बच्चों की सुरक्षा और परवरिश के लिए सरकार जो कुछ भी कर रही है, वह बिल्कुल पर्याप्त नहीं है. क्योंकि पूरे देश बच्चों की हालत बहुत खराब है. बच्चों के लिए इस बार का बजट बेहद खराब रहा. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का बजट घटाकर आधा कर दिया गया. हालांकि सरकार का कहना है कि बजट कम नहीं किया गया है, बल्कि फिस्कल डिवोल्यूशन (राजकोषीय हस्तांतरण) किया गया है, जिसके तहत हर मद के लिए राज्यों को सीधे एकमुश्त रकम दिया गया है. संघीय ढांचे की मजबूती के लिए यह अच्छी बात है कि सीधे राज्यों को पैसा दिया जाए और वे उसे अपने तरीके से खर्च करें. लेकिन राज्यों में यह दिखाई नहीं दे रहा है. ऐसा नहीं हो सकता कि अचानक आप कहें कि ऐसा कीजिए और कल हो जाएगा. इसे धीरे-धीरे कई चरणों में पूरा करना चाहिए था.
बजट आवंटन के बाद असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा, केंद्र ने अचानक यह फैसला कैसे कर दिया? हमें क्या करना है, यह स्थिति साफ नहीं है. बिना स्पष्ट योजना के अचानक राज्यों पर जिम्मेदारी डाल दी गई है. भाजपा शासित राज्यों को तो सवाल नहीं उठाना था, उन्होंने नहीं उठाया, लेकिन बाकी लगभग सभी राज्यों ने इसका विरोध किया. यह विरोध जायज भी है. 2014 तक बजट में बच्चों के लिए जितना पैसा आवंटित होता था, वह भी घट गया. राष्ट्रीय बजट में बच्चों का हिस्सा कम कर देना चिंताजनक स्थिति है. एक तो बजट पहले से पर्याप्त नहीं था, दूसरे वह घट रहा है.
यह बेहद शर्मनाक स्थिति है कि हम भारत को विश्वशक्ति बनाने की बात करते हैं, मेक इन इंडिया कार्यक्रम चलाते हैं, भारत को संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता दिलाने की बात करते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा कुपोषित आबादी पर बात नहीं करते. बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं. प्रधानमंत्री जितने का चश्मा पहनते हैं, उतने में तो कितने बच्चों का पेट पल सकता है. बताते हैं कि उनका चश्मा खास किस्म का है जो गिरने या दब जाने से टूटता नहीं. वह बहुत महंगा है.
बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित हो, इसके लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि इसके लिए पैसा हो. यही नहीं पैसे देने के बाद यह भी निगरानी रखनी होगी कि उससे फायदा कितना होता है
हालांकि, हमारे देश में जो नीति है वह और देशों से काफी आगे है. बहुत कम देश हैं जहां पर बच्चों के लिए अलग से बजट का प्रावधान है. पंचवर्षीय योजनाओं में भी बच्चों और महिलाओं पर अलग से प्रावधान होता है. लेकिन आज आप जाकर मंत्रालय में पूछ लीजिए तो उनको ही इस बारे में नहीं पता. बच्चों के लिए क्या-क्या योजनाएं चल रही हैं, क्या प्रावधान थे, क्या नए प्रावधान रखे गए हैं, उन्हें कुछ नहीं मालूम रहता. सरकार और मंत्रालयों के पास इंस्टीट्यूशनल मेमोरी की कमी है. जो उन्हें जानना चाहिए, यह गैर-सरकारी संस्थाएं तो जानती हैं, लेकिन मंत्रालयों को उसके बारे में कुछ नहीं पता. यह दुखद है.
पिछली सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधिकारियों ने गौर किया कि बच्चों की सुरक्षा के लिए जो बजट है, वह तब के लिए है, जब वे असुरक्षा में जा चुके होते हैं. होना यह चाहिए कि वे पहले से ही सुरक्षित जोन में रहें. इसलिए इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम (आईसीपीएस) लाई गई. चूंकि अब नई सरकार में मंत्री- अफसर सब बदल गए हैं तो उनको इसका इतिहास ही नहीं मालूम. उन्हें यह ध्यान देना चाहिए कि यह कार्यक्रम क्यों चलाया गया था. यह कार्यक्रम लागू होने के बाद हमें लगता था कि इससे बच्चों की समुचित निगरानी हो सकेगी. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. सारी योजनाएं कागजी कार्रवाई बनकर रह गई हैं. सरकार को आंतरिक समीक्षा करवानी चाहिए और उस हिसाब से फैसले लेने चाहिए.
बजट घटा देने और नई व्यवस्थाएं लागू करने की वजह से अभी बहुत उथल-पुथल की स्थिति है. यही नहीं पता है कि किसी मसले पर जिम्मेदारी किसकी है. केंद्र सरकार कहती है कि हमने राज्यों को सीधे पैसा दे दिया गया, लेकिन राज्य अपनी प्राथमिकता अपने हिसाब से तय करेंगे. ज्यादातर राज्यों के पास पैसे की कमी है. ऐसे में जाहिर है कि बच्चों पर गाज गिरेगी.
बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित हो, इसके लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि इसके लिए पैसा हो. पैसा होगा तभी ढांचा विकसित होगा. पैसे ही संसाधन, संस्थाएं, ट्रेनिंग, मॉनीटरिंग आदि की उचित व्यवस्था हो सकेगी. दूसरी अहम बात है ये है कि सिर्फ पैसा जारी कर देने भर से भी बात नहीं बनती. वह बंदरबांट में चला जाता है. पैसे देने के बाद यह भी निगरानी रखनी होगी कि उससे फायदा कितना होता है.
फिलहाल हालात चिंताजनक हैं. हमारी चमक-दमक तो बढ़ रही है, लेकिन अंदर से बुरी स्थिति है. सिर्फ ‘चेहरे’ पर ‘मुखौटे’ लगाने से बात नहीं बनेगी. चेहरे चमकदार होने के साथ-साथ पूरे बदन की देखभाल करनी होती है. सरकार को ‘चेहरे’ और ‘बदन’ में सामंजस्य बनाने की कोशिश करनी चाहिए.
(लेखिका हक-सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की सह-निदेशक हैं)