दुनिया के सभ्य देशों में नास्तिक, ब्लॉगर और मुक्त चिंतन करने वाले लोगों को न सिर्फ सम्मान दिया जाता है, बल्कि उनके कामों को सराहा भी जाता है. इनमें से कई जाने-माने चेहरे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के साथ अपने जैसा बनने के लिए भी प्रेरित करते हैं लेकिन यही सच दुनिया के उन हिस्सों पर लागू नहीं होता, जो अपने पूरे व्यवहार में सभ्य नहीं कहे जा सकते. इन हिस्सों नास्तिक, ब्लॉगर और मुक्त चिंतन करने वाले लोगों को ही असभ्य समझा जाता है. उनके लिए हर व्यक्ति जो मुक्त चिंतक और प्रगतिशील है, वह नास्तिक ही होता है. ये लोग यहीं नहीं रुकते बल्कि एक कदम आगे बढ़कर यह मानते हैं कि नास्तिक कुछ और नहीं बल्कि मौत के हकदार हैं.
ऐसे में इन नृशंस लोगों को सही राह दिखाने के लिए ज्ञान का कौन-सा रास्ता अपनाना चाहिए? आज से तीस साल पहले मैंने लोगों को मजबूत और जागरूक बनाने की आशा के साथ कलम उठाई थी लेकिन आज मैं देखती हूं कि अनपढ़ लोगों की संख्या पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है. अकेले मेरी कलम एक पूरे देश को ज्ञान नहीं दे सकती. अगर ज्यादा से ज्यादा लेखक इस बारे में लिखते, ज्यादा से ज्यादा नेता बोलते और सरकार अति सक्रिय होकर असभ्य को सभ्य बनाने के लिए जरूरी कदम उठाती तो एक स्वतंत्र सोच देश को उन्नति की राह पर ले जाने में मदद कर सकती थी. बांग्लादेश को आजाद हुए सालों बीत चुके हैं. देश को आजादी की तरफ कौन-सी परिस्थितियां ले गईं और आज ये देश कहां खड़ा है? ये कुछ सवाल हैं जो इस समय जेहन में उठ रहे हैं.
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनके बेटे सजीब वाजेद जॉय घोषणा कर चुके हैं कि नास्तिक लोगों को सार्वजनिक रूप से उनका सहयोग नहीं मिलेगा लेकिन नास्तिक देश के नागरिक बने रहेंगे. सजीब प्रधानमंत्री के सूचना और संचार तकनीक सलाहकार भी हैं. अब यहां एक सवाल पैदा होता है कि फिर देश की मदद किसे मिलेगी? इसका एक आसान-सा जवाब है, मदद उन ही लोगों को मिलेगी जो ऊपरवाले से डरते हैं.
इन बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वास्तव में ‘नास्तिक’ शब्द ने कब से घृणा फैलाना शुरू किया? अचानक से सारे लोग ये चाहने लगे कि नास्तिकों से एक खास दूरी बनाकर रखी जाए. सरकार, जिस पर अपने सभी नागरिकों के साथ बराबरी का व्यवहार करने की जिम्मेदारी होती है, जिसे धर्म, जाति, लिंग, भाषा और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव से अलग रहना था, वह भी पक्षपात और पूर्वाग्रह की शिकार हो गई.
सरकार प्रताड़ित तर्कवादी अल्पसंख्यकों के साथ खड़ी नहीं होगी, यहां तक कि जब उन्हें मूर्खतापूर्वक मारा जाता है, तब भी नहीं. न तो सरकार इसे अपराध मानेगी और न ही गुनहगारों को न्याय के कठघरे में खड़ा करेगी. इसके उलट शेख हसीना देश में दूसरी वजहों से हो रही हत्याओं के बारे में काफी कुछ बोलती हैं. ऐसे में वे नास्तिक होने के नाम पर हो रही हत्याओं के बारे में कैसे चुप्पी साधे रख सकती हैं? इससे एक बात साफ हो जाती है कि वे सार्वजनिक तौर पर नास्तिकों के साथ नहीं आना चाहतीं. ऐसा इसलिए क्योंकि इससे उन्हें धार्मिक लोगों की बहुत बड़ी संख्या से वोटों का नुकसान उठाना पड़ा सकता है.
बांग्लादेश में सही मायने में लोकतंत्र नहीं है. सच्चे लोकतंत्र का कोई धर्म नहीं होता, जबकि बांग्लादेश का है. देश के संविधान से जब तक ‘धर्म’ शब्द खत्म नहीं हो जाता, जब तक ‘नास्तिक’ और ‘आस्थाहीन’ शब्द, ‘आस्तिक’ और ‘आस्थावान’ शब्द की तरह जायज नहीं ठहराए जाते, तब तक बांग्लादेश सही मायनों में लोकतांत्रिक देश नहीं बन सकता.
इस देश में ‘नास्तिक’ शब्द को गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. यही हाल ‘मुक्त चिंतक’ शब्द का भी है. देश के लिए सबसे खराब बात यह है कि तर्कवादियों को नास्तिक के रूप में देखा जा रहा है, जिससे वे बहुसंख्यक लोगों में घृणा की वजह बनते जा रहे हैं.
विज्ञान और धर्म के बीच टकराव बहुत पहले से है. हालांकि इसमें विज्ञान की जीत निश्चित होती है. ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि विज्ञान ही सत्य है. सच को झूठ की जमीन में दफनाया नहीं जा सकता है. देश में प्रगतिशील, संभावनाशील और मानवतावादी युवाओं की निर्ममतापूर्ण हत्या ऐसे देश के निर्माण में बाधा है जो धर्मांधता और नृशंसता से मुक्त हो. इस उद्देश्य के लिए यहां मानवतावादियों का रहना जरूरी है. इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता.
लोग अब भी अवामी लीग को ही इकलौती धर्मनिरपेक्ष पार्टी मानते हैं और इसमें विश्वास करते हैं. लोगों का मानना यह भी है कि यही पार्टी इस्लाम समर्थक दलों की प्रतिकारक (खत्म या विरोध करने वाली) है. जबकि जमीनी सच्चाई इससे कहीं जुदा है. ऐसी अफवाह है कि अवामी लीग के नेता हिफाजत-ए-इस्लाम के अमीर शफी की कृपा पाने के लिए नियमित रूप से चिटगांव जाते हैं. यहां तक कि नए मेयर भी वहां आशीर्वाद लेने जा चुके हैं. इसलिए अवामी लीग और इस्लाम समर्थक बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) तथा जमात-ए-इस्लामी जैसी पार्टियों में कोई खास अंतर नहीं है.
आजकल जब कभी भी मैं अपने देश के बारे में सोचती हूं मुझे एक तरह की निराशा जकड़ लेती है. जब तक लोग चुपचाप तमाशा देखते रहेंगे, तब तक यहां की राजनीतिक पार्टियां देश को इस्लामिक चरमपंथ और आतंकवाद की राह पर ही ले जाएंगी. निश्चित रूप से सब इन स्थितियों को नाकामयाबी के तौर पर नहीं देखते. लेकिन जिस तरह से यहां धर्मांधता बढ़ रही है, उससे तो यह लगने लगा है कि बांग्लादेश ‘दार-उल-इस्लाम’ (इस्लाम की धरती) में तब्दील हो जाएगा.
विज्ञान समर्थक, धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी, जो देश में बड़े पैमाने पर फैली अराजकता के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं, उन्हें चुप कराने के लिए एक अच्छी और सुनियोजित चाल चली गई है. इन नृशंस हत्याओं को अंजाम देने वालों को कभी सजा नहीं मिल पाएगी. धर्म के सौदागर नेताओं के लिए ये हमेशा अपने बने रहेंगे. ये धार्मिक नेता वही हैं, जो इस देश को उन्मादियों, असहिष्णु, कायर, मूर्ख हत्यारों और बलात्कारियों से भर देने का सपना देख रहे हैं.
एक समय था जब पूरी दुनिया में बांग्लादेश ‘सालाना बाढ़ के देश’ के रूप में जाना जाता था लेकिन अब इसे ऐसे देश के रूप में जाना जाता है, जहां तर्कशील और मुक्त चिंतकों को हर महीने मार दिया जाता है. पहली पहचान प्राकृतिक देन थी, जबकि दूसरी यहां के लोगों द्वारा बनाई गई है. यह नई पहचान पहली की अपेक्षा ज्यादा खतरनाक है. अगर देश में धार्मिक उन्माद भड़काकर वोट पाने के दुस्साहस को रोका नहीं गया तो यहां की सड़कें दूसरे होनहार युवाओं के खून से फिर से रंग जाएंगी.
एक समय था जब शेख मुजीबुर्रहमान की ओर उठाए गए कदम ने पाकिस्तानी सेना के हाथों देश को कटने से बचा लिया था लेकिन आज मुजीबुर की बेटी हसीना के संरक्षण में ही आतंकी प्रगतिशील लोगों का खून बहा रहे हैं. जहां मुजीबुर ने खून के ज्वार को रोक दिया था, वहीं उनकी बेटी इससे कोसों दूर हैं और यहां तक कि इन हत्यारों के साथ खड़ी नजर आती हैं. हसीना के बेटे सजीब जॉय भी इन हत्यारों के नए सहयोगी के तौर पर उभरे हैं. यह स्थिति शर्म को नहीं बल्कि डर को बढ़ावा देती है.
कट्टरता की भेंट चढ़े कुछ नाम
- अहमद रजीब हैदर (थापा बाबा)
- अविजित रॉय
- अनंत बिजॉय दास
- वशिकुर रहमान
- जगतज्योति तालुकदार
- अशरफ-उल-आलम
- रियाद मोर्शिद बाबू
- आरिफ रेहान दीप
- नीलाद्री चट्टोपाध्याय (नीलॉय नील)
इस क्रम में अगला नाम कौन होगा? हम नहीं जानते हैं. कई ब्लॉगर देश छोड़कर जा चुके हैं और जो अब भी देश में हैं वे मरने का इंतजार कर रहे हैं. एक बार जब हत्यारे अपने मंसूबों को अंजाम दे देंगे तब बांग्लादेश धर्मनिरपेक्षता के खतरे से मुक्त हो जाएगा.
बांग्लादेश किसी भी ‘नास्तिक’ को मदद देने से मना करता है. यह भी स्पष्ट रूप से नजर आता है कि हसीना इस बात की आशंका से डरी हुई हैं कि कहीं वे इन मामलों के प्रति किसी तरह की संवेदना दिखाती हैं तो ‘नास्तिक’ के रूप में प्रचारित न हो जाएं. फिर भी, क्या वो नास्तिक नहीं हैं? हम में से सब नास्तिक बने घूमते हैं. अगर आप हिंदू धर्म में विश्वास नहीं करते हैं तो आप आस्थाहीन हैं. अगर आप ईसाई धर्म में विश्वास नहीं कर रहे हैं तो आस्थाहीन हैं. अगर आप यहूदी धर्म, मॉर्मोन (द चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लैटर डे सैंट से जुड़ा एक धार्मिक समूह) और जेहोवा विटनेसेस (ईसाई धर्म से जुदा एक समूह) में अपना विश्वास कायम नहीं रख पाते तब भी आप नास्तिक हैं.
दुनिया बहुत सारे धर्मों को देख चुकी है. हर वह धर्म जिसके आप अनुयायी नहीं होते, उसकी नजर में आप नास्तिक हो जाते हो. आप सिर्फ एक धर्म को चुनते हैं और हजारों को नकार देते हैं, तब एक आस्थावान होने से ज्यादा आप अास्थाहीन हो जाते हैं, साथ ही आस्तिक होने से ज्यादा नास्तिक बन जाते हैं. अंधविश्वास की घातक ताकतें अविश्वासी लोगों के मानवाधिकारों पर विश्वास नहीं करती हैं. बांग्लादेश सरकार भी इसी बात में भरोसा करती है.
हाल ही में नीलॉय नील नाम से लिखने वाले एक ब्लॉगर की नृशंस हत्या कर दी गई. उनका असली नाम नीलाद्री चट्टोपाध्याय था. 27 साल के नील ने ढाका विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एमए किया था. वे एक पढ़ाकू व मेहनती छात्र थे जिसने प्रथम श्रेणी से एमए पास किया था. वे अच्छा लिखते थे, पढ़े-लिखे और जागरूक थे. हत्या से पहले उन्हें जान से मार देने की धमकी मिली थी. उन्होंने लिखा भी था कि उनका पीछा किया जाता है.
दो महीने पहले पुलिस से मिलकर उन्होंने उन लोगों के खिलाफ केस दर्ज कराया था, जो कथित रूप से उनका पीछा कर रहे थे. उन्होंने बताया कि उनकी सुरक्षा को खतरा है. पुलिस ने उन्हें देश छोड़ देने की सलाह दी थी लेकिन नील की ऐसी कोई योजना नहीं थी. वे अपने देश में ही जिंदा रहने के रास्ते खोज रहे थे. इन स्थितियों के बावजूद बांग्लादेश सरकार ने उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. सरकार एक अच्छे उदारवादी युवा को बचाने की बजाय अपने हाथ जेब में डालकर चुपचाप तमाशा देखती रही.
इससे पहले भी इस संगठन ने कई दूसरे ब्लॉगरों की हत्या करने की जिम्मेदारी भी ढिठाई से ली है. इसके बावजूद पुलिस का दावा था कि हत्यारों का कोई भी सबूत उन्हें नहीं मिला है. ऐसा लग रहा है कि पुलिस इस बात का इंतजार कर रही है कि हत्यारे खुद आगे आएं और जिम्मेदारी लें, ‘हमने सारी हत्याएं की हैं, हमें गिरफ्तार किया जाए.’ इसके बावजूद भी शायद उनकी गिरफ्तारी के लिए ये सबूत काफी नहीं होगा.
मैं डरती हूं उस दिन के बारे में सोच कर कि कहीं वे मुसीबतें हरने वाली हमारी ‘देवी’ खुद हसीना पर न ही झपट पड़ें. जो भी आवाज उठाएगा उसका हश्र नील के जैसा ही होगा. पर शायद हमें खून-खराबा देखने की आदत पड़ चुकी है, इसलिए ऐसे दृश्य अब हमें झकझोरते नहीं हैं.
नील के कमरे में अब सिर्फ किताबें अौर खून बचा है. अगर आप खूब पढ़ने-लिखने वाले एक सजग किस्म के व्यक्ति हैं, विचारों की आजादी में यकीन रखते हैं, धार्मिक अंधविश्वासों और भेदभाव पर उंगली उठाते हैं तो आपका खून भी इसी तरह बहाया जाएगा. इसलिए बांग्लादेश में जिंदा रहने के लिए आपको मूर्ख होना पड़ेगा. बहुत ज्यादा बुद्धिमत्ता दिखाने से काम नहीं चलेगा. बेहतर है आप आस्थावान होकर रहें, लेकिन आस्थाहीन कतई भी न रहें. सिर्फ इंसान होना कोई विकल्प नहीं है.
किसी समय नील कुछ युवाओं द्वारा बनाए एक मानवाधिकार मंच ‘तस्लीमा समर्थक समूह’ के सदस्य हुआ करते थे. मैंने फेसबुक पर उनकी पोस्ट की गई रचनाएं पढ़ी हैं. हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, इस्लाम- इन सभी धर्मों पर उनकी आलोचनात्मक नजर रहती थी. हिंदुओं ने उन्हें नहीं मारा, न ही बौद्धों ने, न ईसाईयों ने और न ही यहूदियों ने उन पर हमला किया, सिर्फ और सिर्फ इस्लाम के कट्टर अनुयायियों ने उन्हें मार डाला. जो यह मानते हैं कि सभी धर्म समान हैं और विभिन्न पंथों व रूढ़िवादी अनुयायियों में कोई फर्क नहीं है, वे सभी जरूर गलत हैं.
बांग्लादेश के इंस्पेक्टर जनरल और गृह मंत्री ने यह घोषणा जारी की थी कि ब्लाॅगरों को अपने लेखन से जनसाधारण की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए अन्यथा उन्हें 14 वर्ष की कड़ी कैद की सजा का सामना करना पड़ेगा. देश की गठबंधन सरकार में शामिल उलेमाओं के समूह मांग कर रहे हैं कि ब्लाॅगरों को फांसी पर लटकाया जाना चाहिए, उनके ब्लाॅगों को बंद किया जाना चाहिए और उन्हें देश निकाला दे देना चाहिए. हालांकि सरकार ने ऐसा कोई प्रारूप नहीं बनाया है जिसमें धर्म के विरुद्ध लिखने पर कोई कानूनी कदम उठाया जाएं.
मैं ये जानने के लिए उत्सुक हूं कि राज्य के गुस्से को भड़काने के लिए कौन से धर्म के खिलाफ लिखा जाना चाहिए. क्या हिंदू रवायतों की आलोचना करने पर गिरफ्तारी होगी? या शायद बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की निंदा करने पर? या फिर ईसाई धर्म की आलोचना पर? हालांकि इस मुद्दे पर राज्य की स्थिति टाल-मटोल करने वाली है. आज के समय में हम सभी जानते हैं कि किसी भी धर्म के बारे में कुछ भी कहने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन इस्लाम के खिलाफ एक शब्द कहना या लिखना मात्र ही पुलिस को आपके दरवाजे पर भेज सकता है.
राज्य के पास साहस (दुस्साहस) की कोई कमी नहीं है. यहां तक कि आधिकारिक तौर पर यह घोषणा की जा सकती है कि केवल इस्लाम की आलोचना करने भर से ही आपको परेशान, प्रताड़ित, गिरफ्तार या कैद किया जा सकता है. यहां तक कि ऐसे गुनहगारों को मौत की सजा भी दी जा सकती है. इस्लामी आतंकवादियों और बांग्लादेश की सरकार के बीच फर्क करना इन दिनों कठिन होता जा रहा है. जैसा कि मैं साफ-साफ देख पा रही हूं धार्मिक कट्टरपंथी किसी को भी मार रहे हैं और सरकार उनकी कठपुतली बनकर रह गई हैै.
बांग्लादेश में आजाद सोच वाले तार्किक लोगों को मार डालने के किए एक निश्चित तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है. हत्या के बाद हत्यारे अपनी पहचान सार्वजनिक करते हैं, साथ ही उन समूहों की भी पहचान बताते हैं, जिनसे वे जुड़े हैं. हालांकि मैं यकीनी तौर पर नहीं कह सकती लेकिन मुझे लगता है कि वे अपने फोन नंबर और पता भी सार्वजनिक करते होंगे. हालांकि इन सबके बावजूद पुलिस उन्हें छू भी नहीं पाती.
पहले हत्याएं रात के सन्नाटे में सड़कों पर हुआ करती थीं लेकिन अब उनके हौसले और बढ़ गए है. अब वे दिनदहाड़े घर में घुसकर लोगों की हत्या कर रहे हैं. अब तक तो हत्यारों को जुर्म करने के बाद घटनास्थल से भाग जाने की आदत है लेकिन वह दिन दूर नहीं जब उन्हें ऐसा करने की जरूरत ही नहीं रहेगी. किसी भी किस्म के परदे की जरूरत न रहने पर वे जीत का जश्न मनाते हुए ब्लाॅगरों के घर में घुसेंगे, उन्हें मार डालेंगे और फिर निडर होकर आराम से घर से बाहर निकल जाएंगे. इसके बाद सड़क किनारे लगी चाय की किसी दुकान पर चाय पिएंगे अौर इन सब के बावजूद काेई भी उनका बाल बांका करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा. भविष्य में ऐसा ही खतरनाक समय हमारी राह देख रहा है. तब न केवल ब्लाॅगर बल्कि कोई लड़की जो बुर्का न पहने हो या कोई जोड़ा जो पार्क में हाथों में हाथ डाले बैठा हो, उन्हें पकड़कर उनके टुकड़े कर, गलियों में फैला दिया जाएगा. जो भी धार्मिक कानून व्यवस्था को नहीं मानेगा उनकी सरेआम हत्या की जाएगी. आज हमारा देश ऐसे ही घातक समय की ओर बढ़ रहा है. इतिहास में ऐसे समय को अंधयुग अथवा इस्लामी शरिया के युग के रूप में याद किया जाएगा.
हर ब्लाॅगर के पास धमकी भरा फोनकॉल आने के बाद स्थिति ये होती है कि दूसरे दर्जन भर लोग ब्लॉग लेखन बंद कर देते हैं. किसी ब्लाॅगर की हत्या के बाद सैकड़ों ब्लाॅगर अपना ब्लाॅग बंद कर देते हैं. आज के समय में बांग्लादेश का सूरत-ए-हाल यही है. इसी तरह बांग्लादेश का अल्पजीवी तर्कवादी आंदोलन और ‘तर्क का युग’ अपने अंत की ओर बढ़ रहा है. देश के कलाकारों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों अथवा तर्कवादियों में से कोई भी आगे आकर इन नास्तिक ब्लाॅगरों के समर्थन में नहीं बोल रहा है.
यह मुझे 22 वर्ष पहले की याद दिलाता है, जब मेरे समर्थन में बहुत कम लोग थे. यह एक तरह से एक औरत बनाम पूरा देश था, जिसमें असक्षम सरकार भी शामिल थी. लाखों की संख्या में कट्टरपंथी शहर में दहाड़ रहे थे और मेरे खून के प्यासे थे. उनके दबाव को रोकने की जगह मेरे ही खिलाफ केस दर्ज किया गया. उस समय आईटी अधिनियम नहीं था और दंड संहिता की धारा 295 ही किसी भी लेखक को मौत के घाट उतारने के लिए काफी थी.
केवल कुछ मुठ्ठीभर रौशनख्याल बुद्धिजीवियों ने गुप्त रूप से मुझे समर्थन दिया लेकिन इस किस्म की कायर शपथ किसी काम की नहीं थी. अगर उस समय इस्लामी कट्टरपंथियों के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन होते और सारे देश से केवल 500 लोग मेरी अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में उतर जाते तो कोई भी मेरे देश से मुझे बाहर निकालने की हिम्मत नहीं कर सकता था.
दो दशक बाद आज फिर वैसी ही स्थितियां खुद को दोहरा रही हैं. आज भी इन प्रगतिशील ब्लाॅगरों की हत्या के खिलाफ देशभर में कहीं भी प्रदर्शन होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है. सभी चूहों की तरह अपने-अपने बिलों में छिपे हुए हैं. यहां तक कि प्रबुद्ध और शिक्षितों की गिनती में आने वाले भी भूमिगत हो गए हैं. ऐसे में हैरानी नहीं कि जाहिल सरकार और भी ज्यादा जाहिल समूहों की चापलूसी में कोई कसर नहीं छोड़ रही. लोकतंत्र बांग्लादेश को छोड़ चला है, अब जो बचा है, वो है भीड़तंत्र/मूर्खतंत्र.