डॉ. आशा अर्पित
आजकल धर्मनगरी हरिद्वार कांवड़ियों से अटी पड़ी है। स्थानीय लोगों का अनुमान है कि कांवड़ यात्रा के पहले दिन ही दो लाख कांवड़िये हरिद्वार आये। यह सिलसिला लगातार जारी है। और तो और पिछले वर्षों से महिला कांवड़ियों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है और कई छोटे बच्चे भी कांवड़ यात्रा का हिस्सा बन रहे हैं। कांवड़ियों की राह आसान नहीं होती। ग़रीबी, लाचारी, मजबूरी आदि इस यात्रा के कई पहलू हैं। नशा करने वाले कांवड़ियों की संख्या अधिक है। गांजा, सुल्फा ज़्यादा चलता है। हर कांवड़िया मानता है कि शिव भोले हैं और उनकी हर मनोकामना पूर्ण करते हैं। अज्ञानतावश नशे का चलन है। महादेव के बारे में शास्त्रीय ज्ञान शून्य है। कोई-कोई सोशल मीडिया के ज्ञान को रिपीट करता है कि सबसे पहले किस-किस ने कांवड़ उठायी थी? हालाँकि कांवड़ यात्रा के दौरान हरिद्वार में कई जगह लंगर चलते हैं। लेकिन लाखों की संख्या है। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि शौच, नहाना-धोना बड़ी समस्या है, जिसके चलते गंदगी भी फैलती है। लेकिन यह ऐसा तबक़ा है, जिसे अच्छे तरीक़े से शिक्षित करके देश के विकास की मुख्यधारा में लाया जा सकता है।
दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से कांवड़ियों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है। शृंगार की हुई कांवड़ में 10-20 लीटर से लेकर 100 लीटर तक गंगाजल भरकर सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करते हैं। महिलाओं के लिए यह यात्रा काफ़ी कठिन होती है। कई महिलाएँ बताती हैं कि उनकी टाँगें सूज गयी हैं, चलने में दिक़्क़त होती है। वहीं पुरुष कांवड़िये अपनी इस यात्रा को आसान बनाने के लिए नशे का सेवन करते हैं। उसमें भी ख़ासतौर पर गांजा और सुल्फा बीड़ी और सिगरेट में भरकर पीते हैं। कांवड़ के नियमों का पालन करने का ध्यान रखते हैं। जैसे- खाने-पीने के बाद नहाना, सोने के बाद नहाना और विश्राम करने के बाद नहाना। तभी ये गंगाजल को हाथ लगाते हैं; ऐसी उनकी मान्यता है।
नीलकंठ से गंगाजल भरकर आ रहे नज़फ़गढ़ के आकाश भारद्वाज ने बताया कि उसे 300 किलोमीटर का सफ़र तय करके घर पहुँचना है। उसका कहना है कि जो आगे-पीछे नशा नहीं करता, वह सावन में ज़रूर करता है। इसका कारण उसने यह बताया कि नीलकंठ की चढ़ाई- उतराई में ही पैर जवाब दे जाते हैं, तो 300 किलोमीटर कैसे चला जाएगा? इसलिए ज़्यादातर कांवड़िये नशा करते हैं। वह बताता है कि गांजा माफ़ है, क्योंकि इसे भोले का महाप्रसाद माना गया है। इसके अलावा और कोई नशा नहीं किया जा सकता है। उससे कांवड़ ख़राब हो जाएगी। सोहनलाल भी 12 साल से कोई नशा नहीं करते और पवित्रता के साथ कांवड़ उठाकर चलते हैं। 220 किलोमीटर उन्हें जाना है। रोज़ 30 किलोमीटर का सफ़र पैदल तय करते हैं।
दिल्ली के प्रवीण उन कांवड़ियों को संदेश देते हैं कि जो भोले शंकर के नाम से नशा करते हैं, उनको अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि शिव शंकर ने तो लोक-कल्याण के लिए ज़हर पिया था और उसे अपने कंठ में रखा था। क्योंकि शरीर की गर्मी के लिए वह धतूरे का सेवन करते थे, ताकि शरीर ठंडा रहे। क्या हम जैसे लोग दूसरों के भले के लिए ज़हर पी सकते हैं? उनके इसी वाक्य में कावड़ यात्रा का संदेश स्पष्ट हो जाता है। वह मानते हैं कि हमारी सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं, जब पवित्रता के साथ कांवड़ उठाकर हम भोले का जलाभिषेक करते हैं। दिल्ली के नरेला के चंदन कहते हैं कि हम सच्चे मन से अपने गुरु बनवारी लाल के साथ कांवड़ उठाने आते हैं। पहले हम भी नशा करते थे; लेकिन पिछले छ: साल से जबसे कांवड़ उठानी शुरू की, तबसे नशे को हाथ नहीं लगाया। इससे हमारी मनोकामनाएँ पूरी हो रही है। घर वालों की शिक्षा और संस्कार बहुत ज़रूरी हैं। उनका कहना है कि शिव जी ने किसी कारण से नशे का सेवन किया था। हमें तो उन्होंने नहीं कहा कि आप भी नशा करो। बुलंद शहर के साबितगढ़ के बनवारी लाल जूना अखाड़ा के आचार्य स्वामी अवधेशानंद के शिष्य हैं। उन्होंने बताया कि गुरु जी ने हमें अच्छी शिक्षा दी है। हम शिव-भक्त हैं। हमारे में कोई भेदभाव नहीं है। भाईचारा है। 23 साल हो गये उन्हें कांवड़ उठाते हुए और उनके साथ 1,500 कांवड़िये जुड़े हुए हैं, जो पवित्रता से सभी नियमों का पालन करते हैं। गुरु परंपरा के हिसाब से सभी इकट्ठे रहते हैं। उनका कहना है कि बच्चों को संस्कार घर से ही मिलते हैं। नशा करने वालों को शिक्षा और संस्कार घर से नहीं मिले। धर्म की शिक्षा भी नहीं मिली। आज के बच्चे अध्यात्म की तरफ़ आ ही नहीं रहे। धर्म के प्रति जागरूकता ज़रूरी है कि धर्म क्या है? यह ज्ञान उन्हें मिलना चाहिए। जब तक हमारा युवा मज़बूत नहीं होगा, तब तक देश आगे नहीं बढ़ सकता।