हाल के दिनों में जिस तरह की घटनाएं लगातार देखने में आ रही हैं, उससे जाहिर है कि मुसलमानों को लोकतंत्र से बाहर किया जा रहा है. उनको यह बताया जा रहा है कि उन्हें सबके बराबर अधिकार नहीं है. उनके मन में भय पैदा किया जा रहा है कि अगर हमारी शर्त पर रहने को तैयार हो तो रहो, अन्यथा इस तरह की परेशानियां उठानी होंगी. हमारी शर्त पर नहीं रहना है तो आपकी जान खतरे में है. यह दरअसल, लोकतंत्र पर हमला है. यहां सिर्फ मुसलमानों की बात नहीं है, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि सभी अल्पसंख्यकों पर खतरा है और बढ़ता जा रहा है. आज नहीं तो कल सबकी बारी आएगी.
सांप्रदायिक आधार पर इस देश को बांटने जैसी हरकतें करने वाले लोग इस देश के इतिहास और इसके समाजशास्त्र के बारे में अनभिज्ञ हैं. हिंदुस्तान एक महादेश है और वे इस महादेश के बारे में नहीं जानते. वे इसे अपने हिसाब से बनाना और चलाना चाहते हैं, जैसा कि पाकिस्तान में है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह हिंदू तालिबान बनाने की तैयारी है. हिंदू तालिबान की क्या संरचना होगी, वे उसी दिशा में काम कर रहे हैं और इसमें वे सफल हुए हैं. क्योंकि उनके पास सत्ता है, साधन है, लोग हैं और पैसा है. उन्हें राजसत्ता का सहयोग, साधन और धन सबकुछ मुहैया है. इन सबके साथ मिलकर वे मुसलमानों को अलग-थलग कर रहे हैं. उनको ये नहीं मालूम है कि मुसलमानों को अलग-थलग करके आप उन्हें गैर-संवैधानिक गतिविधियों के लिए उकसा रहे हैं. ऐसा करना देश और समाज दोनों के लिए खतरनाक है. देश के अंदर असहिष्णुता बढ़ती है तो वह भयानक रूप ले लेती है. उससे लाभ उठाने वाले भी बहुत हैं. पूरे विश्व में ऐसी शक्तियां हैं जो देशों को कमजोर करके उसका लाभ उठाना चाहती हैं. यह सांप्रदायिक उन्माद देश को कमजोर करके उन शक्तियों के आगे डाल देगा जो इस पर अपना अधिकार जमाना चाहती हैं.
इस वक्त हालत यह है कि मुसलमानों की समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करें. मुसलमान कम पढ़े-लिखे हैं, उनके पास आर्थिक शक्ति नहीं है, सत्ता में हिस्सेदारी अथवा प्रतिनिधित्व नहीं है, शिक्षा-जागरूकता नहीं है, उनकी समझ में नहीं आता कि वे विरोध कैसे करें? उनके पास दो रास्ते हैं कि या तो वे चुपचाप हाशिये पर रहते रहें या फिर वे गैर-संवैधानिक रास्ते अख्तियार करें. यह दोनों बातें देशहित में नहीं है.
बात सिर्फ मुसलमानों के हित की नहीं, इस देश के लोकतांत्रिक ढांचे को बचाने की भी है. आप 15-18 करोड़ आबादी को अलग-थलग रहने को विवश कर दें या फिर वह निराश होकर गैर-संवैधानिक रास्ता अपना ले, लोकतंत्र से उसका विश्वास खत्म हो जाए, तो क्या स्थिति होगी? ज्यादातर मुसलमानों का विश्वास लोकतंत्र से उठ रहा है. इससे वे लाभ उठा रहे हैं, जिनके लिए वे वोट करते हैं. मुसलमानों की कोई सुनने वाला नहीं है. इससे देश में भयानक स्थिति उत्पन्न हो रही है.
अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब आेडिशा में पादरी ग्राहम स्टेन्स को दो और लोगों के साथ जला दिया गया था. जो आरोपी था, उसे फांसी हुई. बाद में कोर्ट ने उसे उम्रकैद में बदल दिया. इस तरह तीन लोगों का हत्यारा बच गया, जबकि सीबीआई ने उसके लिए मौत की सजा की अपील की थी. ऐसे तमाम मसले सामने आते रहे हैं. ये सब चीजें अल्पसंख्यकों के लिए क्या संकेत करती हैं?
भारतीय लोकतंत्र में सबको बराबरी का स्तर प्राप्त नहीं है. अगर बराबरी नहीं है तो मुसलमानों-ईसाईयों से आप क्या आशा करते हैं? क्या वे अपने दोयम दर्जे को स्वीकारते हुए देश के प्रति समर्पित रहेंगे? क्या वे संविधान में यकीन करेंगे? वे अविश्वास की स्थिति में हैं. जो लोग इन चीजों को और बढ़ावा दे रहे हैं उनको खुद नहीं मालूम है कि इसके क्या नतीजे हो सकते हैं.
मुस्लिम समाज की भी अपनी कमियां हैं. उनमें अज्ञानता है, जहालत है, लीडरशिप नहीं, धर्मांधता है, तमाम बुराइयां हैं, लेकिन लोकतंत्र में कमियों के प्रति सचेत होकर उसकी पहचान कर उसके निदान की जरूरत होती है. कांग्रेस ने सच्चर कमेटी गठित की थी, उसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमानों की हालत दलित के बराबर है. उसने कुछ सिफारिशें सौंपी थीं, जिन्हें मानने की बजाय उन सिफारिशों को ताक पर रख दिया गया. सांप्रदायिक घटनाओं को रोकने के लिए कड़े कानून नहीं हैं. ये सारी बातें गलत संकेत देती हैं.
ये सारी भयानक स्थितियां अचानक नहीं आ गई हैं. इसमें सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस का भी पूरा हाथ रहा है. आजादी के बाद कांग्रेस ने छोटे पैमाने पर बार-बार वही किया है जो भाजपा कर रही है
जो लोकतंत्र के रक्षक हैं उनको सोचना चाहिए कि वे इस देश को क्या बना रहे हैं. इसमें अंतत: यह होगा कि वे हिंदू जो कट्टर नहीं हैं, उनके लिए भी संकट खड़ा होगा. ईसाई, मुसलमान, जैन, बौद्ध के अलावा उदार हिंदू भी सांप्रदायिकता का शिकार बनेगा. लोकतंत्र खत्म होगा तो लोकतांत्रिक सोच वाले हर व्यक्ति को मुसीबत होगी. इससे देश बदतर हालत में पहुंचेगा.
मुसलमानों के साथ त्रासदी यह है कि मुस्लिम समाज का सारा मध्यम वर्ग बंटवारे के समय पाकिस्तान गया. जो गरीब थे यानी मजदूर, बुनकर आदि वे यहां रह गए. उनके पास न सामर्थ्य बची न ही लीडरशिप. जो मुसलमानों के नेता बनकर उभरे, उन्होंने मुसलमानों की समस्या सुलझाने के नाम पर उनको भावनात्मक रूप से उकसाया और उनका शोषण किया. जैसे मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में हैं. उन्होंने हमेशा ही मुसलमानों का भावनात्मक शोषण किया. उर्दू, फारसी और मदरसे जैसे बेवजह के मुद्दों में मुसलमानों को फंसाए रखा गया. उन्होंने फारसी विश्वविद्यालय बनवाया तो उसका मुसलमानों के लिए क्या उपयोग है? ऐसी भाषा जिसका कोई भविष्य नहीं है, वह मुसलमानों को क्या देगी? केवल भावनात्मक स्तर पर मुसलमानों को उकसाकर वोट लेने के लिए यह सब किया जाता है. मुसलमानों के इन कथित रहनुमाओं ने मुस्लिम कट्टरपंथ को बढ़ाया और आम मुसलमान की समस्या के प्रति संवेदनहीन रहे. ये जानते हैं कि अनपढ़-जाहिल मुसलमान, नेताओं के कहने में आ जाएंगे. उनको सिर्फ फंसाया जाता रहा है.
मुसलमानों की रहनुमाई के नाम पर एक नए नेता उभरे हैं असदुद्दीन ओवैसी. ओवैसी आधुनिक जिन्ना है क्योंकि वह भी भड़काऊ और भयानक बातें करके मुसलमानों को आकर्षित करता है. उसका भी उद्देश्य सत्ता के साथ सौदेबाजी और जोड़तोड़ ही है. वह मुस्लिम समाज के सुधार की कोई बात नहीं करता. ओवैसी जिस पार्टी का है उसका इतिहास सबको पता है. मुसलमान दिशाहीन स्थिति में हैं और इसे कोई दिशा देने वाला नहीं है. वो जिसे भी अपना लीडर मानते हैं, निराश होते हैं. अब जब लीडरशिप की यह हालत है तो मुस्लिम बुद्धिजीवी क्या कर सकते हैं, वे सिर्फ लिख सकते हैं, बात कर सकते हैं, लेकिन पार्टी या संगठन नहीं बना सकते. दूसरे, मुस्लिम समाज अंदर से बंटा हुआ है. इसलिए वो किसी एक की बात सुनने को तैयार नहीं है.
ये सारी भयानक स्थितियां अचानक नहीं आ गई हैं. इसमें सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस का भी पूरा हाथ रहा है. आजादी के बाद कांग्रेस ने छोटे पैमाने पर बार-बार वही किया है जो भाजपा कर रही है. मुसलमानों की असुरक्षा को बढ़ाकर वोट लिया गया. पिछले पचास साल में जो हुआ, अब वह अपने चरम पर है. यह बहुत दुखद और चिंताजनक है, क्योंकि इसका असर दीर्घकालिक होगा और यह देश और समाज को भारी पड़ेगा.
(लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं )
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)