राजनेता अथवा राजा वही है, जो राजनीति, कूटनीति और रणनीति में माहिर हो। जनता के अहित और अपने हितों को तवज्जो देने वाला, जनता को धर्म में उलझाने, बरगलाने और झूठे आश्वासन देने वाला राजनेता अथवा राजा नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति भले ही सत्ता के शीर्ष पर आ जाए; लेकिन बौद्धिक स्तर पर उसे भाँड, विदूषक अथवा बहरूपिये से ज़्यादा कुछ नहीं माना जा सकता। ऐसे लोग किसी के सगे नहीं होते। ग़ैर-तो-ग़ैर, सगों के भी सगे नहीं होते। उन्हें सिवाय अपनी तारीफ़ों, अपनी तरक़्क़ी और अपनी ताक़त के कुछ अच्छा नहीं लगता। ऐसे लोग मनमौज़ी, मक्कार, महत्त्वाकांक्षी, अय्याश, अहमक, ऐबदार, धोखेबाज़, धंधेबाज़, धूर्त, विश्वासघाती, विकृत, विक्षिप्त, मुफ़्तख़ोर, मुस्टंडे, मौक़ापरस्त होते हैं। इन्हें देशद्रोही की श्रेणी में रखना चाहिए। लेकिन अधिकांश लोग ऐसे देशद्रोहियों को पलकों पर बैठाते हैं और उनके षड्यंत्रों में फँसकर पिसते रहते हैं।
दुनिया के ज़्यादातर विकासशील देश आज ऐसे ही देशद्रोहियों के चंगुल में फँसे हुए हैं। यही वजह है कि विकास के सपने ही इन देशों की जनता के हिस्से में आते हैं। बेकारी, बेरोज़गारी, बेअदबी, भुखमरी, आत्महत्या, हत्या, लूट, चोरी, ठगी, फिरौती, बलात्कार, दहशत, भ्रष्टाचार, मानवों से लेकर नशे तक की तस्करी और दूसरी तरह के अपराध ऐसे देशों का दुर्भाग्य बन चुके हैं। विडम्बना यह है कि ऐसे किसी देश में एक भी ढंग का राजनेता अच्छी स्थिति में नहीं है। अगर कोई ईमानदार और देश-प्रेमी व्यक्ति ग़लती से राजनीति में आ भी जाए, तो उसे दुर्योधन रूपी सत्ताधारी टिकने नहीं देते। यह सब जनता के अज्ञान और अल्पज्ञान के चलते ही हो रहा है। ऐसे अज्ञानी अशिक्षा, अज्ञान, लालच, चमचागीरी और स्वार्थ की उपज हैं।
भारत की क़रीब 2,142 साल की ग़ुलामी इसी का नतीजा है। यहाँ के इतिहास में बदलाव और मनगढ़ंत कहानियों ने लोगों की मूर्खता को और बढ़ाया है। आज भी ज़्यादातर लोग ग़ुलामी से ज़्यादा दूर नहीं हैं। उन्हें इसकी आदत पड़ चुकी है। धर्मों और झूठे आश्वासनों के झाँसे में आकर लोग आख़िरकार उन्हें ही बार-बार चुन लेते हैं, जो उन्हें लूटते रहते हैं। भारत में 2024 बड़े चुनावों का साल है। लोकसभा चुनाव के बाद चार राज्यों के विधानसभा चुनाव इसी साल में दर्ज होंगे। दो राज्यों- हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव हो चुके हैं। महाराष्ट्र और झारखण्ड के चुनाव हो रहे हैं। अब चुनावों में जीत ताक़त, झूठे प्रचार-प्रसार, जनसभाओं, रैलियों और प्रलोभनों के सहारे तय हो रही है। ईवीएम भी इसमें एक अपवाद है, जिस पर विवाद ख़त्म नहीं हुआ है। जनता के लिए चुनाव अपने मनपसंद नेताओं और पार्टियों को चुनने का एक मौक़ा है। लेकिन चुनाव हमेशा जाति, धर्म, प्रलोभन, शराब, पैसा और जीत की मीडिया-बयार के आधार पर साधे जाते हैं। स्थिति यह है कि जनता का रुझान भी कोई मायने नहीं रखता।
प्रलोभन लोगों का गला रेतने के लिए उन्हें ठीक वैसे ही तैयार कर लेता है, जैसे किसी चिड़िया को जाल में फँसाने के लिए अनाज के दाने। जनता नहीं समझती कि कोई पार्टी जितना पैसा चुनावों में लुटाती है या लोगों पर तरह-तरह से चुनावों में ख़र्च करती है, वह पार्टी जीत के बाद उतनी ही ज़्यादा लूट मचाती है।
लोगों की विडम्बना यह है कि वे बार-बार धोखा पाकर भी नहीं सुधरते। उनकी स्थिति उस जुआरी जैसी है, जो जुएँ में हर रोज़ हारता रहता है, और हारने के बाद हर रोज़ तौबा करके भी जुआँ खेलना नहीं छोड़ता। असल में जनता को लुटने-पिटने की आदत हो चुकी है। आपस में झगड़ना और लूटने वालों के पैरों में नाक रगड़ना ही अब ज़्यादातर लोगों ने सीख लिया है। ये लोग अपनों को बचाने के लिए किसी बाहर वाले से भले ही न लड़ें; लेकिन अपने मनपसंद नेताओं के लिए बिना मतलब किसी से भी हर समय झगड़ने को तत्पर रहते हैं। दिन भर मोबाइल चलाने, सोशल मीडिया पर ऊल-जुलूल राजनीतिक ख़बरें डालने-पढ़ने और उन पर होने वाली बहसों में उलझने वाले लोग आख़िर सिवाय अपना क़ीमती समय बिना मतलब बर्बाद करने के और कर भी क्या सकते हैं? यह भी कह सकते हैं कि ग़लत और अज्ञानी लोग हमेशा ग़लत और अज्ञानियों को ही अपना शासक चुनते हैं। विकासशील देशों में यही हो रहा है। लेकिन विकसित देशों में लोग अपने शासकों को बहुत सोच-समझकर चुनते हैं। उनके क़ानून भी सभी के लिए दाण्डिक प्रक्रिया के दायरे तय करते हैं। इसलिए अगर वे ग़लती से कोई अयोग्य या अन्यायी शासक चुन भी लें, तो भी उसे अपनी मर्ज़ी चलाने की बहुत छूट क़ानून नहीं देता। विकासशील देशों में क़ानून ताक़त, पद और पैसे के आधार पर सज़ा तय करता है। यही कारण है कि यहाँ जो भी शासक बनता है, वह निरंकुश हो जाता है।
इस स्थिति में अब सुधार होना चाहिए। ग़ुलामी की मानसिकता लोगों को अपंग बना देती है। उन्हें न अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही कर्तव्यों का। चार पैसे कमाना, खाना, शोर मचाना, गंदगी करना और आपस में झगड़ लेना ऐसे लोगों की ज़िन्दगी के हिस्से हैं। कोई सोच नहीं, कोई भविष्य की योजना नहीं, भावी पीढ़ियों की चिन्ता नहीं। ऐसे लोगों से भरे देश आख़िर तरक़्क़ी कैसे कर सकेंगे?