किसी भी राजनीतिक दल, खासतौर पर क्षेत्रीय दल, के जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. कई राज्यों में एक दल का आना और दूसरे का जाना बारी-बारी से चलता रहा है. केरल में कभी एलडीएफ, तो कभी यूडीएफ की सरकार आती रहती है. तमिलनाडु में कभी करुणानिधि, तो कभी जयललिता सत्ता में आते-जाते रहते हैं. लेकिन राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे हरियाणा की क्षेत्रीय पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल पिछले 10 सालों से सत्ता से बाहर है और अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है.
साल 2014 के विधानसभा चुनाव में इसे 19 सीटें जरूर मिली हैं, लेकिन इसके वोटों में कमी का क्रम लगातार जारी है. यह लगातार चौथा ऐसा विधानसभा चुनाव है जिसमें पार्टी के वोटों में कमी आई है. ऐसे में राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि पार्टी इस समय अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए संघर्ष कर रही है. पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटाला तथा उनके बेटे अजय सिंह चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले के आरोप में दस साल की सजा काट रहे हैं. इसके अलावा उन पर आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप में मुकदमा भी चल रहा है.
ओम प्रकाश चौटाला और अजय चौटाला के जेल में होने की वजह से पार्टी की कमान इस समय ओम प्रकाश चौटाला के बेटे अभय चौटाला एवं अजय चौटाला के सांसद पुत्र दुष्यंत चौटाला के हाथों में है. चुनावों में पार्टी की हार के मद्देनजर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अशोक अरोड़ा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन उसे पार्टी ने मंजूर नहीं किया था. अब पार्टी की उम्मीदें सीबीआई अदालत द्वारा ओम प्रकाश चौटाला तथा अजय चौटाला को शिक्षक भर्ती घोटाले में मिली दस साल की सजा के फैसले के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में की गई अपील के फैसले पर लगी हैं. सुनवाई पूरी हो चुकी है और अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा है. चौटाला का कहना है कि उन्हें न्यायपालिका पर पूरा विश्वास है. पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आरएस चौधरी का कहना है कि अदालत के फैसले से दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा.
हालांकि ओम प्रकाश चौटाला आरोप लगा चुके हैं कि हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने सीबीआई से मिलकर साजिश करके उन्हें इस मामले में फंसाया था. अपने आरोप को सच साबित करने के लिए वह आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण द्वारा जारी उस डायरी का हवाला देते हैं, जिसमें हुड्डा की सीबीआई के तत्कालीन निदेशक रंजीत सिन्हा से कई बार हुई मुलाकातों का उल्लेख है.
साल 2014 के विधानसभा चुनाव में इसे 19 सीटें जरूर मिली हैं, लेकिन इसके वोटों के प्रतिशत में गिरावट का क्रम लगातार जारी है
हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और इनेलो के बीच तालमेल की बात भी चली थी, लेकिन मुख्यतः चौटाला को सजा होने के चलते यह बातचीत सिरे नहीं चढ़ पाई थी. चुनाव के दौरान शुरू में इनेलो उम्मीदवारों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट भी मांगे थे. चुनाव प्रचार के दौरान वे कहते रहे कि उनका वोट मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के काम आएगा. लेकिन मतदान से पहले मोदी ने अपनी जनसभा में कह दिया कि मतदाता उनके नाम पर वोट मांगनेवालों से सावधान रहें. लेकिन फिर भी सिरसा और हिसार लोकसभा सीटों से इनेलो के उम्मीदवार जीत गए.
वैसे चौटाला के समर्थकों के साथ ही साथ उनके कट्टर विरोधी भी उनकी इच्छाशक्ति की दाद जरूर देते हैं. दस साल की सजा मिलने और अस्सी साल की उम्र पार करने के बावजूद उनका मनोबल नहीं डिगा है. विधानसभा चुनाव के दौरान जेल से जमानत पर रिहा हुए चौटाला ने अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए कई जगहों पर सभाएं कीं. इस पर जब सीबीआई ने उनकी जमानत रद्द करने के लिए अदालत में याचिका डाली, तो चौटाला ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही आरोप लगा दिया कि उन्हें सत्ता में आने से रोकने के लिए उनके इशारे पर एजेंसी ने यह कार्रवाई की है. उस दौरान उनके इस बयान पर काफी प्रतिक्रिया हुई थी, जब उन्होंने कहा था कि वह मुख्यमंत्री पद की शपथ तिहाड़ जेल से ही लेंगे.
पार्टी को उम्मीद है कि इस मामले में अदालत से बरी होने के बाद कार्यकर्ताओं में नया जोश पैदा होगा. फिलहाल तो अभय चौटाला, अशोक अरोड़ा और दुष्यंत चौटाला अलग-अलग पार्टी के कार्यकर्ताओं की बैठकें करके उनका मनोबल बनाए रखने में जुटे हुए हैं. इनेलो नेतृत्व अपनी रणनीति के तहत भाजपा द्वारा विधानसभा चुनाव के दौरान किए गए वायदे पूरे न करने को लेकर सरकार के खिलाफ बयानबाजी कर रहा है. दुष्यंत चौटाला का कहना है कि पार्टी ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करवाने का वायदा किया था, जो पूरा नहीं किया. पंजाब के कर्मचारियों के बराबर वेतनमान देने सहित कई अन्य मामलों पर पार्टी मनोहर सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है. हालांकि पार्टी अभी भाजपा के नेतृत्ववाली सरकार के खिलाफ कोई आंदोलन अभी तक नहीं चला पाई है, वैसे भी सरकार को बने अभी करीब ढाई महीने ही हुए हैं और सरकार ने ऐसा कोई जनविरोधी निर्णय भी नहीं लिया है जिसे लेकर कोई आंदोलन खड़ा किया जाता.
उधर अभय चौटाला कह रहे हैं कि उनकी पार्टी प्रदेश में मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाएगी. डेरा सच्चा सौदा द्वारा भाजपा को समर्थन देने और कांग्रेस द्वारा उन्हें सत्ता में आने से रोकने के लिए अंदरखाने भाजपा को समर्थन देने को वह पार्टी की हार की अहम वजह मान रहे हैं. अभय चौटाला प्रदेश में खाद की कमी को लेकर भी सरकार को आड़े हाथों ले रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न देने के मामले पर पहले तो अभय चौटाला ने सरकार पर इस सम्मान का भगवाकरण करने का आरोप लगाते हुए कह दिया कि वाजपेयी का देश को आजाद करवाने में कोई योगदान नहीं था, लेकिन बाद में मुख्यमंत्री मनोहर लाल से मिलने के बाद उन्होंने अपना स्टैंड बदल लिया. इस बीच अशोक अरोड़ा ने मनोहर लाल को अनुभवहीन मुख्यमंत्री बताते हुए यहां तक कह दिया कि मुख्यमंत्री को तो प्रदेश के पचास गांवों के नाम तक नहीं पता.
भले ही पार्टी मिल-जुलकर मनोहर सरकार का विरोध करने की कोशिश कर रही हो, लेकिन राजनीतिक हलकों में यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी में वर्चस्व को लेकर दुष्यंत चौटाला और अभय चौटाला के बीच अंदरखाने खींचतान भी है. हालांकि इस सवाल का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अगर गुजरे दौर पर नजर डालें तो देवीलाल के प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते उनके दोनों बेटों ओमप्रकाश चौटाला और रणजीत सिंह में भी काफी रस्साकशी रहती थी. बाद में ऐसी ही स्थितियां अजय चौटाला और अभय चौटाला के बीच भी चलती रहीं, लेकिन अजय चौटाला अपनी कार्यप्रणाली के कारण पार्टी में प्रभावी भूमिका में बने रहे. हालांकि बाद में अजय चौटाला के शिक्षक भर्ती घोटाले में जेल में बंद होने की वजह से अभी अभय चौटाला अहम भूमिका में हैं और पार्टी के जनाधार को बनाए रखने के लिए संघर्षरत हैं.
यदि हम इतिहास के पन्ने पलट कर देखें, तो जाटों और किसानों के कद्दावर नेता और पूर्व उप-प्रधानमंत्री देवीलाल की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. 1990 के चर्चित मेहम कांड के बाद हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में पार्टी न केवल चुनाव हार गई थी, बल्कि देवीलाल खुद राजनीति में नौसिखिया माने जाने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा से रोहतक लोकसभा सीट से चुनाव हार गए थे. यही नहीं, देवीलाल विधानसभा चुनाव में जाट-बहुल घिराय सीट से भी छत्तरपाल से हार गए थे. इस दौर में साल 1991 से 1999 तक पार्टी सत्ता से बाहर रही.
1999 के लोकसभा चुनाव में इनेलो और भाजपा ने गठबंधन कर पांच-पांच सीटों पर चुनाव लड़ा था और सारी सीटें जीत ली थीं. लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में पार्टी अपना अस्तित्व तक नहीं बचा पाई और राज्य की सभी 10 लोकसभा सीटें हार गई. ध्यान रहे कि उस समय हरियाणा में इनेलो की सरकार थी. साल 2005 के विधानसभा चुनाव में इनेलो बुरी तरह हारी और इसे महज 9 विधानसभा क्षेत्रों में ही जीत हासिल हो सकी. हालांकि सत्ताधारी कांग्रेस के प्रति लोगों के गुस्से की वजह से 2009 के चुनाव में इसे 31 विधानसभा क्षेत्रों में जीत मिल गई थी, लेकिन इसके वोट फीसदी में पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले कमी आई थी.
हरियाणा में धारणा है कि देवीलाल ने जीवन भर किसी भी जाट नेता को उभरने नहीं दिया बल्कि स्थापित जाट नेताओं के खिलाफ राजनीति करते रहे
बीते विधानसभा चुनाव में इनेलो सिरसा, फतेहबाद, हिसार और जींद जिले के अलावा मेवात इलाके में अपना प्रभाव दिखाने में कामयाब रही. अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी के 19 विधायक चुने गए तथा करीब एक दर्जन सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार तीन हजार मतों के अंतर से चुनाव हारे. सोनीपत जिले की राई विधानसभा सीट पर तो पार्टी उम्मीदवार महज तीन वोट से ही चुनाव हारा. हालांकि यहां यह बताना भी जरूरी है कि इसके कई उम्मीदवार अपने प्रभाव की वजह से और बिरादरी का समर्थन होने के कारण जीत पाए. लेकिन पार्टी के सांसद दुष्यंत चौटाला विधानसभा चुनाव में उचाना सीट से केंद्रीय ग्रामीण राज्य मंत्री बीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलता से चुनाव हार गए, हालांकि लोकसभा चुनाव में उस विधानसभा क्षेत्र से दुष्यंत करीब 58,000 वोटों से जीते थे.
इनेलो का जनाधार खिसकने की एक अहम वजह यह भी रही है कि जाट राजनीति के गढ़ पुराने रोहतक जिला में हुड्डा ने इनेलो को पछाड़ने में कामयाबी हासिल कर ली. विधानसभा चुनाव में पुराना रोहतक जिला में, जिसके अंतर्गत सोनीपत, झज्जर जिले भी आते हैं, कांग्रेस के टिकट पर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के ज्यादातर उम्मीदवार जीत गए. हालांकि बाकी क्षेत्रों में जाट वोट बैंक इनेलो के साथ जुड़ा रहा. यहां यह उल्लेखनीय है कि देवीलाल जाटों और किसानों के एकछत्र नेता रहे थे. लेकिन साल 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद हुड्डा ने पुराने रोहतक जिले में लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में इनेलो को प्रभावहीन कर दिया.
कहने को तो पार्टी का नाम इंडियन नेशनल लोकदल है, लेकिन इसका आधार मुख्यत: हरियाणा में ही रहा है. हालांकि पार्टी ने बारह वर्ष पहले पड़ोसी राज्यों राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में पैर जमाने की कोशिश की थी, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई थी. हालांकि बीते दौर में राजस्थान और दिल्ली में पार्टी के एक-एक विधायक रह चुके हैं.
दुष्यंत का कहना है कि इनेलो इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में हरियाणा की सीमा से लगे दिल्ली के क्षेत्रों में उम्मीदवार खड़े करेगी. पार्टी ने राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार बनाने की कोशिश की थी, लेकिन नाकामयाब रही. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट नेता हरेन्द्र मलिक को पार्टी ने हरियाणा से राज्यसभा का सदस्य भी बनाकर भेजा था, लेकिन चुनावों में इनेलो को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रमेश मदान का कहना है कि इनेलो की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के चलते पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी हद तक टूट चुका है.
सवाल पैदा होता है कि पहली पंक्ति का नेतृत्व न होने की वजह से क्या पार्टी अपने अस्तित्व को बनाए रख पाएगी या यह अपनी रणनीति में परिवर्तन करेगी? पार्टी का समर्थक वर्ग कम होता जा रहा है. इनेलो का जनाधार अंबाला, कुरुक्षेत्र, करनाल, रोहतक, हिसार, सोनीपत, अहीरवाल क्षेत्र में काफी हद तक खिसक चुका है. पार्टी का मतदाता अपने निजी स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए पहले कांग्रेस के पक्ष में गया और अब सत्ताधारी भाजपा के साथ जाता दिख रहा है.
हरियाणा में लोगों के मन में एक धारणा यह भी है कि देवीलाल ने अपने पूरे जीवनकाल में किसी भी जाट नेता को उभरने नहीं दिया. उनके समय में जो भी स्थापित जाट नेता थे, देवीलाल उनके खिलाफ चुनाव लड़े या उनके खिलाफ राजनीति करते रहे. देवीलाल ने जाट नेता बलराम जाखड़ के खिलाफ चुनाव लड़ा था. इसके अलावा जाट नेताओं नाथू राम मिर्धा, कुंभा राम आर्य तथा अजित सिंह से भी देवीलाल का छत्तीस का आंकड़ा रहा. इसी तरह ओमप्रकाश चौटाला ने प्रभावशाली जाट नेता बीरेन्द्र सिंह और कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला के खिलाफ चुनाव लड़ा. इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए दुष्यंत चौटाला ने सांसद होने के बावजूद जाट नेता बीरेन्द्र सिंह की पत्नी के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा. जातिवादी मतदान के इस दौर में पार्टी का मतदाता यह सोचने लगा है कि चौटाला परिवार अपनी जाति या बिरादरी के खिलाफ ही राजनीति करता है और यह परिवार पूरे हरियाणा में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है. इसके अतिरिक्त अहीर, गुज्जर, राजपूत, रोड़ तथा अन्य कृषक जातियां इनेलो को केवल एक जाति विशेष, क्षेत्र विशेष और परिवार विशेष की पार्टी मानने लगी हैं, जिसका इसे नुकसान उठाना पड़ा है. ऐसे में अगर पार्टी ने अपनी रणनीति नहीं बदली और परिवार, जाति, क्षेत्र से ऊपर उठकर मुद्दों की राजनीति नहीं की, तो इसके अस्तित्व पर संकट की स्थिति आ जाएगी.