आपने दिल्ली के यमुना हेड (आगरा नहर) से अपनी यात्रा शुरू की और कोलकाता तक गए. डोंगी से पूरी की गई इस यात्रा के दौरान आप चंबल भी गए? इस अनोखी यात्रा के बारे में बताएं?
दिल्ली से आगरा नहर के जरिए मैंने अपनी यात्रा आगे बढ़ाई. धौलपुर से हम चंबल नदी में प्रवेश कर गए. चंबल में हमारी यात्रा के पांच से छह दिन गुजरे. इसके बाद हम पंचनद पहुंचे. यहां पांच नदियां (यमुना, चंबल, कुंआरी, सिंध और पहुज) मिलती हैं. यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के जगम्मनपुर का इलाका है जहां इन नदियों का संगम होता है. इसके बाद शेरगढ़, मूसानगर, फतेहपुर, बांदा, कौशांबी, इलाहाबाद पहुंचे. यहां यमुना गंगा में मिलती है. इलाहाबाद से बढ़ने पर अरैल, फिर तमसा नदी मिलती है. फिर विंध्याचल, चुनार से बनारस, गाजीपुर, जमनिया, बक्सर से आगे बलिया (बैरिया घाट). आगे चिरांध में गंगा से दो और नदियां मिलती हैं- सोन और घाघरा. फिर थोड़ा आगे जाकर गंडकी मिलती है और गंगा यहां बहुत विकराल हो जाती है. आगे चलकर गंगा में एक और बड़ी नदी मिलती है- कोसी. पटना, मोकामा, मुंगेर, भागलपुर, साहेबगंज, फरक्का, ब्रह्मपुर, बर्द्घमान होते हुए कोलकाता पहुंचे.
यात्रा के दौरान क्या कभी लगा कि अब आगे बढ़ना संभव नहीं होगा?
ऐसा तो यात्रा के कदम-कदम पर महसूस होता रहा. दिल्ली से शुरू किया तो यमुना में पानी ही नहीं था. चंबल नदी में घुसे तो लोगों ने कई बार चेताया कि आप कहां जाएंगे? यहां तो कदम-कदम पर खतरनाक डाकू मिलेंगे. मेरे साथ जो साथी दिल्ली से चले, उन्हें मैंने कहा कि आपको तैरना नहीं आता है, आप वापस चले जाइए. वे लखनऊ लौट गए. एक नए साथी ने वहां से मेरे साथ शुरुआत की तो वे इलाहाबाद तक मेरे साथ गए. नदी में जब यात्रा करने की दिशा के विपरीत हवा चलती तो बहुत परेशानी होती. मुंगेर, भागलपुर से आगे हवा की वजह से दस-दस फीट तक लहरें उठती थीं. मल्लाह गुनारी लगाते थे. रस्सी लगाकर चादर तान देते हैं अगर यात्रा की दिशा में यात्रा की जा रही है तो नाव तेजी से बढ़ती जाती है लेकिन हवा उल्टी दिशा में हो तो बहुत मुश्किल पेश होती है. पूरी यात्रा के दौरान हमेशा यह लगता रहा कि अब यहां से आगे कैसे बढ़ंे? लेकिन हम थोड़ा-थोड़ा बढ़ते रहे और यात्रा पूरी हो गई.
आपने अपनी डोंगी का नाम राहुल सांकृत्यायन के नाम पर राहुल रखा. राहुल जी की कौन-सी यात्रा का जिक्र आप करना चाहेंगे?
राहुल जी और मेरी यात्रा में बुनियादी अंतर यह है कि वे ज्ञान की खोज में निकलते थे. वे तिब्बत गए तो बहुत सारी बौद्घ-धर्म से जुड़ी पांडुलिपियां लेकर लौटे. मध्य एशिया गए तो उन्होंने दर्शन-दिग्दर्शन लिखा. उनका अनुवाद किया. अपनी हर यात्रा मैंने रोमांच और शौक के लिए की. राहुल जी ने भी कुछ यात्राएं अपने शौक व रोमांच के लिए की होंगी. हालांकि इस बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है. अबतक मैंने उनका जो भी यात्रा साहित्य पढ़ा है, उसके आधार पर यह कहा जाना ज्यादा सटीक है कि वे ज्ञान की खोज में भटकते रहे. एक ज्ञानी और घुमक्कड़ का राहुल जी दुर्लभ संयोग थे.
1975 में जब आपने यात्रा की तब फरक्का बैराज बन गया था?
हां, फरक्का बैराज उस समय बन गया था.
आपने अपनी यात्रा-वृतांत में गंगा किनारे की ठेकेदारी प्रथा का जिक्र किया है. इससे किनको दिक्कत पेश हुई?
मैंने अपनी किताब में इस बात का जिक्र किया है कि पहले नदी पार कराने के लिए डोंगियों का सहारा लिया जाता था जिसके बदले में उन्हें आसपास के गांवों के लोग साल में अनाज-पानी दे दिया करते थे. हालांकि अब भी नदी पार कराने का काम उन्हीं गरीब मल्लाहों के हाथ में है लेकिन उन्हें अब ठेकेदार के रहमोकरम पर जीना
पड़ता है. यह नुकसान कमोबेश गंगा के हर छोटे-बड़े घाट पर हुआ है.
गंगा के अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग तरह के प्रतिबंध घोषित किए गए हैं. मिसाल के तौर पर भागलपुर में ‘डॉल्फिन संरक्षित क्षेत्र’ घोषित किया गया है?
मैं जब 1976 में इस इलाके से गुजरा था तब इस तरह के प्रतिबंध जैसी कोई बात नहीं थी. डॉल्फिन संरक्षित क्षेत्र आदि की घटना बहुत बाद की है. हां, यह जरूर है कि उस समय चंबल नदी में मगरमच्छ संरक्षित क्षेत्र विकसित करने के प्रयास शुरू हो गए थे.
फरक्का बैराज गंगा नदी पर बना और उससे बिजली भी मिलने लगी. लेकिन गंगा नदी पर उसका कितना असर पड़ा?
मैं नदी के बारे में ज्यादा नहीं बता पाऊंगा. मैं उस विषय का विशेषज्ञ तो हूं नहीं. मैंने यात्रा अपने शौक से की और जितना देखा और जो महसूस किया उसे अपनी किताब में दर्ज कर दिया है.
फिर आप कभी दोबारा फरक्का वाले इलाके में नहीं गए?
नहीं, मैं कभी दोबारा नहीं जा पाया.
लोग बताते हैं और मुझे भी याद है कि मुंगेर, भागलपुर और साहेबगंज वाले इलाके में गंगा का पाट बहुत चौड़ा होता था?
हां, राजमहल वाले इलाके में गंगा अपने व्यापक रूप में थी और एक किनारे से दूसरा किनारा नहीं दिखाई देता था. मुझे लगभग चार दशक बीत गए तो इस बीच गंगा में कितना पानी बह गया कैसे बताऊं? जाहिर है बहुत से बदलाव आए होंगे.
आपने इसके अलावा और कौन-कौन सी यात्राएं की हैं?
इस यात्रा से पहले मैं साइकिल से लखनऊ से काठमांडू गया और काठमांडू से लखनऊ वापस भी आया था. उस यात्रा के अनुभव मैंने ‘पहियों के इर्द-गिर्द’ किताब में दर्ज किए. वह किताब 1976 में ही प्रकाशित हो गई थी. मैंने नेवी वालों के साथ बनारस से बलिया तक नाव से यात्रा की. डोंगी से दिल्ली से कोलकाता तक की यात्रा करने से पूर्व दो अन्य यात्राएं मैंने की.
आप किताब में जिस इलाके के बारे में लिख रहे होते हैं, वहां की भाषा का छौंका भी डालने की कोशिश करते हैं?
जहां तक अलग-अलग इलाकों की भाषा एवं बोलियों के जिक्र का सवाल है तो मैं स्कूल के दिनों से डायरी लिखने का आदी रहा हूं. जिस इलाके से गुजरता था अपने काम की बातें वहां की भाषा में लिख लेता था. मेरे मां-पिता दोनों ही पढ़े-लिखे थे. घर में किताबें बहुत थीं. मेरी भी पढ़ने में दिलचस्पी शुरू से रही. मेरे पिताजी कहते थे कि खूब घूमो. घुमक्कड़ी से ज्ञान बढ़ता है. घूमने के साथ-साथ मैं डायरी भी लिखता था, अगर डायरी नहीं लिखता होता तो शायद यह किताब भी आज नहीं होती. डायरी में नोट लेने के बाद जब लिखने बैठा तो जिस इलाके के बारे में लिख रहा होता तो उसके बारे में उस इलाके के लोगों से पूछ लेता. मैंने अगर आगरा के आसपास की भाषा में कुछ लिखा तो अमृतलाल नागर से पूछ लिया या उन्हें दिखा दिया. उनका संबंध आगरा से बहुत गहरा रहा है. मैं इस तरह की मदद उनसे तो लेता ही था और दूसरों से भी लेने में कभी संकोच नहीं करता था. अब चंबल गए तो वहां के मेरे मित्र चंदू यादव मेरे साथ हो लिए. वे उसी इलाके इटावा के थे. उनकी भाषा तो आज भी मैं अच्छे से बोल-समझ और लिख सकता हूं. अवधी मुझे आती है. बनारस में कई साल रह चुका था तो भोजपुरी मेरे लिए अंजानी नहीं थी. लेकिन जब मुंगेर और भागलपुर की तरफ बढ़ा तो अंगिका के कुछ शब्द और वाक्य मैंने नोट कर लिए जिसका उपयोग मैंने किताब में किया है. बंगाल के इलाके से गुजरा तो मैंने वहां के जरूरतभर संवाद डायरी में नोट कर लिए.
हिंदी या उससे जुड़ी भाषाओं को थोड़ा सतर्क होकर समझने की कोशिश की जाए तो एक हिंदीभाषी परिवार को दूसरे हिंदीभाषी परिवार की भाषा समझने में शायद ही बहुत मुश्किल पेश आए?
हां, लेकिन किसी भी भाषा को बोलने के तरीके को आप नहीं पकड़ पाए तो फिर आपको मुश्किल होगी और उसमें से मजा जाता रहेगा. बोलियों की जान उसकी टोन ही है. टोन ही उसकी गमक है. टोन बरकरार रखने से उन भाषाओं के बोलने वाले आपकी फीलिंग तक पहुंच पाते हैं और आपकी कही या लिखी हुई चीजों से जुड़ते हैं. हालांकि मैंने यह यात्रा-वृत्तांत पेशेवर लेखक की तरह नहीं लिखा इसलिए पाठकों के जुड़ने के बारे में कभी सोचा नहीं था. मैंने चौमासा लिखे और उसमें 50 के करीब दोहे लिखे. बुंदेलखंड के इलाके के दोहे बुंदेलखंडी में लिखे तो वहां के लोगों ने समझा मैं उसी इलाके का हूं. जब उत्तराखंड पर लिखा तो वहां के लोगों को लगा कि मैं उत्तराखंडी हूं.
आप लिखते हैं कि यात्रा करने वालों की मुश्किल यह होती है कि अपने यात्रा के साथ छूट गए बहुत सारे लोग बाद में याद आते हैं लेकिन उनसे दोबारा मिलना शायद ही संभव हो पाता है. कोई ऐसा व्यक्ति या कोई पात्र है जिनकी याद जब-तब आती है या फिर उनमें से कोई ऐसा है जिन्होंने आपको कभी याद किया हो?
मैंने यह यात्रा 1976 में की थी और 1995 में मैं मूसानगर, पुरातत्व विभाग की ओर से गया तो वहां यमुना के घाट पर पहुंचते ही ठेकेदार ने मुझे तुरंत पहचान लिया. आप देखिए कि 20 साल तक उस व्यक्ति ने एक यात्री को इस तरह याद रखा था. मैं बतौर यात्री 23 की उम्र में गया था और विभाग के काम से जब दोबारा पहुंचा तब 42-43 का हो चुका था. इस बीच शारीरिक रूप से मुझमें बहुत परिवर्तन आ गए थे. मुझे यात्रा के दौरान ऐसे बहुत सारे लोग मिले जिनके नाम आज तो याद नहीं हैं लेकिन उन्होंने मेरी जो आवभगत की और जिस गर्माहट के साथ मिले, वो आज भी मेरे भीतर एकदम ताजा है.
हम दो व्यक्ति के कुछ खास गुणों के बारे में जिस तरह बात करते हैं तो अगर आपसे कहूं कि गंगा और यमुना के बारे में बताएं तो क्या कहेंगे?
यमुना एक स्थाई नदी है. उसने जमीन को काटकर अपना बहाव सुनिश्चित कर लिया है. यमुना गहरी नदी है. गंगा अभी भी अपने को स्थिर करने में लगी हुई है इसलिए उसका पाट चौड़ा है. उसका बहाव तेज है. यमुना में अधिकांश पानी विंध्य का है. यमुना में चंबल, बेतवा, केन आदि का पानी है. गंगा में अधिकांश पानी हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से आता है.
ऐसा कोई अनुभव जो पाठकों के साथ साझा करना चाहेंगे?
आप जब इस तरह की यात्रा करते हैं तब आप प्रकृति के बहुत करीब जाते हैं और उससे जो अनुभव मिलते हैं, वह अद्वितीय होते हैं. सामान्य तौर पर आदमी बहुत आत्मकेंद्रित होता है लेकिन जब वह प्रकृति के करीब जाता है तब उसे इस बात का एहसास होता है कि वह बहुत तुच्छ है. प्रकृति बार-बार आपको यह संदेश देती है कि आप उसके बहुत छोटे से हिस्से हैं.