लखनऊ का मतलब सिर्फ नवाब नहीं बल्कि कहार और ब्रास बैंड वाले भी हैं : नदीम हसनैन

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लखनऊ पर जितनी किताबें हैं उतनी हिंदुस्तान के बहुत कम शहरों पर लिखी गई हैं. इन सबके बीच आपकी किताब किस तरह से अलग है?

दिल्ली और कलकत्ता जैसे शहरों के बारे में जो लिखा गया है उन्हंे मैंने उतनी गहराई से नहीं पढ़ा है. मगर यह काम चूंकि मैं एक रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत कर रहा था तो लखनऊ पर जो भी अहम लिखा गया है मैंने उसे पढ़ा है. यह किताब शोध का नतीजा है, कमरे में बैठकर कुछ सोचते हुए नहीं लिख दी गई. जब मैं इसकी आउटलाइन बना रहा था तब मेरे दिमाग में सबसे ज्यादा जो चीज घूम रही थी वह यह थी कि आज का जो लखनऊ है वह एक थका हुआ लखनऊ है. एक मरीज की तरह जिंदगी के लिए तरस रहा है. वह यह तो कह रहा है कि हम जो बदलाव हैं उनके साथ समझौता करने को तैयार हैं लेकिन हमारे अतीत को बिल्कुल दफन न करो. मैंने लखनऊ के बारे में इसके पहले जितना भी पढ़ा मेरे दिमाग में एक बड़ा प्रोटेस्ट जैसा होता था कि क्या लखनऊ का मतलब सिर्फ नवाब या पैलेस कल्चर या उनकी बेगमात या उनकी मुताही बीवियां या उनकी अय्याशियां या बटेरबाजियां ही हैं. क्या लखनऊ में सिर्फ यही सब था? या बहुत ज्यादा अगर कोई आगे बढ़ा तो उसने वाजिद अली शाह ने किस तरह इस शहर में एक सेकुलर कम्पोजिट कल्चर को जन्म दिया उस पर लिखा. क्या महलों के बाहर लखनऊ नहीं था? और लखनऊ था अगर तो आपने उस पर कुछ लिखने की जरूरत क्यों नहीं समझी? पैलेस कल्चर, नवाबी दौर के स्मारक, 1857 का गदर और खान-पान… इन्हीं पर ज्यादातर लिखा गया. इस वजह से दूसरी महत्वपूर्ण चीजें छूट गईं. इस किताब में उसी ‘अदर लखनऊ’ पर लिखने की कोशिश है.

तो आपके इस ‘अदर लखनऊ’ में कौन-कौन है?

बहुत सारे लोग हैं. बहुत सारी चीजें हैं जिन पर उस तरह नहीं लिखा गया जैसे लिखा जाना चाहिए था. मिसाल के तौर पर कहार मुझे हमेशा याद रहते हैं. इसलिए कि पचास के दशक में मेरी मां डोली से आती-जाती थीं. ये बहुत अहम लोग हैं. अच्छी-खासी आबादी है इनकी पर कभी कुछ नहीं लिखा गया. जो ब्रास बैंड प्लेयर है, वह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना है. उस वक्त खुद उसकी जिंदगी में कितने गम हैं जब वो दूसरे की शादी में झूम-झूमकर बैंड बजा रहा है. लखनऊ की बात करते हुए हमको इन्हें भी याद रखना होगा. जो कनमैलिए और मालिशिए यहां आज भी दिख जाते हैं, उनके बारे में भी जानने की कोशिश करनी होगी. यहां के फेरी वाले दूसरी जगहों से एकदम अलग हैं… गस्साल और गोरकन (मुर्दे को गुस्ल देने वाला और कब्र खोदने वाला) इनके बिना क्या आपका काम चल सकता है? लखनऊ के समाज में इनका क्या दखल है इस पर भी बात होनी चाहिए. ये जो तमाम लोग हैं ये भी तो लखनऊ को बनाते हैं, इनके बारे में क्यों नहीं लिखा गया? इसके अलावा कला, संस्कृति और समाज से जुड़े बहुत सारे विषयों पर लिखा गया है. इसके अलावा एक महत्वपूर्ण बात मैं ये जोड़ दूं कि लखनऊ को लेकर जो ‘मुस्लिम-नेस’ है वह हमेशा बहुत हावी रही है, जिसमें शिया सबसे ऊपर रहे हैं, शायद इसलिए कि सत्ता यहां शियाअों की रही. मेरे दिमाग में ये भी था इसलिए जब मैंने इस किताब के लिए लेखिका सैंडि्रया फ्रिटैग से लखनऊ का सांस्कृतिक इतिहास लिखने को कहा तो मैंने खास तौर पर उनसे फरमाइश की थी कि मुझे लखनऊ का राजनीतिक इतिहास नहीं चाहिए. नवाबों का सत्ता संघर्ष, षडयंत्र, वो चालबाजियां, ये सब मुझे नहीं चाहिए. मुझे यह बताइए कि लखनऊ में किस तरह के सांस्कृतिक तंत्र विकसित हुए? उसकी वजहें क्या थीं? उन्होंने एक अलग नजरिये से बहुत ही उम्दा लेख लिखा है. पिछले दस-पंद्रह साल में लखनऊ में हुए विकास को अब तक किताबों में नहीं शामिल किया गया है, जैसे दलित कल्पनाओं का जो अध्याय मैंने लिखा है वह एकदम नई चीज है.

आपकी किताब पढ़ते हुए लखनऊ पर लिखी गई दो मशहूर किताबों की याद आती है- अब्दुल शरर की गुजि्शता लखनऊ और कदीम लखनऊ की आखिरी बहार. इन पर क्या राय है?

कदीम लखनऊ की आखिरी बहार तो मेरी बेहद पसंदीदा किताब है. उसमें जाफर हुसैन साहब के जो निजी तजुर्बे और किस्से हैं वे उस किताब को बहुत समृद्ध बना देते हैं. मैंने अपनी किताब में भी कुछ निजी अनुभवों के जरिए ऐसा ही करने की कोशिश की है. पर एक रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम करते हुए इसकी गुंजाइश बहुत ज्यादा नहीं थी. हालांकि निजी अनुभवों और किस्सों को डालने से कई जगहों पर पूर्वाग्रह आ जाने अथवा तथ्यात्मक तौर पर गलत हो जाने का खतरा भी रहता है, मगर जाफर हुसैन की किताब की सबसे बड़ी खूबी ये है कि लखनऊ के समाज पर लिखते हुए वो उस सेक्टेरियन बायस (सांप्रदायिक पूर्वाग्रह) यानी शिया-सुन्नी से मुक्त रहे जिसका शिकार लखनऊ पर लिखने वाले ज्यादातर लेखक आज भी हो जाते हैं. एक बात ये कि शरर और जाफर हुसैन की किताब को एक-दूसरे के समानांतर न रखकर एक-दूसरे के साथ समझा जाना चाहिए क्योंकि शरर जाफर हुसैन से पहले की बात कर रहे हैं. अगर ऐसा करेंगे तो पूरे सौ-डेढ़ सौ बरस की चीजें हमको मिल जाती हैं. तो पहले शरर को पढ़ना चाहिए और फिर जाफर हुसैन को.

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लखनऊ में हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियां इस तरह घुलमिल गईं कि एक नई संस्कृति बनी जो न मुस्लिम है, न हिंदू. ये दोनों जहां मिलते हैं लखनवियत वहां से शुरू होती है. मगर लखनऊ पर लिखते वक्त एक चुनौती हमेशा रहती है कि उच्च वर्गीय मुस्लिम कल्चर या उसमें भी शिया कल्चर इतना उभरकर आता है कि बाकी चीजें दब जाती हैं. आपने इसे कैसे देखा?

ये बात सही है. इसलिए कि पुराने लिखने वालों की जो ‘मुस्लिमनेस’ थी वो ज्यादा थी या शायद उस जमाने में वो कल्चर सत्ता की वजह से ज्यादा प्रभावी भी था. खास तौर पर शियाओं की दुनिया में अवध को एक केंद्रीयता हासिल थी. तो लिखने वाला इस बात से एकदम बाहर नहीं निकल सकता था. मैं इसलिए लिख पाया कि हमारे वक्त के लोग शायद उस जादू से निकल चुके थे या उनके दौर में वो जादू नहीं बचा था. हमारी सोच भी पहले वालों से अलग थी. तब हाशिये के लोगों पर लिखने का रिवाज ही नहीं था. तो हमारी या हमसे बाद की पीढ़ी ने लखनऊ को उस वक्त देखा जब लखनऊ बिल्कुल बदल चुका था. इस दौर में लखनऊ की मुस्लिमनेस बहुत हद तक हल्की हो गई थी और एक नया का लखनऊ आ चुका था जिसमें पुराने दौर के लखनऊ की निशानियां पुराने लखनऊ में ही सिमट गई थीं. जैसा हैदराबाद में हुआ. लखनऊ के मामले में फर्क यह है कि यहां का नॉस्टेल्जिया हैदराबाद या दिल्ली से काफी मजबूत है. उसकी कई वजहें हो सकती हैं. दिल्ली तो कल्चरल एम्नीशिया (सांस्कृतिक भुलक्कड़ी) का शहर हो चुका है. वो अपने पुराने वैभव के बारे में सबकुछ भूल चुका है. अब एक बिजनेस की तरह उसे हैरिटेज वॉक वगैरह करके बाजार की मदद से रिवाइव किया जा रहा है. लखनऊ में अब भी हालात उतने खराब नहीं हुए हैं.

अगर हम चाह भी लें तो क्या संस्कृति को बदलने से रोका जा सकता है?

नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. बदलाव नहीं रोका जा सकता. सांस्कृतिक बदलाव तो होगा ही. आप यूं समझिए कि हम नई चीजों को अपना रहे हैं. नई संस्कृति, नया फैशन मगर उसके साथ ही हम अपने अतीत की अहमियत भी समझ रहे हैं, दूसरों को समझा रहे हैं. बीच-बीच में हम रिवायती चीजों पर भी तवज्जो दे रहे हैं. तो इस तरह से सांस्कृतिक ह्रास को कम किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए हमें बहुत प्रतिबद्धता और संजीदगी से काम करना होगा.

इस तरह के रिवाइवल में एक खतरा ये रहता है कि हम अतीत की बहुत-सी बुराइयों या बेकार चीजों को भी महिमामंडित करने लगते हैं, हो सकता है कि नवाबी दौर में वो उपयोगी रही हों मगर आधुनिक समाज में उनका महिमामंडन कैसे किया जा सकता है?

ये बिल्कुल सही बात है. ये बहुत बड़ी मगर बहुत आम समस्या है. ये समस्या उन लोगों के साथ आती है जो किसी शहर को सिर्फ उसकी सामंती विरासत से जोड़कर देखते हैं. अच्छे-बुरे का चुनाव करना नहीं जानते. हैं. ये शहर को समग्रता में नहीं देख पाते. लखनऊ का दुर्भाग्य यही है. इसमें मैं सबसे ज्यादा दोष लेखकों को ही देता हूं. वे लखनऊ के कोठों, मुर्गबाजी, बेशुमार निकाहों को महिमामंडित कर रहे, इसके दूसरे पक्ष पर कुछ नहीं लिख रहे. इससे ये चीजें नई पीढ़ी के दिमाग में और मजबूत होती हैं. वो समझता है सिर्फ यही लखनऊ है. अरे कुछ और भी तो लखनऊ था न, मैंने उसी लखनऊ पर लिखने की कोशिश की है.