एक राजनीतिक परिवार से होने के बावजूद अभिनय का ख्याल कब आया?
मैं बिहार के मुजफ्फरपुर शहर से हूं. मैं ऐसे परिवार से हूं जिसने एक ही काम सीखा है और वो है पढ़ाई-लिखाई. मैंने दिल्ली में रहकर पढ़ाई की है. मैं एक अच्छी स्टूडेंट रही हूं और एमबीए किया है. कॉलेज के समय में थियेटर करने के दौरान ही मुझे लगा कि अभिनय ही करना है. मेरे परिवार का कला और संगीत से दूर-दूर तक नाता नहीं रहा है. हमारे यहां ये परंपरा रही है कि हमने आपको पढ़ा दिया है. इसके आगे की जिम्मेदारी आपकी है कि आप जो करना चाहें, जैसे चाहें, कर सकते हैं. परिवार की ओर से ऐसा कोई बंधन नहीं था कि तुम ये नहीं कर सकती, वो नहीं कर सकती. इसलिए पढ़ाई-लिखाई के बाद मैंने अभिनय को बतौर करियर चुना क्योंकि मुझे लगता है कि ये एक ऐसा पेशा है जो आपको कई जिंदगियां जीने का मौका देता है. बाकी आप अगर डॉक्टर या इंजीनियर बनते हो तो ताउम्र उसी भूमिका में होते हो.
राजनीतिक घरानों से तमाम लोग फिल्मों में अभिनय की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन ऐसे घरानों से आए लोगों में से कुछ को ही इस डगर पर सफलता मिल पाती है. आपका क्या ख्याल है?
मेरे परिवार से तमाम लोग राजनीति में हैं फिर भी बॉलीवुड में कदम रखने के लिए परिवार से मुझे कोई खास मदद नहीं मिली. यहां तक पहुंचने का मेरा संघर्ष खुद का है जो आज भी जारी है. हालांकि मैं ये भी कहूंगी कि ये संघर्ष ऐसा भी नहीं रहा कि मुंबई में मुझे कभी खाने या फिर रहने की दिक्कत हुई हो. जहां तक राजनीतिक परिवारों से आने वाले कलाकारों के इंडस्ट्री में स्थापित न हो पाने की बात है तो मुझे लगता है कि ये राजनीतिक परिवार से आने का मसला नहीं है. जो भी कलाकार यहां (इंडस्ट्री से) के नहीं हैं उन्हें इस तरह की दिक्कत पेश आती ही है. बॉलीवुड में एक फिल्म बनती है तो या तो स्थापित कलाकारों को लिया जाता है या फिर उन लोगों को जो फिल्म में पैसा लगाते हैं. मतलब ये पूरी दुनिया लेन-देन पर चल रही है.’
रेखा की फिल्म ‘सुपर नानी’ के तकरीबन दो साल बाद आपकी फिल्म ‘लाल रंग’ रिलीज हुई है. कोई खास वजह?
जो भी आप काम करते हो उसके पीछे एक प्रेरणा होती है. बीच में मां का निधन हो जाने के बाद लगा था कि अब ये काम किसके लिए करूंगी. ऐसा लग रहा था कि अब फिल्मों से वैसा जुड़ाव नहीं रख पाऊंगी. इसलिए कुछ दिनों तक इंडस्ट्री से दूर रही लेकिन ऐसा भी नहीं था कि पूरी तरह से गायब थी. बीच में रेखा जी के साथ फिल्म ‘सुपर नानी’ करने के बाद टीवी के लिए काम किया. पिछले साल ही रबींद्रनाथ टैगोर की कहानियों पर आधारित और अनुराग कश्यप के निर्देशन में बने टीवी सीरियल ‘दुई बोन’ (दो बहन) में काम किया. यशराज फिल्म्स की टीवी सीरीज ‘पावडर’ में भी अभिनय किया. इसके अलावा तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘यारा’ इसी साल रिलीज होने वाली है. ये विद्युत जामवाल, श्रुति हसन और अमित साध की फिल्म है. इसमें मैं अमित के अपोजिट कास्ट की गई हूं. हालांकि इस फिल्म में लड़कियों का कोई खास रोल नहीं था, लेकिन तिग्मांशु सर ने बोला कि मुझे इसमें काम करना चाहिए इसलिए मैंने काम किया और फिर मुझे फिल्म ‘लाल रंग’ मिल गई. ‘लाल रंग’ में मेरा किरदार रणदीप हुडा और अमित ओबरॉय की मदद खून की तस्करी करने में करता है.
2009 में फिल्म ‘एक दस्तक’ से बॉलीवुड में दस्तक देने के बाद अभी भी फिल्मों में आप छोटे किरदारों में ही नजर आती हैं?
फिल्म ‘एक दस्तक’ में मेरा लीड किरदार था. इसके अलावा जो भी रोल मुझे मिला मैंने उसे पूरी ईमानदारी से निभाया है, इस बात की परवाह किए बगैर कि वे छोटे किरदार हैं या फिर बड़े. मुझे लगता है कि हम जैसे लोग जो ऑडिशन से आते हैं उन्हें भी बड़े और अच्छे रोल मिलने चाहिए. मैंने अलग-अलग तरह का अभिनय किया है. ‘लाल रंग’ में भी मेरा किरदार काफी मजेदार और प्रभाव छोड़ने वाला है, पर अभी उस तरह का मामला नहीं बन पाया है कि मुझे और अच्छे किरदार मिल सकें. अभी अभिनय में बहुत विकल्प नहीं मिल रहे हैं तो अभी असली लड़ाई इसी बात को लेकर है कि मुझे अच्छे किरदार मिलें और मैं अच्छा परफॉर्म कर सकूं.
बीते दिनों आपने बॉलीवुड के बिजनेस मॉडल पर एक रिपोर्ट भी लिखी है? क्या सौ करोड़ क्लब का मॉडल बॉलीवुड और इसके दर्शकों के लिए ठीक है?
देश में शिक्षा का मॉडल आपको पता है. इसके हिसाब से आप परीक्षा देते हो और पास होकर अगली कक्षा में चले जाते हो, लेकिन बॉलीवुड में ऐसा नहीं है. इंडस्ट्री में पढ़ाई, प्रतिभा या अच्छी फिल्में महत्व नहीं रखती हैं. महाराष्ट्र में सरकार ने 45 प्रतिशत का मनोरंजन कर लगा रखा है. जैसे सौ रुपये किसी फिल्म का टिकट है तो सरकार पहले ही कर के रूप में 45 रुपये ले लेती है. कुछ पैसे डिस्ट्रीब्यूटर और मल्टीप्लेक्स वालों में बंट जाते हैं. कुल मिलाकर 100 रुपये में से तकरीबन 27 रुपये ही प्रोड्यूसर तक पहुंच पाते हैं. ऐसे में जब सौ करोड़ की फिल्म वो बनाएगा तभी वह मुनाफे के बारे में सोच सकता है. छोटी फिल्मों के साथ कमाई की बात आप सोच भी नहीं सकते. ये सारा खेल पैसों का हो चला है.
‘आजकल ये हमारी मजबूरी हो गई कि हम शरीर को फिट रखें, डिजाइनर कपड़े पहनें, बाल खास तरह से बनाएं और लिपस्टिक के शेड तक का ध्यान रखें ताकि मीडिया हमें तवज्जो दे’
आपने माधुरी दीक्षित और जूही चावला अभिनीत ‘गुलाब गैंग’ का गाना ‘लाज शरम’ भी लिखा है. इसकी क्या कहानी है?
फिल्म ‘गुलाब गैंग’ के निर्देशक सौमिक सेन मेरे अच्छे मित्र हैं. उन्होंने मुझसे बोला था कि वे एक महिला केंद्रित फिल्म बना रहे हैं और इसके लिए एक गाना चाहते हैं जिसमें महिलाएं अपने कर्तव्य और जिंदगी को सेलिब्रेट करती नजर आएं. बोल आसान हों ताकि आम लोगों को भी समझ में आ जाएं. उस समय मुझे फिल्म का नाम तक नहीं मालूम था. मैं लिखती-पढ़ती भी रहती हूं. मैंने कविताएं भी लिखी हैं इसलिए उन्होंने ऐसा कहा था. तब मैंने उनसे कहा कि गाने का तो पता नहीं क्योंकि मैंने गाना नहीं लिखा लेकिन मैं एक कविता लिख सकती हूं. ये कविता ही ‘लाज शरम’ थी जिसे फिल्म में गाने के रूप में शामिल किया गया. मुझे इस बात की भी खुशी है कि ये गाना माधुरी दीक्षित पर फिल्माया गया है.
आप सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेती हैं. कई विज्ञापनों में नजर आ चुकी हैं और फिल्मों से जुड़ी रिपोर्टिंग भी करती रहती हैं. इतने अलग-अलग माध्यमों के काम में कैसे तालमेल बिठा पाती हैं? क्या आपको नहीं लगता कि किसी एक माध्यम पर आपको अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए?
मुझे ये देखकर दुख होता है कि इतनी इंटेलीजेंट अभिनेत्रियों का इस्तेमाल डिजाइनर कपड़े बेचने और फैशन के टूल के तौर पर किया जा रहा है जबकि वे और भी बहुत कुछ कर सकती हैं. ये हमारी मजबूरी हो गई कि हम शरीर को फिट रखें, डिजाइनर कपड़े पहनें, बाल खास तरह से बनाएं और लिपस्टिक के शेड तक का ध्यान रखें ताकि मीडिया हमें तवज्जो दे. डिजाइनर कपड़े पहनकर फोटो शूट कराने में मेरी कभी भी रुचि नहीं रही. अगर मैं इन चीजों पर ध्यान दूं तो मैं विकसित नहीं हो पाऊंगी और मेरा सारा समय इन्हीं सब कामों में निकल जाएगा, इसलिए मैं समय निकालती हूं ताकि कुछ लिख सकूं, कुछ पढ़ सकूं, सामाजिक कार्यों में शामिल हो सकूं और समाज को कुछ देकर जा सकूं. जहां तक ध्यान केंद्रित करने की बात है तो अब भी अभिनय मेरी प्राथमिकता है, लेकिन बतौर इंसान हमारी दूसरी भी जिम्मेदारियां होती हैं.