अपने एक लेख ‘मीडिया एंड गवर्नेंस’ की शुरुआत करते हुए पत्रकार मुकुल शर्मा आधुनिक राजनीति के बारे में दिलचस्प बातें कहते हैं. उनका कहना है कि आधुनिक राजनीति एक मध्यस्थता करने वाली राजनीति है, जो ज्यादातर नागरिकों द्वारा ब्रॉडकास्ट और प्रिंट मीडिया के जरिए अनुभव की जाती है. जाहिर सी बात है कि उनका मानना है कि समकालीन समाजों में जनतंत्र का अध्ययन दरअसल इस बात का भी अध्ययन है कि मीडिया किस तरह राजनीतिक घटनाओं और मुद्दों को प्रस्तुत करता है और किस तरह वह राजनीतिक प्रक्रियाओं और सार्वजनिक मत को प्रभावित करता है.
एक बानगी देखिए ‘आप के इलाके में भूख का ट्रेंड कैसा है?’ कालाहांडी के एक दूरस्थ गांव में भूख से मर रहे शख्स से ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में न्यूजरूम में बैठे पत्रकार द्वारा पूछा गया यह सवाल. गोया यह काफी नहीं हो, तो दूसरा सवाल देखें, ‘वहां का वातावरण कैसा है और क्या अपने भूखे परिवारों के साथ लोग खुश हैं?’ कई बार रियल लाइफ परदे पर नजर आती जिंदगी यानी रील लाइफ को मात देती दिखती है. ओडिशा में भूख से हो रही मौतों को लेकर टीवी की लाइव रिपोर्टिंग शायद इसी बात की ताकीद कर रही थी. वैसे ‘इंफोटेनमेंट’ के इस जमाने में मीडिया में भूखे-प्यासों-मजलूमों की यह अचानक मौजूदगी अंग्रेजी जुबां में कहें तो कॉमिक रिलीफ प्रदान करती है.
एक तरफ यह आलम है कि भूख से मर रहा शख्स टीवी पर ‘सजीव हाजिर’ कर दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ यह स्थिति है कि जो लोग बेहतर इंसानी जिंदगी पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके प्रति सचेत चुप्पी बरती जाती है, गोया कुछ हो नहीं रहा है.
पिछले दिनों नर्मदा आंदोलन के तीस साल पूरे होने पर सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक जुटान का आयोजन राजधानी दिल्ली में हुआ. यह आंदोलन जिसने विस्थापन एवं पुनर्वास को लेकर देश के पैमाने पर व्यापक बहस खड़ी की, उसकी इस अहम बैठक का विवरण भी शायद ही किसी अख़बार में आया. एक वेबसाइट (हस्तक्षेप डॉट कॉम) पर यह खबर देखकर कि ‘दिल्ली में आंगनबाड़ी कर्मचारी अपनी मांगों के लिए छह दिन से भूख हड़ताल पर हैं’, मै थोड़ा चकित हुआ क्योंकि एकाध अपवादों को छोड़ दें तो जिसे मुख्यधारा का मीडिया कहा जाता है, वहां इसे लेकर विराट मौन पसरा था.
एक आम बात यह है कि जब श्रमिकों का विशाल जुटान राजधानी में होता है, जब देश के कोने-कोने से आए मजदूर अपनी मांगों को लेकर आवाज बुलंद करते हैं तो दूसरे दिन के अखबारों में उनकी मांगों को लेकर, सरोकारों को लेकर कोई बात नहीं होती. आम तौर पर उसे ब्लैकआउट कर दिया जाता है. हां, इस बात का अवश्य उल्लेख होता है कि किस तरह मजदूरों के आने से सड़कें जाम हो गईं थीं और दिल्लीवालों को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ा!
यह सोचने का सवाल है. बकौल पी.साईनाथ, ‘जन मीडिया और जनयथार्थ में बढ़ता अंतराल किस वजह से है, जहां से गरीब को ढांचागत तौर पर बाहर कर दिया गया है.’ और जब जन के सरोकारों को जगह नहीं फिर उसके आंदोलनों को कहां ठौर मिलेगा. अपनी एक अन्य तकरीर में पी. साईनाथ ने इसका विचलित करनेवाला चित्रण किया था. उनका कहना था, ‘भारत का मीडिया समाज के अभिजात तबके को ही अहमियत देता है. हर साल मुंबई में आयोजित एक फैशन शो को कवर करने के लिए मीडिया के 512 प्रतिनिधि हाजिर रहते हैं, जबकि राष्टीय मीडिया के आधा दर्जन प्रतिनिधि विदर्भ के उन गांवों में जाकर रहना नहीं चाहते ताकि वह किसानों की आत्महत्या का ठीक से अध्ययन कर सकें.’ इसके अलावा, ‘महज एक टीवी चैनल और अखबार को छोड़ दें तो किसी भी मीडिया संगठन को समूचे देश में तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार की यह स्वीकारोक्ति कि 1997 से 2007 के दरमियान 1.6 लाख किसानों ने आत्महत्या की, प्रसारण योग्य समाचार नहीं लगा.’ साईनाथ के अनुसार, ‘मीडिया में, महाराष्ट्र सरकार द्वारा घर-घर जाकर किसानों पर किए गए उस सर्वेक्षण का भी कोई समाचार नहीं छपा जिसमें यह विचलित करने वाला तथ्य उजागर हुआ था कि 20 लाख किसान परिवार बेहद कठिनाई की स्थिति में जी रहे हैं.’
विडंबना यही है कि यह सब ऐसे दौर में हो रहा है जबकि मीडिया का जबरदस्त विस्तार हुआ है. कई सारी बहुदेशीय कंपनियां मीडिया के व्यवसाय में घुसी हैं जिन्होंने यहां की कंपनियों से गठजोड़ बनाया है या यहां की अग्रणी कंपनियों ने खुद अपने दायरे का प्रचंड विस्तार किया है. निश्चित ही आजादी के बाद कुछ दशकों तक, भले ही उन दिनों प्रिंट मीडिया का बोलबाला था, स्थिति इससे निश्चित ही बेहतर थी. जानकारों के मुताबिक सत्तर-अस्सी के दशक तक अखबारों में अलग-अलग ‘बीट’ की तरह श्रमिक बीट भी हुआ करती थी, जिसमें उसका जिम्मा संभाले रिपोर्टरों को श्रमिक जगत की खोज-खबर लेनी पड़ती थी, उसके जुलूसों औरआंदोलनों को ‘कवर’ करना पड़ता था. अब आलम यह है कि न केवल उस बीट को समाप्त कर दिया गया है, अब वहां पर सिर्फ बिजनेस बीट ही है, जहां पर तैनात रिपोर्टर को सीआईआई, फिक्की से लेकर विभिन्न मंत्रालयों की खाक छाननी पड़ती है. देश के सबसे मानिंद अखबारों में शुमार रहे पेपर में- जिसके संपादक ने कभी यह बात कही थी कि भारत में दो लोगों की बातों को ही जनता गंभीरता से लेती है, एक प्रधानमंत्री और दूसरा प्रस्तुत अखबार का संपादक. एक दशक से कार्यरत एक मित्र ने निजी बातचीत में बताया कि हमें साफ निर्देश है कि गरीबों, मजलूमों के दुख-परेशानियों की खबरें नहीं छापनी हैं, इससे हमारे उपभोक्ताओं एवं विज्ञापनदाताओं पर विपरीत असर पड़ता है. क्या इस समूचे मंजर को किसी संपादक के व्यक्तिगत आग्रहों, रुझानों का परिणाम कहा जा सकता है? या इसकी कुछ गहरी ढांचागत वजहें हैं. निश्चित ही इसकी ठीक से विश्लेषण करने की जरूरत है.
आखिर ऐसा क्यों मुमकिन हो सका है कि जो मीडिया तानाशाही निजामों को बेदखल करने की, औपनिवेशिक हुकूमत के खिलाफ व्यापक जनमानस को गोलबंद करने की या सामाजिक सरोकार के मसलों पर जनता को चेतना से लैस एवं सक्रिय करने की ताकत रखता रहा है, वह मुख्यतः खाये-अघाये लोगों के मनोरंजनों, चिंताओं, पूर्वाग्रहों तक सिमट गया है?
मीडिया में आ रहे इन बदलावों को वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय में इंटरनेशनल कम्युनिकेशंस के प्रोफेसर दया किशन थुस्सू ‘मर्डाकीकरण’ (रूपर्ट मर्डाक, जो स्टार मीडिया समूह के मालिक हैं और उनके नेटवर्क का प्रसार दुनिया के तमाम मुल्कों में है) के तौर पर संबोधित करते हैं, जो एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके तहत मीडिया की सत्ता का सार्वजनिक से चलकर निजी मिल्कियत, अंतर्देशीय, मल्टीमीडिया कॉर्पोरेशंस के हाथों में हस्तांतरण है, जो न केवल वितरण प्रणालियों और बल्कि वैश्विक सूचनाओं के नेटवर्क की अंतर्वस्तु को भी नियंत्रित करते हैं.
विशाल मीडिया समूहों के हाथों मीडिया की मिल्कियत का संकेंद्रीकरण, विज्ञापनों पर अत्यधिक निर्भरता, ब्रेकिंग न्यूज पर अत्यधिक फोकस, कुछ ‘विशेष’ स्टोरीज पर जोर और ‘कुछ भी चलता है’ की रणनीति, संपन्न मध्यम वर्ग (जो विज्ञापनदाताओं का सबसे लाभदायक निशाना रहता है) उसके लिए प्रिय लगने वाले मुददों पर कार्यक्रम और मार्केटिंग और संपादकीय विभागों के बीच बढ़ती दूरी और खबरों का वस्तु में रूपांतरण हो जाना’ आदि मर्डाकीकरण के ऐसे पहलू हैं जो भारत के मीडिया में विभिन्न स्तरों पर देखे जा सकते हैं. वहीं देश के एक अग्रणी मीडिया समूह की विकास यात्रा पर निगाह डाल कर हम इसे समझ सकते हैं. जानकारों के मुताबिक अस्सी के दशक में जब जनाब समीर जैन ने टाइम्स समूह का जिम्मा संभाला तबसे उसमें जबरदस्त बदलावों का आगाज हुआ. उनका बिजनेस चिंतन सरल था- वह वस्तुओं के विक्रेताओं को, ग्राहकों के इस विशाल बाजार के साथ जोड़ने का काम करेगा, बाजार के विस्तार के लिए उसे खबरी पत्रकारिता की तरफ से कोई व्यवधान नहीं चाहिए था, मगर ऐसी मार्केटिंग रणनीतियों की आवश्यकता थी जिससे खर्चे में कटौती हो और ब्रांड को भी उभारा जा सके.
चीजें किस तरह बदली हैं इसे हम अमेरिका की मशहूर मैगजीन ‘द न्यूयॉर्कर’ में प्रकाशित एक लेख के सहारे देख सकते हैं, जिसमें भारत के सबसे बड़े मीडिया घराने पर बात की गई थी. सांसद हरिवंश ने राज्यसभा में दिए अपने भाषण में इसका उल्लेख किया था. लेख के मुताबिक उस मीडिया के मालिक ने कहा था, ‘हम लोग अखबार के व्यवसाय में नहीं हैं. हम लोग विज्ञापन के व्यवसाय में हैं. अगर आप के द्वारा पढ़ी गई 90 फीसदी खबरें विज्ञापनों से आती हैं, तो आप विज्ञापन के व्यवसाय में हैं.’
वैसे इसमें कोई दोराय नहीं कि जबसे भाजपा का देश की सियासत में बोलबाला बढ़ा है तबसे उन्होंने भारतीय जनमानस के ‘सहजबोध’ को सांप्रदायिक शक्ल देने के लिये सुनियोजित, सुचिंतित योजनाएं चलाई हैं और इसके पीछे उनकी एक दूरगामी योजना भी रही है. जनमानस के सांप्रदायिककरण के प्रोजेक्ट को नवउदारवादी पूंजीवाद की उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से परोक्ष-अपरोक्ष रूप में काफी मदद पहुंचती है.
अपनी एक चर्चित किताब ‘रिच मीडिया, पूअर डेमोक्रेसी’ में इलिनायस इंस्टिट्यूट के कम्युनिकेशन रिसर्च के प्रोफेसर रॉबर्ट मेकसेनी ठीक ही उल्लेख करते हैं कि किस तरह पूंजी के वैश्वीकरण की प्रक्रिया मीडिया को व्यवसायीकरण से परिपूर्ण कर देती है. उसके तहत उपभोक्तावाद, वर्गीय असमानता और व्यक्तिवाद को स्वाभाविक माना जाता है जबकि राजनीतिक गतिविधि, नागरिक हस्तक्षेप और बाजार विरोधी गतिविधियों को हाशिये पर डाला जाता है. साफ है कि ऐसी स्थितियां सांप्रदायिकता के विश्व दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने का रास्ता सुगम करती हैं जो बौद्धिकता या स्वतंत्र चिंतन की विरोधी है और जो ‘हम’ और ‘वे’ के ऐसे सरलीकरणों पर टिका है जिसे आम जनता द्वारा आसानी से ग्रहण किया जाता है. लाजिमी है कि लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद में रूपांतरित करने के इस माहौल में आमजन, उसके सरोकार और उसकी हलचलें अधिकाधिक हाशिये पर ढकेल दी जाती हैं.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)