तेज आर्थिक विकास का सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण को उठाना पड़ता है और प्रदूषण के रूप में इसके खतरे लोगों को झेलने पड़ते हैं. जमशेदपुर के लोगों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. विकास के नाम पर सालों पहले इस शहर को कल-कारखानों से पाट दिया गया और अब इनसे निकल रहा कचरा उनके स्वास्थ्य से लेकर उनकी खेती-किसानी पर बुरे असर छोड़ रहा है.
जमशेदपुर में टाटा पावर लिमिटेड के जोजोबेड़ा थर्मल पावर प्लांट और टाटा स्टील से रोजाना निकलने वाले हजारों टन राख और स्लैग (धातुमल) से शहर और आसपास की खेती योग्य जमीन बंजर होने लगी है. जल, जमीन और हवा प्रदूषण की चपेट में है. इसका सीधा असर पर्यावरण संतुलन और किसानों की कमाई पर पड़ा है. साथ ही लोगों को दमा जैसी बीमारियों से भी जूझना पड़ रहा है.
जोजोबेड़ा थर्मल पावर प्लांट से रोजाना लगभग 2,500 टन राख निकलती है, जिसे जमशेदपुर शहर के बाहरी इलाकों और इसके आसपास के गांवों में खपाया जाता है. कंपनी ठेकेदारों की मदद से राख और स्लैग से गांवों को पाट रही है. जमशेदपुर के बाहरी इलाके सुंदर नगर के हितकू गांव निवासी सोमनाथ सिंह की केडो गांव में जमीन है. इस जमीन पर हजारों टन राख गिराई गई है. इसके मुआवजे के नाम पर ठेकेदार ने कुछ रकम सोमनाथ को दी और कुछ बकाया कर दिया. इसके बाद सोमनाथ ने अपनी जमीन पर राख गिरवाना ही बंद करा दिया. उस राख को दबाने के लिए उपर से मिट्टी की परत भी डाली गई. अब इस जमीन में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई हैं. बारिश के बाद यह राख पानी के साथ आसपास के खेतों में फैल गई और कुछ हिस्सा पास के पहाड़ी नाले ‘लेदाघड़ा’ में बह गया. नाले से होकर राख जहां-जहां फैली वहां के खेत अब बंजर हो गए हैं. इन खेतों में एक समय जहां भरपूर अनाज उपजता था वहीं अब सिर्फ कुछ खरपतवार उगे हुए नजर आते हैं. केडो गांव के निवासी दारा साहू बताते हैं, ‘जब से राख गिराई गई है, तब से आसपास के गांववालों का जीना हराम हो गया है. यहां के ग्रामीण परेशान हैं. वे लेदाघड़ा में स्नान करते थे, जानवरों को पानी पिलाते थे और खेतों को सींचते थे, मगर नाले में राख आने से पानी गंदा हो गया है और उसका बहाव भी कम हो गया है.’
स्लैगयुक्त पानी की चपेट में आकर फसल खराब हो रही है और मछली व अन्य जलीय जीव-जंतुओं की भी मौत हो रही है. इस वजह से दलमा के पारिस्थितिकी तंत्र पर भी खतरा मंडराने लगा है. वहीं पानी के संपर्क में आने वालों को त्वचा संबंधी रोग भी हो रहे हैं
इस तरह गर्मी के दिनों में जमीन में दबी राख हवा के साथ पूरे गांव को अपने कब्जे में लिए रहती है. इसी तरह टाटा स्टील से निकलने वाले स्लैग को गड्ढा भरने के नाम पर जहां-तहां फेंका जा रहा है. विशेषज्ञ बताते हैं कि इस स्लैग में सल्फर की भारी मात्रा रहती है, जो बारिश के पानी में घुलकर नदी, तालाब आदि के पानी को प्रदूषित कर देती है. फिर इस पानी को न तो पिया जा सकता है और न ही यह खेती करने योग्य होता है. पूर्वी सिंहभूम के सिविल सर्जन डॉ. श्याम कुमार झा बताते हैं, ‘विभिन्न उद्योगों के कारण प्रदूषण बढ़ा है. लोग अनेकों बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. उनमें सबसे अधिक संख्या दमा के रोगियों की है. प्रदूषण की चपेट में मनुष्य के साथ जानवर भी हैं.’ टाटा कंपनी पर्यावरण नियमों की अनदेखी कर जहरीले सल्फरयुक्त स्लैग परिष्कृत किए बगैर जमशेदपुर के लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में गिरवा रही है. इतना ही नहीं पूर्वी एशिया में हाथियों के सबसे बड़े अभ्यारण्य दलमा के इको सेंसिटिव जोन की भी अनदेखी की जा रही है, जो इसकी चपेट में है. स्लैगयुक्त पानी की चपेट में आकर फसल खराब हो रही है और मछली व अन्य जलीय जीव-जंतुओं की भी मौत हो रही है. इस वजह से दलमा के पारिस्थितिकी तंत्र पर भी खतरा मंडराने लगा है. वहीं पानी के संपर्क में आने वालों को त्वचा संबंधी रोग भी हो रहे हैं.
जमशेदपुर से 25-30 किलोमीटर दूर स्थित गालूडीह के उलदा गांव के ग्रामीण भी इसी समस्या से परेशान हैं. टाटा स्टील कंपनी की ओर से गांव में स्लैग डालने के लिए बनाए गए तालाब से बहकर आए जहरीले पानी की चपेट में आकर उनकी फसल नष्ट हो रही है, छोटे तालाबों में पाली जाने वाली मछलियां भी मर रही हैं. ये ग्रामीण टाटा स्टील कंपनी से अपने नुकसान की भरपाई की मांग कर रहे है. गांववालों ने मांगें पूरी न होने की दशा में आंदोलन की भी चेतावनी दी है. उलदा गांव में लगभग चार वर्ष पहले टाटा स्टील ने सल्फरयुक्त स्लैग डंप करने के लिए तालाब बनवाया था. अब यह तालाब पिछले चार वर्ष में लगभग 50 एकड़ जमीन पर 50 फीट ऊंचा हो गया है. इसके निर्माण के समय स्लैग से निकलने वाले जहरीले पदार्थ से होने वाले परिणाम को समझने के बाद गालूडीह पंचायत के युवा मुखिया वकील हेमब्रम ने इसका विरोध किया था. तब उनका साथ बड़ाखुशी पंचायत के मुखिया बंसत प्रसाद सिंह, ग्रामीण उपेन मांझी, जमनीकांत महतो ने दिया था, लेकिन आसपास के गांववालों को अपने साथ लाने में ये असफल रहे और इस खतरनाक तालाब का निर्माण हो गया.
हेमब्रम बताते हैं, ‘ग्रामीण भोलेभाले हैं उनको स्लैग डंप से होने वाले प्रदूषण और नुकसान का अनुमान नहीं था. उन्हें धन का लालच देकर भटका दिया गया और वे टाटा स्टील का सहयोग करने लगे.’ जबकि हेमब्रम के साथ वाले चाहते थे कि मामले को लेकर तीनपक्षीय वार्ता हो. टाटा स्टील, जिला प्रशासन और ग्राम पंचायत के बीच अनुबंध हो, जिसमें लिखा हो कि कचरा डंप करने से किसी भी प्रकार का जल, जमीन और वायु प्रदूषण न हो और गांववालों का नुकसान होने की दशा में उचित मुआवजा मिले.’
पर अब चार साल बाद हाल ये है कि स्लैग से बहकर आए जहरीले पानी ने ग्रामीणों की जमीनों को बंजर बना दिया है. खेत में लगी फसल जलकर नष्ट होने लगी है. इस तालाब से कुछ दूरी पर स्थित बिरसा अनुसंधान केंद्र के निदेशक जे. टोपनो ने बताया, ‘स्लैग से निकला पानी जमीन की उर्वर क्षमता को नष्ट कर रहा है. इससे जमीन में फसल नहीं लग पाती है. साथ ही इस पानी के संपर्क में आने वाले किसानों को बीमारियां भी हो रही हैं.’ हालांकि अब तक कितनी जमीन बंजर हुई है, इसके बारे में विभाग से कोई जानकारी नहीं मिल पाई है.
झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्रीय कार्यालय सह प्रयोगशाला की ओर से टाटा पावर लिमिटेड को जल नियंत्रण अधिनियम 1974 व वायु नियंत्रण अधिनियम 1981 के उल्लंघन के लिए नोटिस भेजकर चेताया भी गया है, मगर इसका असर होता नहीं दिख रहा है
झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्रीय कार्यालय सह प्रयोगशाला की ओर से टाटा पावर लिमिटेड को जल नियंत्रण अधिनियम 1974 व वायु नियंत्रण अधिनियम 1981 के उल्लंघन के लिए नोटिस भेज कर चेताया भी गया है, मगर इस नोटिस का कुछ खास असर होता नहीं दिख रहा है. उधर, कृषि, पशुपालन व सहकारिता मंत्री रणधीर सिंह ने पूरे मामले की जांच कराने की बात कही है. उन्होंने कहा है, ‘खेती योग्य जमीन का बंजर होना और जहरीले पानी से जीवों की मौत होना गंभीर बात है. पूरे मामले की जांच करने के बाद दोषियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाएगी.
उलदा पंचायत प्रधान छोटू सिंह बताते हैं, ‘टाटा स्टील के स्लैग डंप करने वाले तालाब की चपेट में आकर उनकी तीन एकड़ जमीन बंजर हो गई है. हर साल लाखों रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है.’ छोटू हर साल एक एकड़ जमीन पर 50 से 60 हजार रुपये तक का धान उपजाने के साथ मछली भी पालते थे. इससे उनको 10 से 12 हजार रुपये की अतिरिक्त कमाई हो जाती थी. अब वे अपने खेत से एक रुपया भी नहीं कमा पा रहे हैं. उनके परिवार में सात सदस्य हैं. उनके साथ ही गांव के 40 अन्य किसान भी अपनी उपजाऊ जमीन से हाथ धो बैठे हैं. किसानों ने इसके लिए टाटा स्टील से मुआवजे की भी मांग की थी. पिछले साल उनकी तीन एकड़ जमीन के लिए महज 34 हजार रुपये मुआवजे के रूप में दिए गए. गांव के लाल मोहन सिंह बताते हैं, ‘मेरी सात एकड़ जमीन है, जो बंजर हो चुकी है. मेरी जमीन के अलावा 40 किसानों की सैकड़ों एकड़ जमीन तालाब के जहरीले पानी की चपेट में आकर अपनी उर्वर क्षमता खो चुकी है. हमें परिवार पालने में तकलीफ उठानी पड़ रही है. हमारी मांग है कि टाटा स्टील हमें स्थायी नौकरी या रोजगार उपलब्ध कराए, वरना हम आंदोलन के लिए सड़क पर उतरेंगे.’ इस संबंध में पक्ष जानने के लिए टाटा स्टील प्रबंधन को पत्र लिखा गया, पर प्रबंधन की ओर से किसी भी तरह का जवाब नहीं दिया गया.