्रवाई हो गयी होती।

यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि सन् 2020 में आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी द्वारा न्यायमूर्ति एन.वी. रमना के ख़िलाफ़ लगाये गये आरोपों को भी एक आंतरिक जाँच के माध्यम से निपटा दिया गया था, जिसके निष्कर्षों का कभी ख़ुलासा नहीं किया गया। अभी मार्च, 2025 में भी पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायमूर्ति निर्मल यादव और एक अन्य न्यायामूर्ति को 17 वर्ष पुराने 15 लाख रुपये से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में बरी कर दिया गया।

अश्लील हरकत जुर्म नहीं

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा के विरुद्ध पूरे उत्तर प्रदेश में कार्रवाई की माँग हो रही है। न्याय के लिए लड़ने वाले सभी अधिवक्ता एवं न्याय चाहने वाले सभी सामान्य व्यक्ति न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा के विरुद्ध कार्रवाई चाहते हैं। इसका कारण न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा द्वारा एक 11 वर्षीय किशोरी के साथ दुष्कर्म की भावना से हुई छेड़छाड़ को अपराध नहीं मानना है।

सूत्रों की मानें, तो कासगंज जनपद के पटियाली थाना क्षेत्र में एक 11 वर्षीय किशोरी के निजी अंगों को छूने, किशोरी का बार-बार नाड़ा तोड़ने एवं किशोरी को पुलिया के नीचे घसीटने के आरोप में दो युवकों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज हुई। जनपदीय न्यायालय ने दोनों आरोपियों को दुष्कर्म का प्रयास करने के आरोप में दोषी ठहराते हुए उनके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा-376 एवं पॉक्सो अधिनियम की धारा-18 के तहत आरोपियों को समन किया था। मगर आरोपियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपने बचाव के लिए याचिका दायर कर दी। 17 मार्च को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने अपने आदेश में जनपदीय न्यायालय को एक समन में संशोधन करने को कहा था। उन्होंने जनपदीय न्यायालय को आदेश दिया कि वह समन में दुष्कर्म के प्रयास के आरोप को हटाकर केवल छेड़छाड़ अथवा हमला करने की धाराओं में समन जारी करे। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने कहा कि पीड़िता के निजी अंगों को छूना, उसके पजामे का नाड़ा तोड़ना एवं उसे खींचकर भागने का प्रयास करना दुष्कर्म अथवा दुष्कर्म का प्रयास करने के अपराध के अंतर्गत नहीं आएगा। इसे यौन उत्पीड़न अवश्य कहा जाएगा; मगर ये दुष्कर्म अथवा दुष्कर्म का प्रयास नहीं है। न्यायमूर्ति ने जनपदीय न्यायालय को आदेश दिया कि आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता की धारा-354 बी (कपड़े उतारने के मन से हमला अथवा आपराधिक बल प्रयोग करना) के मामूली आरोप के साथ पॉक्सो अधिनियम की धारा-9/10 (गंभीर यौन हमला) के अंतर्गत मुक़दमा चलाया जाए।

अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुँच चुका है, जहाँ से पीड़ित किशोरी एवं उसके परिवार को न्याय की आशा है। याचिका में माँग की गयी है कि सर्वोच्च न्यायालय केंद्र सरकार अथवा उच्च न्यायालय न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा को निर्देश दें कि वह अपने विवादित आदेश को वापस लें एवं भविष्य में ऐसी विवादित टिप्पणियाँ करने पर भी प्रतिबंध लगाने के निर्देश जारी करें। याचिका दायर करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने सर्वोच्च न्यायालय से इस मामले में स्वत: संज्ञान लेने की माँग करते हुए कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत कम मामलों में न्यायमूर्तियों की खिंचाई की है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य प्रियांक क़ानूनगो कहते हैं कि उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति का आदेश अन्यायपूर्ण है। इस मामले में राज्य सरकार से तुरंत अपील करे एवं न्यायमूर्ति को उनकी प्रतिबद्धता याद दिलाये। पीड़िता केवल 11 साल की है। पॉक्सो अधिनियम की धारा-29 एवं 30 के तहत आरोपियों को निर्दोष सिद्ध करना उनका बचाव करने जैसा है। क़ानूनगो कहते हैं कि यह आश्चर्यजनक बात है कि जबरन कपड़े उतारने को भी दुष्कर्म का प्रयास नहीं माना गया। इतनी छोटी बच्ची से दुष्कर्म के प्रयास की परिभाषा समझाने समझाने का न्यायमूर्ति का प्रयास अन्याय से कम नहीं है। इस तरह के न्यायालयों के निर्णय अपराधियों को अपराध करने के लिए उकसाते हैं। इसलिए राज्य सरकार को इस मामले में तुरंत अपील करनी चाहिए।

राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष एवं भाजपा सांसद रेखा शर्मा कहती हैं कि यदि न्यायाधीश संवेदनशील नहीं होंगे, तो महिलाओं एवं बच्चों को न्याय कैसे मिलेगा? कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत कहती हैं कि क्या यह उस 11 साल की बच्ची के लिए न्याय है? भारत महिलाओं के लिए दुनिया के सबसे असुरक्षित देशों में से एक है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा कहते हैं कि न्यायाधीश की टिप्पणी भयावह और शर्मनाक है। इलाहाबाद न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा के आदेश को लेकर उनके विरुद्ध प्रदेश ही नहीं देश भर में प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। लोग उन्हें ऐसे आदेश के लिए दंडित करने की माँग कर रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं ने उनके विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है। न्यायमूर्ति का राजनीतिक विरोध भी बड़े पैमाने पर हो रहा है।

महाभियोग एवं बचाव

देश में अन्यायकारी आदेश एवं निर्णय पहले भी कई न्यायाधीशों ने दिये हैं; मगर उनमें से अनेक को इसका दंड मिला है, तो अनेक राजनीतिक पहुँच एवं नेताओं के हितों में निर्णय देने के चलते राजनीतिक लाभ वाले पदों पर नियुक्त किये गये हैं। न्यायकारी आदेश देने वाले कई न्यायाधीशों की हत्याएँ भी देश में हुई हैं। गुजरात के जज लोया की हत्या इसका सबसे सटीक उदाहरण है।

वर्ष 2011 में भ्रष्टाचार एवं पद के दुरुपयोग के आरोपों पर सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन के विरुद्ध महाभियोग लाने की तैयारी हो ही रही थी कि उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया था। राज्यसभा के 75 सदस्यों ने न्यायमूर्ति पी.डी. दिनाकरन के विरुद्ध महाभियोग चलाने की माँग की थी।

वर्ष 2017 में आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सी.वी. नागार्जुन रेड्डी के विरुद्ध भी महाभियोग का प्रस्ताव राज्यसभा के तत्कालीन सभापति पूर्व उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने रद्द कर दिया था। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस.के. गंगले के विरुद्ध वर्ष 2018 में महाभियोग की कार्रवाई हुई थी; मगर उनके विरुद्ध भी कुछ नहीं हो सका। इसके अतिरिक्त पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति निर्मल यादव को भी भ्रष्टाचार के आरोपों से वर्ष 2008 में बरी कर दिया गया था। मगर वहीं वर्ष 2015 में गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध अपशब्द बोलने पर महाभियोग लाकर जेल भेज दिया गया था। बाद में जेल से उन्होंने अपने शब्द वापस लेकर क्षमा माँगी थी।