तमिलनाडु का तिरुपुर देश का पहला केमिकल मुक्त औद्योगिक क्षेत्र बन गया है। जब देश के सभी शहर गंदगी से भरते जा रहे हैं, ऐसे समय में यह एक सुकून देने वाली ख़बर यह है। ख़ास बात यह है कि तिरुपुर के कारख़ानों से अब केमिकल कचरा बाहर नहीं जाता। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से 450 किलोमीटर दूर बसा तिरुपुर वस्त्र उद्योग के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है और वस्त्र उद्योग के मानचित्र में ख़ास पहचान रखने वाले इस इलाक़े ने चीन से नौ साल पहले सस्टेनेबल डेवलपमेंट यानी सतत विकास का लक्ष्य हासिल करके प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के सामने एक मिसाल कायम कर ली थी। तिरुपुर में 10,000 से अधिक कारख़ाने हैं और इन कारख़ानों से निकलने वाले कचरे से पूरा इलाक़ा प्रदूषित हो गया था। कई झीलें सूख गयी थीं। सात साल पहले 2017 में भूजल स्तर 1,000 फुट नीचे तक चला गया था। वहाँ की नोएल्ले नदी में मछलियाँ मर रही थीं और पक्षियों ने आना छोड़ दिया था।
राज्य सरकार ने हालात बिगड़ते देख सन् 2011 में प्रदूषण फैलाने वाले 720 कारख़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकारी कार्रवाई के अलावा कारख़ानों के प्रबंधकों व काम करने वालों ने दिनोंदिन हालात बिगड़ते देख उसे सुधारने की दिशा में काम करना शुरू किया। सन् 2014 में तिरुपुर के उद्योगों ने अपना ईकोसिस्टम सुधारने की क़वायद शुरू की। तिरुपुर के ही वस्त्र उद्योग से जुड़ी जानकारी के अनुसार, वहाँ के वस्त्र उद्योग ने शून्य (0) प्रतिशत लिक्विड डिस्चार्ज हासिल करने के लिए सर्कुलर प्रोडक्शन प्रोसेस को अपनाया गया। उत्पादन प्रक्रिया में केमिकल का इस्तेमाल एक क्लोज्ड सर्किल में किया जाता है। उसके अपशिष्टों को रीसायकल प्रक्रिया से साफ़ करके दोबारा इस्तेमाल करने योग्य बनाया जाता है। कारख़ानों से निकलने वाला कोई भी प्रदूषित पदार्थ सीधे वातावरण में नहीं डाला जाता है। अब वहाँ 2024 का नजारा यह है कि नोएल्ले नदी में स्वच्छ पानी की धारा बहती है। सूख चुकी 22 झीलें भी जीवंत हो चुकी हैं और भूजल स्तर 152-300 फीट तक आ गया है।
तिरुपुर की यह उपलब्धि इतिहास में दर्ज हो गयी है। असल में तक़रीबन 1.44 अरब की आबादी वाले भारत में औद्योगिक अपशिष्ट एक बहुत बड़ी समस्या है और इसका निपटान एक गंभीर चुनौती है। भारत में क़रीब 41,523 उद्योग हैं, जो सालाना 7.9 मिलियन टन ख़तरनाक कचरा पैदा करते हैं। इसके अलावा देश में घरों से निकलने वाला कचरा यानी दैनिक नगरपालिका अपशिष्ट उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। भारत में शहरीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसके फलस्वरूप शहरी खपत में भी वृद्धि हो रही है। बदलते उपभोग पैटर्न और तेज़ आर्थिक विकास के साथ यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में शहरी नगरपालिका ठोस अपशिष्ट उत्पादन 2030 में बढ़कर 165 मिलियन टन हो जाएगा। भारत दुनिया के उन शीर्ष 10 देशों में शामिल है, जो सबसे अधिक नगरपालिका ठोस अपशिष्ट पैदा करते हैं। लाखों टन कचरा अब भी हर साल लैंडफिल में जा रहा है और अक्सर पर्यावरण में लीक हो रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार करके 22 बीमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है। देश में चुनावी रैलियों में लोगों की सेहत के लिए ख़तरा बन चुके इस मुद्दे पर राजनेता ख़ामोश रहते हैं। ख़तरनाक कचरे को कोई भी राजनीतिक दल चुनावी मुद्दा समझता ही नहीं है। जबकि हक़ीक़त यह है कि ऐसा कचरा, जो अपने विषैले, संहारक, ज्वलनशील या प्रतिक्रियाशील होने के कारण मानव-स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिए ख़तरा पैदा करता है; ख़तरनाक कचरे की श्रेणी में आता है। देश में केवल 20 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे को ही रीसायकल किया जाता है। भारत में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय देश भर में कचरे के निदान और प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार है। देश में कई क़ानून भी हैं, जिनका उल्लंघन करने पर उद्योग चलाने वालों और कचरा फैलाने वालों के ख़िलाफ़ आर्थिक दंड, सज़ा आदि का प्रावधान है। लेकिन भारत में नियमों पर अमल कौन करता है? नियमों का पालन कराने वाली इकाइयों के अधिकारी भी कितनी ईमानदारी से काम करते हैं, यह एक खुला अध्याय है। प्रधानमंत्री मोदी ने मई, 2014 में वाराणसी से जीत हासिल करने के बाद कहा था कि माँ गंगा की सेवा करना मेरे भाग्य में है। सरकार ने गंगा नदी के प्रदूषण को खत्म करने और नदी को पुनर्जीवित करने के लिए नमामि गंगे नामक मिशन शुरू किया था। लेकिन न तो इस मिशन के बारे में अब चर्चा होती है और न ही गंगा की सफ़ाई हुई; जबकि देश की 40 प्रतिशत आबादी गंगा के किनारे ही बसती है। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने ख़ुद झाड़ू मारकर स्वच्छ भारत का नारा दिया था; लेकिन सफ़ाई के मामले में भी हम बहुत पीछे हैं। बहरहाल तिरुपुर चमक रहा है, रोशनी दिखा रहा है। बस इससे देश के हर शहर को सीख लेने की ज़रूरत है।