हिंदू-मुस्लिम डिबेट फिक्स?

– पूरी तरह सुनियोजित होती हैं टीवी चैनलों की डिबेट्स!

इंट्रो- कुछ वर्षों से टीवी चैनलों की टीआरपी भले ही बढ़ी हो; लेकिन कई बड़े पत्रकारों की न सिर्फ़ इज़्ज़त कम हुई है, बल्कि उन्हें ज़्यादातर लोग गोदी पत्रकार और चैनलों को गोदी मीडिया कहने लगे हैं। हालाँकि इसके पीछे का फ़र्ज़ीवाड़ा भी कई बार सामने आ चुका है। लेकिन चैनल और उनमें काम करने वाले पत्रकार टीआरपी के लिए बड़ी बेशर्मी से किसी भी हद से गुज़रने को तैयार रहते हैं। इन चैनलों ने ख़बरें दिखाने की जगह ख़बरों और मुद्दों को टीवी पर ज़्यादातर समय बहस (डिबेट) का हिस्सा बना दिया है। लेकिन इनके द्वारा लगातार आयोजित इन बहसों में समाज में नफ़रत, अज्ञान फैलाने और सच छिपाने का षड्यंत्र होता है, जिसके पीछे टीआरपी बढ़ाकर पैसा कमाने का खेल होता है। ‘तहलका’ ने अपनी इस पड़ताल में पता लगाया है कि कैसे हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसें अक्सर राजनीतिक एजेंडे, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा और वित्तीय लाभ के लालच से प्रेरित होकर लिखी और मंचित की जाती हैं। पढ़िए, तहलका एसआईटी की यह पड़ताल :-


‘एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार चैनल के समाचार निर्देशक ने एक बार मुझे टीवी पर बहस के लिए बुलाया। और क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ; उन्होंने मुझसे उस रात प्रसारित होने वाले अपने शो (डिबेट – बहस) में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस का समर्थन करने को कहा, ताकि साप्ताहिक दर्शकों की संख्या और टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स (टीआरपी) में बढ़ोतरी हो सके। मैंने मना कर दिया।’ – जावेद-उल हसन क़ासमी (बदला हुआ नाम) ने ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर को बताया।

‘एक अन्य अवसर पर मैं एक अलग शीर्ष समाचार चैनल के लिए एक बहस पैनल में था। शो के दौरान चैनल के प्रमुख सितारों में से एक एंकर ने मुझे और मेरे हिंदू सह-पैनलिस्ट को प्रभाव पैदा करने के लिए एक-दूसरे पर चिल्लाना शुरू करने के लिए कहा। हम दोनों ने मना कर दिया।’ -जावेद ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया।

‘मैं पिछले 12 वर्षों से लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रीय समाचार टीवी चैनलों पर वाद-विवाद कार्यक्रमों में भाग लेता रहा हूँ। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि इन बहसों का प्रबंधन कैसे किया जाता है। अगर हम चैनल की इच्छा के अनुसार काम करते हैं, तो हमें अच्छा भुगतान किया जाता है।’ -शादाब अली (बदला हुआ नाम) ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया।

‘एक मुसलमान होने के नाते अगर चैनल कहता है, तो मुझे ऑन-एयर साथी मुस्लिम पैनलिस्टों पर हमला करने में कोई समस्या नहीं है। ये बहसें पहले से लिखी होती हैं।’ -शादाब ने आगे रिपोर्टर को बताया।

‘मेरा मित्र, जो एक मौलवी है; वर्षों से राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर हिंदू-मुस्लिम बहसों का नियमित चेहरा रहा है। इन्हीं वाद-विवादों से उन्हें सारी संपत्ति- पैसा, दिल्ली में दो मकान और यहाँ तक कि सरकारी नौकरी भी मिली। यह उनके टीवी कार्यक्रमों के कारण ही था कि एक राजनीतिक दल ने लोकसभा चुनाव के दौरान उनसे संपर्क किया और उन्हें अच्छा पैसा दिया।’ -मुश्ताक़ ख़ान (बदला हुआ नाम) ने ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर को बताया।

हाल के वर्षों में लगभग सभी समाचार चैनलों पर हिंदू-मुस्लिम बहसों (डिबेट्स) में तेज़ी से वृद्धि हुई है। यह प्रवृत्ति मौज़ूदा केंद्र सरकार के 11 वर्ष पूरे होने पर भी जारी हैं। शाम 5:00 बजे से रात 11:00 बजे के बीच किसी भी समाचार चैनल पर नज़र डालें, तो आप दो समुदायों (हिन्दू-मुस्लिम) के धार्मिक नेताओं को टीवी स्टूडियो में एक-दूसरे पर चिल्लाते हुए देखेंगे। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस प्रवृत्ति का उद्देश्य हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को मज़बूत करना है, जबकि समाचार चैनल टीआरपी में बढ़ोतरी का लाभ ले रहे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में ये हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसें विषाक्त हो गयी हैं। टीवी चैनलों पर आने वाली ख़बरें, जिन पर कभी चर्चा हुआ करती थी; अब उन्हें लेकर सड़कों पर झगड़े होने लगे हैं। पूरे भारत में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ टीवी पैनलिस्टों के बीच भी लाइव प्रसारण के दौरान थप्पड़ और लात-घूँसे चल चुके हैं। अब केवल धार्मिक नेताओं के बीच ही पर्दे पर टकराव नहीं रह गया है, बल्कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के बीच भी मारपीट होने लगी है। ज़ी न्यूज़ द्वारा आयोजित एक बहस के दौरान भाजपा के गौरव भाटिया और समाजवादी पार्टी के अनुराग भदौरिया एक-दूसरे को धक्का देते देखे गये।

2020 में कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी की दु:खद मौत को कौन भूल सकता है? 52 वर्षीय त्यागी को आजतक टीवी चैनल पर दिवंगत रोहित सरदाना द्वारा आयोजित वाद-विवाद कार्यक्रम ‘दंगल’ में आने के कुछ ही देर बाद दिल का दौरा पड़ा था। बहस के दौरान त्यागी स्पष्ट रूप से असहज दिखायी दिये; वह बेचैन हो गये और फिर हाँफने लगे। शो के आधे घंटे के भीतर ही उनकी मौत हो गयी। हालाँकि 12 अगस्त, 2020 को हुई बहस से हृदयाघात को जोड़ने के लिए कोई चिकित्सीय साक्ष्य नहीं है। लेकिन इस घटना ने इन आक्रामक प्रारूपों के प्रतिभागियों पर पड़ने वाले भावनात्मक प्रभाव के बारे में गंभीर सवाल उठाये हैं।

पूर्व सांसद और वरिष्ठ आरएसएस नेता प्रोफेसर राकेश सिन्हा एक बार तब सुर्ख़ियों में आये थे, जब उन्होंने ख़ुलासा किया था कि एक प्रमुख समाचार चैनल के एंकर ने उन्हें टेलीविजन पर बहस के दौरान एक मुस्लिम व्यक्ति के ख़िलाफ़ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने के लिए कहा था। सिन्हा के अनुसार, एंकर ने सुझाव दिया था कि मुस्लिम पैनलिस्ट की दाढ़ी और टोपी का मज़ाक़ उड़ाने से बहस हिट हो जाएगी। इसके बाद सिन्हा ने उस चैनल पर आना बंद कर दिया।

‘तहलका’ से बात करते हुए कई पैनलिस्टों ने बताया कि वे टीवी बहसों की विषाक्त संस्कृति के कारण तनावग्रस्त और अपमानित महसूस कर रहे हैं। आगरा के प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान और कभी समाचार पैनल पर नियमित अतिथि रहे रियासत अली ने इन बहसों में भाग लेना पूरी तरह बंद कर दिया है और कहा है कि ये बहसें विषाक्त और अपमानजनक हैं। आगरा के ही मौलाना उज़ैर आलम ने भी इसी तरह की भावना व्यक्त की। टेलीविजन चैनलों पर लंबे समय से बहसों को शोरगुल में बदलने के लिए आलोचना की जाती रही है। इन टीवी शो में गरमागरम बहस, गाली-गलौज और यहाँ तक कि हाथापाई भी आम बात हो गयी है। लेकिन क्या ये टकराव वास्तविक हैं या टीआरपी के लिए स्क्रिप्टेड? इसका पता लगाने के लिए ‘तहलका’ ने एक बहुप्रतीक्षित और विशेष अंडरकवर पड़ताल शुरू की, जिस पर लंबे समय से चर्चा होती रही है; लेकिन इस तरह से कभी पड़ताल नहीं की गयी।

हमारे (तहलका के) स्टिंग ऑपरेशन के एक भाग के रूप में हमने (तहलका रिपोर्टर ने) एक नये टीवी चैनल के प्रतिनिधि के रूप में ख़ुद को प्रस्तुत किया। ‘तहलका’ रिपोर्टर ने कई मुस्लिम धार्मिक नेताओं से फ़र्ज़ी प्रस्ताव लेकर संपर्क किया और दावा किया कि हमारा मित्र (काल्पनिक) एक नया टीवी चैनल शुरू कर रहा है और हमें हिंदू-मुस्लिम बहस के लिए पैनलिस्टों की आवश्यकता है। इनमें से पहली बातचीत में ‘तहलका’ रिपोर्टर ने आगरा के शादाब अली (बदला हुआ नाम) से बात की। रिपोर्टर ने उनसे खुलकर कहा कि हमारा चैनल टीआरपी के लिए कुछ भी कर सकता है। शादाब ने भरोसा दिलाया कि वह हमें (रिपोर्टर को) निराश नहीं करेंगे। निम्नलिखित बातचीत में ‘तहलका’ रिपोर्टर ने शादाब से टीवी बहसों के बारे में उनके अनुभव के बारे में पूछा। चर्चा से पता चलता है कि प्रतिभागियों को अक्सर अपनी बात रखने के लिए गहन तैयारी करनी पड़ती है और कभी-कभी ज़ोरदार, आक्रामक भाषण देना पड़ता है। शादाब ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी तत्परता का अपना परिचय देते हुए इस काम में अपनी दक्षता बताने पर ज़ोर दिया।

रिपोर्टर : अभी तक आपने किस सब्जेक्ट पर डिबेट किया हुआ है?

शादाब : मैंने बताया ना! कोई भी सब्जेक्ट हो।

रिपोर्टर : हमारे एक दोस्त का नया टीवी चैनल आ रहा है। वो मुझे कह रहे थे कि ऐसे लोग बताओ, जो टीवी डिबेट में आ सकते हैं। टीवी डिबेट में आपको मालूम ही है, क्या होता है? …चीखा-चिल्लाई।

शादाब : वो सब हमें मालूम है। आपकी दुआ से इन सब चीज़ों के आदी हो चुके हैं। बाक़ी कभी-कभी ऐसी स्थिति आती है कि टीवी डिबेट के चैनल वाले बोलते हैं, …आपको बड़ा फोर्सफुली (प्रबलता से) बात करनी है। मतलब, अपनी बात को पूरी तैयारी से रखना है। …चाहे वो विरोध में हो या पक्ष में। काफ़ी तजुर्बा है इन बातों का।

रिपोर्टर : मतलब, चीखा-चिल्लाई कर लेंगे आप टीवी डिबेट में?

शादाब : अजी साहेब! बिलकुल, सिर्फ़ चीखना-चिल्लाना नहीं, तर्क पर होती है बात; …जिस सब्जेक्ट पर डिबेट हो रही है, तो पूरी तैयारी के साथ बैठते हैं।

इस ख़ुलासे वाली बातचीत में ‘तहलका’ रिपोर्टर ने एक संदेहयुक्त अनुरोध करते हुए शादाब से कहा कि वह चैनल के एजेंडे के आधार पर भाजपा या कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों की आलोचना करें। शादाब ने आत्मविश्वास के साथ शान्ति से जवाब दिया और ऐसे संपादकीय दबावों से निपटने में अपने लंबे अनुभव का हवाला दिया। उनका कहना है कि उन्हें पता है कि मीडिया की कहानियाँ किस तरह गढ़ी जाती हैं। इसलिए वह अपेक्षाओं के अनुरूप चलने के लिए सहमत हैं।

रिपोर्टर : कई बार चैनल बोलता है, हमारे हिसाब से चीज़ें हों।

शादाब : हाँ; मैं वही बात कह रहा हूँ। …चैनल वाले की जो पॉलिसी होती है, उसको भी मैनेज किया जाता है।

रिपोर्टर : जैसे कि टीवी चैनल वाले कहते हैं कि मुसलमान आदमी आये और बीजेपी को गाली दे?

शादाब : तो हाँ, ये सब पॉसिबिलिटी है; …या कांग्रेस को गाली दे। …देखिए, ऐसा है आपकी दुआ से क़रीब 10-12 साल का ये एक्सपीरियंस है। और कोई ऐसा चैनल नहीं है, …न्यूज 18 हो या ज़ी टीवी हो या फिर एबीपी; …इन सब पर मैंने लाइव और रिकॉर्डिंग दोनों तरीक़े से काम किया है।

इस स्पष्ट बातचीत में शादाब ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि टीवी बहसों में उनकी उपस्थिति चैनलों की अपेक्षाओं पर निर्भर करती है। वह बताते हैं कि भुगतान सिद्धांतों से नहीं, बल्कि प्रदर्शन से जुड़ा होता है। यहाँ तक कि वह एक टीवी बहस में भाजपा सांसद संबित पात्रा के साथ हुई तीखी नोकझोंक का विवरण भी साझा करते हैं। इससे मीडिया जगत की एक ऐसी तस्वीर उभरकर सामने आती है, जहाँ चीख-पुकार मची रहती है और अक्सर स्क्रिप्ट के साथ वफ़ादारी भी बदल जाती है।

रिपोर्टर : कभी झड़क-पड़क हुई है आपकी?

शादाब : ख़ूब हुई है। …संबित पात्रा से ही हुई है, ताज महल वाली डिबेट में; …आप कहेंगे, तो मैं आपको भेज दूँगा..(बहस की क्लिप)।

रिपोर्टर : ये पैसा भी देते हैं या नहीं?

शादाब : एक-दो ने दिया, बाक़ी ने नहीं।

रिपोर्टर : कितना दिया आपको?

शादाब : किसी ने 3,000 (रुपये) किसी ने 2,000 (रुपये)। …आप क्या करवाएँगे हमारे लिए? …सबसे बड़ी बात होती है, जो परफॉर्मेंस पर डिपेंड करती है। …भाई! चैनल के हिसाब से हम परफॉर्मेंस देंगे, तो उसी हिसाब से पेमेंट (भुगतान) होता है। …बहुत बार स्थिति ऐसी आती है कि चैनल वाले गाड़ी भेजकर बुला लेते हैं नोएडा इत्यादि में। …आगरा में कई डिबेट्स में हमारा भी नाम था।

इस ख़ुलासे भरी बातचीत के बीच शादाब ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया कि किस तरह अनेक टीवी बहसें पहले से तय होती हैं। टीवी चैनल पहले से तय कर लेते हैं कि किसे लक्षित किया जाना चाहिए और पैनलिस्टों को इस आधार पर भुगतान किया जाता है कि वे कितना अच्छा प्रदर्शन करते हैं और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करते हैं। जिस मुद्दे पर खुली चर्चा होनी चाहिए, वह एक प्रबंधित कार्य में बदल जाता है, जहाँ समाचार अक्सर पटकथा-बद्ध नौटंकी के आगे मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।

रिपोर्टर : ये सब बिजनेस का चक्कर होता है, …टीवी डिबेट भी?

शादाब : हाँ; मुझे मालूम है। मैं भी जानता हूँ। और बाक़ायदा अच्छा पेमेंट करते हैं; …बस आप उनके मानकों पर खरे उतरें।

रिपोर्टर : तो मैच फिक्सिंग करते हैं ये टीवी डिबेट वाले?

शादाब : बिलकुल। बता देते हैं, तुम्हें इस पर अटैक करना है, ये है। …मैं अपने मुँह से अपनी बड़ी करूँ, तो अच्छा नहीं रहेगा। अब आपके दोस्त, जो न्यूज चैनल खोल रहे हैं और अगर वो हमको मौक़ा देते हैं, तो हमारी परफॉर्मेंस पर डिपेंड करेगा।

इस दिलचस्प बातचीत में शादाब से पूछा गया कि यदि चैनल उनसे ऐसा करने को कहे, तो क्या वह किसी मुस्लिम साथी का अपमान करेंगे? बिना किसी हिचकिचाहट के वह इस बात से सहमत होते हैं और बताते हैं कि इस तरह की झड़पें अब टीवी पर आम बात हो गयी हैं। शादाब के अनुसार, चैनल मुसलमानों को एक-दूसरे पर हमला करते हुए दिखाना पसंद करते हैं। इससे बाहरी आवाज़ों की आवश्यकता के बिना ही एक कहानी तैयार हो जाती है। शादाब ने कहना चाहा कि अब टीवी चैनल्स पर बहस कम, तयशुदा तमाशा अधिक होता है।

रिपोर्टर : अच्छा; अगर कोई मुसलमान को मुसलमान से लड़वाये, गाली-गलौज करवाये, तो कर लोगे?

शादाब : अरे, आप उससे इत्मिनान रखिए। …कहने से कोई फ़ायदा नहीं है। एक तो ऐसा होता है कि करेंट (मौज़ूदा समय) में जो सिचुएशन (परिस्थिति) मिल रही है, उसको हैंडल करना है आपको। …क्योंकि वहाँ कोई सवाल खड़ा कर दिया, तो हाज़िर जवाबी इतनी होनी चाहिए आपके पास कि उसको आप जवाब दे सकें।

रिपोर्टर : लेकिन कोई कहे कि मुसलमान को गाली देना है, तो क्या दे दोगे?

शादाब : अरे, तो चैनल्स पर देते नहीं हैं गाली? भाई! मुसलमान मुसलमान को गाली दे, उसके पीछे भी लॉजिक (तर्क) होता है ना कुछ! …भाई! मैं अगर उसको क्रिटिसाइज (आलोचना) करता हूँ, तो मेरे पास होना भी तो चाहिए कुछ मसाला। …भाई! टीवी चैनल पर यही तो चल रहा है। …मुसलमान को मुसलमान से भिड़वा दो और कह दो मुसलमान ही मुसलमान की काट कर रहा है। ये भी है ना! …किसी ग़ैर-मुस्लिम को करने की ज़रूरत नहीं है। ये भी एक तरीक़ा है मीडिया का।

इसके बाद ‘तहलका’ रिपोर्टर ने जावेद-उल-हसन क़ासमी (बदला हुआ नाम) से संपर्क किया, जो कई वर्षों से हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसों में एक जाना-पहचाना चेहरा हैं। जावेद ने एक घटना साझा की, जिसमें एक प्रसिद्ध टीवी एंकर ने उन्हें और एक हिंदू सह-पैनलिस्ट को लाइव शो के दौरान ज़ोरदार नाटकीय लड़ाई करने के लिए कहा। दोनों ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इस तरह के व्यवहार का गंभीर चर्चा में कोई स्थान नहीं है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि मना करने के बाद भी उन्हें उसी चैनल पर कई और शो के लिए बुलाया गया।

जावेद : XXXX कह रहा था मुझे और XXXXX से, कि डिबेट ऐसे करना इस बार कि डिबेट करते-करते खड़े हो जाना…।

रिपोर्टर : सब्जेक्ट क्या था डिबेट का?

जावेद : हिंदू-मुस्लिम ही होगा; …पुरानी बात है। कह रहा था- एक-दूसरे के ऊपर खड़े हो जाना। …लाइव प्रोग्राम था।

रिपोर्टर : आपने क्या कहा?

जावेद : क्यूँ खड़ा होऊँगा? …मना कर दिया। कभी भी ऐसे थोड़ी कर सकते हैं।

रिपोर्टर : XXXXX ने भी मना किया?

जावेद : मना किया। …हमने ग़ौर ही नहीं किया, उसकी बातों को।

रिपोर्टर : उसके बाद आपको बुलाया भी नहीं होगा टीवी डिबेट में?

जावेद : अरे, 50 बार बुलाया है। …क्या बात कह रहे हो!

रिपोर्टर : उसके बाद भी?

जावेद : 50 बार, …ऐसे क्यूँ? उनको डिबेट करने वाले नहीं मिल रहे।

अब जावेद ने ‘तहलका’ रिपोर्टर के सामने एक चौंकाने वाला क्षण को साझा करते हुए कहा कि एक प्रसिद्ध समाचार चैनल के वरिष्ठ व्यक्ति ने टीवी पर बहस के दौरान पूछा कि क्या वह विवाद पैदा करने के लिए आईएसआईएस का समर्थन करेंगे? जावेद ने कहा कि उन्होंने इसका नकारात्मक जवाब दिया। उन्होंने बताया कि इस तरह के अनुरोध के पीछे असली उद्देश्य टीआरपी बढ़ाना है, न कि ईमानदारी से जानकारी देना या चर्चा करना।

रिपोर्टर : XXXX ने भी तो आपको बोला था कुछ XXXXX में?

जावेद : XXXX तो तीन-चार बार फोन किया था। उसका जो कोऑर्डिनेटर है, उसने बोला था कि आप जो आईएसआईएस का फ़तवा वाला आया था …आसाम का; हाँ तो फेवर (समर्थन) में बोलने के लिए, फेवर करेंगे आईएसआईएस का? मैंने कहा था- फेवर क्यूँ करूँगा? जो बात सच होगी, वो कहूँगा।

रिपोर्टर : XXXXX ने कही थी ये बात?

जावेद : XXXXX ने कहा था। वो तो मेरे पास उस वक़्त रिकॉर्ड नहीं था। …कुछ नहीं, उनको बस डिबेट को हिट कराना है। अपने नंबर को आगे बढ़ाना है; …बस और कोई मक़सद नहीं।

इस पड़ताल के दौरान ‘तहलका’ रिपोर्टर की मुलाक़ात नोएडा में सुहैल सिद्दीक़ (बदला हुआ नाम) से हुई, जो कभी किसी टीवी डिबेट में नहीं दिखे। लेकिन जैसा कि रिपोर्टर ने उनसे टीवी डिबेट के राज़ उगलवाने के लिए उनसे काल्पनिक रूप से कहा कि क्या वह जल्द ही लॉन्च होने वाले समाचार चैनल में शामिल होने के इच्छुक हैं? तो सुहैल ने कहा कि उन्हें बोलने में आनंद आता है और वे धार्मिक और सामाजिक, दोनों विषयों पर चर्चा करने के लिए तैयार रहते हैं। हालाँकि सिद्दीक़ जानते हैं कि बहस शोरगुल भरी हो सकती है, फिर भी वह ख़ुद इसका अनुभव करने के लिए उत्सुक दिखे।

रिपोर्टर : एक चीज़ बताइए, डिबेट का शौक़ है आपको?

सिद्दीक़ : शौक़ तो है। बोलने का अंदाज़, बात सही होनी चाहिए ना! …बस बात ये है। अभी हम बैठे नहीं हैं; कहीं गये नहीं है।

रिपोर्टर : तो शौक़ है, कभी-न-कभी तो पहली बार होगा?

सिद्दीक़ : घर से भी हो जाएगी बात फोन पर?

रिपोर्टर : हाँ; घर से भी हो जाएगी। …आप सिद्दीक़ अब एक बात बताओ कि किस टॉपिक पर आप आराम से बात कर सकते हो? …उसी में बुलाएँ फिर आपको।

सिद्दीक़ : बात ये है कि अभी तक तो हम गये नहीं हैं। …बात दीन (धर्म) की भी होगी, दुनिया की भी होती है उसमें। ख़िलाफ़ भी बोलना पड़ता है, हो-हल्ला भी होता है। ..,इसलिए अभी गये ही नहीं हैं। जब जाएँगे, तब पता चलेगा।

अब सुहैल सिद्दीक़ से ‘तहलका’ रिपोर्टर ने कहा कि चैनल उन्हें पहले ही बता देगा कि टीवी डिबेट के दौरान उन्हें क्या बोलना है। सुहैल सिद्दीक़ इस व्यवस्था से सहमत होकर कहते हैं कि वह इसके अनुसार तैयारी करेंगे।

रिपोर्टर : नहीं, मौज़ू (विषय) आपको पहले ही बता दिया जाएगा।

सिद्दीक़ : अच्छा।

रिपोर्टर : जैसे मैं आपको एग्जांपल (उदाहरण) दे रहा हूँ। समझो कि जामा मस्जिद है, इसका कोई सर्वे का मामला चल रहा है; कोर्ट का कोई डायरेक्शन (निर्देश) आया। …उस पर डिबेट हुई। आपको हमारे यहाँ से कॉल आएगा, चैनल वाला आपको बता देगा कि आपको ये बोलना है। …वो फिक्स कर देगा कि आपको ये बोलना है, जिस पर आप बताइए।

सिद्दीक़ : हाँ; …मुताला (गहराई से विचार) करना पड़ेगा मस्जिद का।

अब ‘तहलका’ रिपोर्टर ने पड़ताल को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली में मुश्ताक़ ख़ान (बदला हुआ नाम) से मुलाक़ात की। इस बार मामला टीवी चैनलों द्वारा बहस फिक्स करने का नहीं, बल्कि मामला एक मौलवी का है, जिसने इन बहसों से धन कमाया है। मुश्ताक़ ने बताया कि उनके दोस्त, जो दशकों से हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसों में दिखायी देते रहे हैं; को सन् 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक राजनीतिक पार्टी ने संपर्क किया था। मुश्ताक़ के अनुसार, उनके मित्र ने पार्टी से प्राप्त धनराशि का उपयोग दिल्ली में दो मकान ख़रीदने में किया, जबकि उन्हें इस लेन-देन के बारे में पूरी तरह से अँधेरे में रखा गया। मुश्ताक़ का कहना है कि एक ही कमरे में रहने और क़रीब रहने के बावजूद उन्हें लेन-देन के बारे में बाद में पता चला।

रिपोर्टर : जो उन्होंने घर बनाया, लोकसभा के इलेक्शन में बना लिया; …2009 के इलेक्शन (चुनाव) में XXXX ज़िन्दा थे। उन्होंने पैसे दिये इन्होंने बना लिया। …उसमें आप भी तो साथ थे, आपको क्यूँ नहीं दिये पैसे?

मुश्ताक़ : मुझे लेकर गये ही नहीं। …अब वो तो वही जानें।

रिपोर्टर : बिलकुल नहीं दिये?

मुश्ताक़ : बिलकुल नहीं जनाब।

रिपोर्टर : आप मुझसे तो इतनी बार नाराज़ हो जाते हो, उनसे नाराज़गी नहीं हुई आपको?

मुश्ताक़ : नहीं; मैं पहले कभी नाराज़ हुआ होऊँगा आपसे, जो रीज़न (कारण) हुए होंगे। …वो मुझे बताया ही नहीं इन्होंने कि इनकी सौदेबाज़ी हो रही है।

रिपोर्टर : आप तो इनके साथ ही रहते थे, …एक ही कमरे में?

मुश्ताक़ : वो बात तो पहले हो चुकी होगी। …हमें कहाँ बताया।

रिपोर्टर : आपको कब पता चला कि XXXX को पेमेंट हो गयी?

मुश्ताक़ : जब आपने बताया।

रिपोर्टर : मुझे तो आपने बताया?

मुश्ताक़ : तो मुझे फिर बाद में बताया होगा, जब घर ले लिया।

इस भाग में मुश्ताक़ ख़ान ने ख़ुलासा किया है कि उनके दोस्त को 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक राजनीतिक पार्टी से 15 लाख रुपये मिले थे और उसने उस पैसे का इस्तेमाल घर ख़रीदने में किया था। उनका यह भी मानना है कि समूह के अन्य लोगों को इससे भी अधिक धनराशि मिली होगी, संभवत: कुल मिलाकर लगभग एक करोड़ रुपये। मुश्ताक़ का कहना है कि उन्हें उस समय कुछ पता नहीं था और बाद में ही उन्हें इस बारे में पता चला। हालाँकि उन्होंने कहा कि उनके मन में किसी के लिए कोई कटु भावना नहीं है।

रिपोर्टर : कितना पेमेंट हुआ होगा XXXX साहेब को?

मुश्ताक़ : ये तीन लोग थे। …इनके पीछे जो और लोग थे, उनको भी मिला है। मुझे लग रहा है चार लोग थे। इनको शायद कम मिला हो, पर जो आगे वाले थे, उनको शायद ज़्यादा मिला हो। मुझे मालूम है कि इनकी बैक पर कुछ लोग थे और जिन्होंने इनको आगे बढ़ाया था।

रिपोर्टर : XXXX साहेब को?

मुश्ताक़ : जी।

रिपोर्टर : पैसा कितना मिला था टोटल (कुल)?

मुश्ताक़ : 15 लाख मिला था।

रिपोर्टर : अकेले इनको, … XXXX साहेब को?

मुश्ताक़ : जी।

रिपोर्टर : औरों को?

मुश्ताक़ : उनको ज़्यादा मिला होगा। …मुझे लगता है कि एक करोड़ लिया होगा। XXXXX ने दिया होगा। चार-पाँच में डिस्ट्रीब्यूट हुआ (बँटा) होगा।

रिपोर्टर : XXXXX मतलब, XXXX पार्टी से मिला होगा इनको, तो कम मिला फिर?

मुश्ताक़ : जो मिला होगा, ले लिया होगा।

रिपोर्टर : मगर इन्होंने 15 में घर तो ख़रीद लिया?

मुश्ताक़ : बिलकुल।

रिपोर्टर : 2009 में 15 की क़ीमत बहुत ज़्यादा थी?

मुश्ताक़ : बहुत ज़्यादा।

रिपोर्टर : आपको भनक भी नहीं लगी?

मुश्ताक़ : मैं बाख़ुदा बता रहा हूँ।

रिपोर्टर : आपको जब बताया, तो बुरा नहीं लगा?

मुश्ताक़ : कर क्या सकता हूँ?

अब मुश्ताक़ ख़ान ने स्वीकार किया है कि उसके दोस्त ने न केवल टीवी बहसों के माध्यम से पैसा कमाया, बल्कि इस दौरान बनाये गये सम्बन्धों का उपयोग करके सरकारी नौकरी भी हासिल की। यद्यपि मुश्ताक़ उनके क़रीबी थे, फिर भी उन्होंने अपने दोस्त के लाभ लेने पर सवाल नहीं उठाया; क्योंकि उन्हें डर था कि इससे उनके रिश्ते ख़राब हो सकते हैं।

रिपोर्टर : इन्होंने टीवी डिबेट में आकर, … XXXX साहेब ने पहले तो अपना घर बनाया…?

मुश्ताक़ : अपनी सलाहियत (योग्यता) है।

रिपोर्टर : नहीं, आपकी इनसे इनती गहरी दोस्ती है, आप इनसे बात कर सकते हैं; …तो आपको पूछना चाहिए था कि जब 15 लाख मिले, तो हमारा भी फ़ायदा कराते?

मुश्ताक़ : उससे क्या होता? …ताल्लुक़ात (सम्बन्ध) ही ख़राब हो जाते।

रिपोर्टर : भाई! कुछ भी हो, …. XXXX साहेब ने ग़ज़ब फ़ायदा उठाया।

मुश्ताक़ : ये तो है। …और ये नौकरी भी इनको इसी बुनियाद पर मिली है। ऊँचे ताल्लुक़ बनाकर भी इंसान सोचता है, कहीं-न-कहीं फ़ायदा होगा…।

पिछले कुछ वर्षों में टीवी पर होने वाली बहसों, विशेषकर हिंदू-मुस्लिम बहसों ने अपने लिए एक बुरा नाम कमाया है। कुछ लोगों का कहना है कि इससे प्रतिभागियों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। जो कोई भी इन बहसों में नियमित रूप से शामिल होता है, वह तनाव महसूस करता है। हालाँकि अलग-अलग लोग उस तनाव पर अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं। कुछ लोगों ने तो स्वयं को अधिकांश टीवी बहसों से भी दूर कर लिया है। ‘तहलका’ ने इस पड़ताल के दौरान जिन लोगों से बात की, उनके अनुसार टीवी पर होने वाली बहसें अक्सर तयशुदा मैचों की तरह लगती हैं, जहाँ मेहमान (गेस्ट) अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं। लड़ते हैं या गर्मजोशी से भरी बहस करते हैं। हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसों पर ‘तहलका’ की इस पड़ताल से, जो पहले कभी नहीं की गयी थी; पता चला कि मेहमानों से अक्सर विशिष्ट रुख़ अपनाने के लिए कहा जाता है। इस बहस ने उन छोटे-मोटे मुस्लिम मौलवियों को भी बेनक़ाब कर दिया है, जिन्होंने इन फ़र्ज़ी बहसों के ज़रिये प्रसिद्धि और धन अर्जित किया है। अंतत: यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसी टीवी चर्चाएँ नैतिकता और प्रामाणिकता पर गंभीर प्रश्न उठाती हैं।