शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाकर तूफान टल जाने की मानसिकता देश के राजनीतिक वर्ग के साथ मीडिया के एक हिस्से में भी फैल गई है. बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि समझदार लोग दूर की सोचते हैं, चतुर लोग नजदीकी फायदों के फेर में रहते हैं. बीते पखवारे देश के राजनीतिक वर्ग ने एक चतुराई-भरा फैसला किया. फैसला था 16 दिसंबर 2012 की बलात्कार पीड़िता के ऊपर बनी एक डॉक्युमेंट्री फिल्म के प्रदर्शन को प्रतिबंधित करने का. इस देश में अपनी सुविधा के हिसाब से फिल्मों, कलाकृतियों, किताबों को प्रतिबंधित करने की समृद्ध परंपरा रही है. हमने अस्सी के दशक में ही सलमान रश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज की नकेल कस दी थी. रश्दी से अब तक के बीच एक लंबा समय गुजर चुका है. अधिकारों और अभिव्यक्ति के प्रति जागरुकता नए युग में पहुंच चुकी है. लेकिन एक हिस्सा आज भी अस्सी के दशक में चक्कर काट रहा है. जिन लोगों ने सैटनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगाया था उनमें से ज्यादातर ने किताब का मुखपृष्ठ तक नहीं देखा था. आज भी जिन लोगों ने इंडियाज डॉटर पर प्रतिबंध लगाया है उन्होंने फिल्म देखने तक की जहमत नहीं उठाई. ऐसा सिर्फ मीडिया के एक हिस्से द्वारा निभाई गई जज-जूरी और जल्लादवाली भूमिका के दबाव में किया गया.
इंडियाज डॉटर को लेकर जनता के बीच से विरोध की एक भी आवाज नहीं उठी थी. जाहिर है जनता समझदार है और वह फिल्म देखने के बाद ही फैसला कर पाती. लेकिन व्यवस्था के दो हिस्सों ने इसे भारत और पीड़िता का अपमान सिद्ध करना शुरू कर दिया. पहली तो देश की राजनीतिक जमात ही ठहरी दूसरा इस देश के मीडिया का एक हिस्सा. जी न्यूज और टाइम्स नाउ जैसे चैनलों ने फिल्म के विरोध में लगातार खबरें चलाई जिनके शीर्षक तक हास्यास्पद थे. जी न्यूज की कुछ लाइनें फूहड़ता के आस-पास थीं, ‘बीबीसी भारत छोड़ो’, ‘निर्भया का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान’.
जितना सतही व्यवहार मीडिया के एक हिस्से का था उससे भी ज्यादा नाटकीय रवैया भारत सरकार का था. फिल्म को देश में प्रतिबंधित करने के साथ ही गृहमंत्रालय का बयान आया कि वह फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिबंधित करवाने के उपाय करेंगे. जबकि फिल्म की निर्देशक लेस्ली उडविन बार-बार यही कहती रहीं कि फिल्म को देखने के बाद ही कोई निर्णय करें. तीसरी दुनिया की कथित महाशक्ति की यह हुंकार औंधे मुंह गिरी. सरकार के इस रवैये को बीबीसी ने भी आइना दिखाया. जिस फिल्म को आठ मार्च को रिलीज होना था उसे उन्होंने पांच मार्च को ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिलीज कर दिया. इतना ही नहीं इसके बाद पूरे भारत में प्रतिबंधित होते हुए भी यह फिल्म यूट्यूब के माध्यम से देखी-दिखाई गई. यह सरकार की शुतुरमुर्गी सोच थी कि वह मौजूदा समय में प्रतिबंध लगाकर लोगों को फिल्म देखने से रोक लेगी. वैसे आज पढ़ने के इच्छुक ज्यादातर लोगों के पास सैटनिक वर्सेज की पीडीएफ फाइल मौजूद है और सरकार का प्रतिबंध भी जारी है. सरकार का कहना है कि फिल्म से देश का अपमान हुआ है, देश का अपमान बलात्कार की घटनाओं से होता है न कि उन पर बनी डॉक्युमेंट्री फिल्मों से. जिस तेजी से सरकार ने संसद में बहस करवाकर प्रतिबंध की घोषणा की उस पर ध्यान देना होगा. संसद का बजट सत्र जारी है. सरकार द्वारा पूर्व में पास किए गए सारे अध्यादेश राज्यसभा में पास करवाने दूभर हो गए थे. भूमि अधिग्रहण का मसला गले में अटका हुआ था, कुछ दिन पहले ही राज्यसभा में सीताराम येचुरी के प्रस्ताव को राष्ट्रपति के अभिभाषण का हिस्सा बनाकर सरकार की किरकिरी हो चुकी थी. वैसे समय में एक डॉक्युमेंट्री फिल्म सरकार के लिए जीवनदान बन गई और देश का मीडिया सरकार के उस खेल में मोहरा बनकर रह गया.
मीडिया के एक हिस्से ने जिस तरह से इस फिल्म पर हो-हल्ला मचाया वह कहीं ज्यादा सोच का विषय है. अगर किसी देश का मीडिया ही प्रतिबंध और सेंसर की मांग करने लगेगा तो अभिव्यक्ति और अधिकारों पर खतरे गहरा जाएंगे. सारी मारा-मारी सूत न कपास, जूलाहों में लट्ठम लट्ठ वाली तर्ज पर हो रही थी. किसी को फिल्म के असल कंटेंट की जानकारी नहीं थी. अजीब-अजीब तर्क दिए गए, मसलन पीड़िता की पहचान उजागर की गई है, उसके मां-बाप की पहचान उजागर हुई है, जज को प्रभावित करने की कोशिश हो रही है आदि-इत्यादि. इस विषय पर बात साफ होनी चाहिए कि बलात्कार की जो पीड़िताएं जीवित नहीं हैं उनकी पहचान छुपाने का क्या मकसद है? 16 दिसंबर के मामले में पीड़िता के मां-बाप उन तमाम मंच फोरमों पर आते-जाते रहे हैं जहां उन्हें सम्मानित किया गया. उनकी पहचान तो पहले भी कभी छिपी नहीं थी. जहां तक जज के प्रभावित होने का मसला है तो उसमें मीडिया को अपनी भूमिका फिर से तय करनी होगी. ऐसा कहकर मीडिया क्या कोर्ट के विवेक पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठा रहा.
इन दिनों भारत बहुत जल्दी अपमानित हो उठता है. हमारे अंदरूनी मसले पर किसी परदेसी की तटस्थ राय सुनते ही हम अपमान से सिहुरने लगते हैं. सबको पता है कि महिलाओं की सुरक्षा के मामले में हमारा रिकॉर्ड शर्मनाक है. कुन्नूर से लेकर बांदा, बदायूं तक बलात्कार की घटनाएं हर दिन हो रही हैं. अबोध, युवा, बुजुर्ग, शहरी, ग्रामीण, आदिवासी, दलित, विदेशी हर वर्ग की स्त्रियां शिकार हो रही हैं. गृहमंत्री राजनाथ सिंह संसद में अपनी भारी-भरकम आवाज में उससे भी भारी निराशा प्रकट करते हैं कि यह भारत को अपमानित करने की साजिश है. एक बलात्कारी जो फांसी की सजा पा चुका है उसके विचार अगर लोगों के सामने आते हैं तो इसमें देश का अपमान कैसे होता है. यह तो आत्ममंथन का जरिया बन सकता है, बलात्कारी सोच और मानसिकता को समझने और उससे निपटने का माध्यम बन सकता है. जिस मध्ययुगीन मानसिकता के वकील बलात्कारी का बचाव कर रहे हैं उन पर सरकारों की चुप्पी ज्यादा चिंतनीय है, वे आज भी अदालतों में वकालत कर रहे हैं.
अभी चतुराई का बोलबाला है, चतुराई ही हर समस्या का समाधान है.