आपकी फिल्म ‘कोर्ट’ के दोनों मुख्य किरदारों में एक सफाई कर्मचारी (जमादार) और दूसरा दलित लोक गायक है. क्या आपको उम्मीद थी कि ये दोनों किरदार उच्च मध्य वर्ग खासकर पश्चिमी दर्शकों को समझ में आएगी?
जब मैंने इस फिल्म का कथानक (स्क्रिप्ट) लिखा, तब मेरे सामने भी ये सवाल खड़ा हुआ था कि यह फिल्म किस तरह के दर्शक वर्ग के लिए होगी. मुझे उम्मीद नहीं थी कि फिल्म में दिखाए गए सांस्कृतिक भेद और जातिगत राजनीति जैसे मुद्दे पश्चिमी दर्शकों की समझ में आएंगे. मैं ये भी जानता हूं कि भारत में इस तरह की फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत ही कम है. ऐसी फिल्मों का सिनेमाघरों तक पहुंच पाना लगभग नामुमकिन होता है. इसके बावजूद कई सारे सम्मान मिलने, फिल्म के कई देशों के अलावा और तमाम भारतीय सिनेमाघरों में सफल प्रदर्शन के बाद मैं इसे मिली प्रतिक्रिया से विस्मित हूं. कुछ लोगों का कहना है कि फिल्म सबको अपनी तरफ खींचती है. बहरहाल, मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैंने जितनी उम्मीद की थी ‘कोर्ट’ उससे कहीं आगे निकल चुकी है. इसके लिए मैं सभी दर्शकों का आभारी हूं.
फिल्म में सरकारी वकील और गुजराती अभिजात्य कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि, कोर्ट में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के उलट हैं. क्या ये एक सोचा-समझा निर्णय था?
मैंने फिल्म के किरदारों को अपने आसपास देखे गए लोगों के आधार पर गढ़ा है, फिर इन किरदारों में कल्पना के रंग भरे हैं. दोनों किरदारों के बीच आप जिस विषमता की बात कर रही हैं, वह मेरे दिमाग में एकदम से स्पष्ट नहीं थी. दोनों में तमाम समानताओं के साथ कई सारी असमानताएं भी हैं. मैंने दोनों किरदारों को मूलभूत तरीके से विकसित किया, इसलिए दोनों में विचारों के स्तर पर विषमता नजर आई.
ऑस्कर की दौड़ में ‘कोर्ट’ ने ‘मसान’ , ‘हैदर’ , ‘पीके’ और ‘मैरीकॉम’ जैसी सराहनीय फिल्मों को पीछे छोड़ दिया. क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को तो थिएटर मिलना ही मुश्किल होता है, ऑस्कर की तो बात ही जाने दें. ऐसे में क्या लगता है किस बात ने कोर्ट के पक्ष में काम किया?
वास्तव में मैं इस बारे में कुछ नहीं सोचना चाहता कि ‘कोर्ट’ ने दूसरी फिल्मों को कैसे पछाड़ा. इस तरह का फैसला जूरी (निर्णायक समिति) के सदस्यों की सोच को दर्शाता है. ऑस्कर के लिए ऐसा चयन विशेष रूप से किया जाता होगा. हां, मगर मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूं कि ऑस्कर के लिए फिल्म का चयन करते वक्त जूरी ने दूसरे पक्षों का भी ख्याल रखा होगा. वास्तव में कौन-सी बात ‘कोर्ट’ के पक्ष में रही, इस बारे में मैं यकीनी तौर पर कुछ नहीं कह सकता. अगर इस बारे में अंदाजा लगाना हो तो मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि फिल्म को मिली अंतर्राष्ट्रीय सराहना चयन के दौरान उसके पक्ष में रही होगी.
‘कोर्ट’ में कविताओं को शामिल किया है, जिन्हें अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम माना जाता है. हालांकि फिल्म के गीत और कविताएं मराठी में हैं, जो अंग्रेजी भाषा के किसी भी दर्शक के दिल को नहीं छू सकते. क्या आपको लगता है कि बहुभाषी फिल्म को इस बात का नुकसान उठाना पड़ता है कि दर्शकों तक वह असल अभिव्यक्ति नहीं पहुंच पाती, जो फिल्म की मूल भाषा से पहुंचती है?
एक भाषा का मर्म उसके किसी और भाषा में अनुवाद होने के बाद हमेशा खत्म हो जाता है. किसी फिल्म के सबटाइटल लिखते वक्त ये एक बड़ी चुनौती है, जिसका सामना हमें करना पड़ता है. कभी कभी तो ये भाषा बनाम सिनेमा के टकराव जैसी स्थिति हो जाती है. ‘कोर्ट’ के गीत समेत संवादों को सबटाइटल करने का काम पत्रकार और नाटककार रामू रामनाथन ने किया. इस प्रक्रिया में हमारा बहुत समय भी खर्च हुआ. हालांकि आप सही हैं. इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अनुवाद कितना अच्छा हुआ है. अनुवाद कितना भी अच्छा हो अंतर्राष्ट्रीय भाषा के दर्शकों तक पहुंचने में मूल भाषा की सुंदरता और उसकी संस्कृति हमेशा कहीं खो जाती है.
फिल्म को उसके निर्मम यथार्थवादी चित्रण की वजह से चुना गया. क्या आपको इस बात की चिंता थी कि कहीं इस तरह के चित्रण से दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाएंगे, वे दर्शक जो अदालत की प्रक्रियाओं को नाटकीय अंदाज में देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है. मैं इस बात को लेकर ज्यादा सतर्क था. मैं ऐसा कुछ चाहता था जिससे अदालत की प्रक्रियाओं के नाटकीय होने को टाला जा सके. वास्तव में, मैं चाहता था कि फिल्म के किरदारों, दृश्यों और संवादों का यथार्थवादी चित्रण हो. एक फिल्म या तो पसंद की जाती है या फिर नहीं. निजी तौर पर मैं उन फिल्मों की ही सराहना करता हूं जिनमें वास्तविकता का अंश हो. फिल्म को लेकर दर्शकों का ध्यान खो देने का डर मुझे कभी नहीं रहा. हां, ये हमने महसूस किया कि इस तरह की समझ और शैली सबके बस की बात नहीं, लेकिन हमें इससे कोई दिक्कत नहीं थी.
‘कोर्ट’ में मशहूर लेखक फ्रांज़ काफ्का की एक विशेष झलक मिलती है. फिल्म के लिए किया गया आपका शोध किस तरह भारतीय न्याय व्यवस्था के करीब है?
फिल्म में दिखाई गई अदालत वास्तव में सिर्फ एक कल्पना है, एक ऐसी कल्पना जिसके दम पर इसकी कहानी कहने में मुझे आसानी हुई. अदालत की प्रक्रियाओं के संबंध में हमने अपनी ओर से कुछ स्वतंत्रता ली है. शुरू से ही मैंने तय कर लिया था कि मैं अपनी फिल्म की कहानी में वास्तविकता का गैरजरूरी दबाव नहीं आने दूंगा. इसलिए मैं कहूंगा कि फिल्म में भारतीय अदालतों को कुछ हद तक महसूस किया जा सकता है.
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बूढ़े लोकगायक की अदालती जद्दोजहद
‘कोर्ट’ चैतन्य तम्हाणे की पहली फिल्म है. 28 साल के चैतन्य ने मीठीबाई कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में डिग्री ली है. फिल्ममेकिंग की किताबों में गहरी दिलचस्पी रखने वाले चैतन्य इससे पहले एकता कपूर के प्रोडक्शन हाउस बालाजी टेलीफिल्म्स के साथ काम कर चुके हैं. साथ ही उन्होंने ‘सिक्स स्ट्रैंड्स’ नाम की एक शॉर्ट फिल्म भी बनाई थी, जिसे उन्होंने कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया था. ‘कोर्ट’ एक बूढ़े लोकगायक की एक स्थानीय अदालत में चल रही जद्दोजहद दिखाती है, जहां उस गायक पर एक सफाई कर्मचारी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप है. फिल्म में सफाई कर्मचारियों और अदालतों की दुर्दशा भी दर्ज है. ‘कोर्ट’ फिल्म का प्रदर्शन पहली बार पिछले साल सितंबर में 71वें वेनिस फिल्म समारोह में किया गया था, जिसके बाद से विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर फिल्म ने कुल 18 अवॉर्ड जीते हैं. वेनिस फिल्म समारोह में इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म और तम्हाणे को ‘लॉयन ऑफ द फ्यूचर’ सम्मान मिला, वहीं विएना अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी ‘कोर्ट’ सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित की गई.
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आप कह चुके हैं कि आपकी फिल्म आलोचना नहीं है. हालांकि ‘कोर्ट’ की सराहना इसलिए ज्यादा हुई क्योंकि इसमें भारतीय न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी की गई है. इसे किस तरह से देखते हैं?
यह एक रोचक सवाल है. किसी संस्था से ज्यादा मेरा ध्यान मानवीय पहलू पर था. या यूं कह सकते हैं कि मेरी दिलचस्पी मशीन से ज्यादा उसके कलपुर्जों में है. वैसे भारतीय न्याय व्यवस्था की कमियां दिखाने के लिए आपको किसी काल्पनिक फिल्म की जरूरत नहीं. मेरे लिए सिनेमा अकादमिक होने से ज्यादा प्रयोगधर्मी और भावुक माध्यम है. इसलिए भारतीय न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी के लिए जब भी फिल्म की सराहना होती है तो मैं सोचता हूं कि यह लोगों से प्रभावी तौर पर जुड़ने में नाकाम रही. फिल्म निश्चित रूप से कमियों को छूती है, लेकिन मेरे दिमाग में फिल्म का मूल अर्थ ये नहीं था.
गैर कलाकारों के साथ काम करने और उनके साथ लगातार लंबे दृश्य फिल्माने के अपने निर्णय के बारे में क्या कहेंगे ?
शुरुआत से ही मैं इस बात को लेकर स्पष्ट था कि मैं फिल्म के लिए जितना संभव हो सकेगा उतने गैर कलाकार लूंगा. समाज के कई तबकों से हमने लोगों को चुना, जिसमें शिक्षक, बैंकर, चपरासी, टैक्सी ड्राइवर और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे. फिल्म के कलाकारों के लिए ऑडिशन लेने और उन्हें चुनने में ही एक साल का समय गुजर गया. कई बार यह प्रक्रिया काफी कठिन लगती थी. सबसे बड़ी चुनौती इन लोगों से चार से पांच मिनट के संवाद बिना किसी रुकावट के बुलवाना था. अगर कोई भी एक संवाद बोलने में गलती करता था तो हमें पूरी प्रक्रिया फिर से दोहरानी पड़ती थी. इस प्रक्रिया ने न सिर्फ हमारे धैर्य की परीक्षा ली बल्कि फिल्म की शूटिंग का समय और बजट भी बढ़ाया. लेकिन हां, मुझे लगता है कि इस मेहनत का प्रतिफल भी मिला. इन गैर कलाकारों ने फिल्म में अपनी जिंदगी के अनुभवों को समेटा है, जिसनेे फिल्म को एक अलग ही रंग दिया है. इसके अलावा इन गैर कलाकारों में दूसरे अभिनेताओं की तरह किसी भी तरह की असुरक्षा की भावना नहीं थी, इसलिए उनके साथ काम करना काफी आसान रहा. एक निर्देशक और कलाकार के संबंधों के अलावा इंसान होने के नाते भी यह एक तरह का समृद्ध अनुभव था. मुझे कभी भी ऐसा मौका नहीं मिलता कि मैं समाज के अलग-अलग तबकों से आने वाले लोगों से बातचीत करता और उनके साथ घुलमिल पाता.
क्या आप इस तरह के सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर काम जारी रखेंगे?
मैंने इस तरह की कोई कसम नहीं खाई है. न तो ऐसा मेरा एजेंडा है और न ही मैं इस तरह के खांचों में खुद को सीमित रखना चाहता हूं. ऐसा कहा जाता है कि मैंने इस तरह के सामाजिक-राजनीतिक तत्वों को महसूस करते हुए फिल्म की स्क्रिप्ट में शामिल किया था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जब आप एक बार इस तरह की वास्तविकता से परिचित हो जाते हैं तो उन्हें नकारना कठिन होता है.