तीन मार्च को झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के जमदी और कटिया गांवों से एक खबर आती है. भाकपा माओवादी ने दोनों गांवों से बच्चों की मांग की है. इसे न मानने पर जंगल से जलावन के लिए लकड़ी काटने और पशुओं को चराने पर रोक लगा देने की बात कही गई है. यह खबर जंगल में आग की तरह पूरे इलाके में फैल चुकी है लेकिन कोई इस आदेश की पुष्टि करने को तैयार नहीं होता. कुछ लोग दबी जुबान यही बताते हैं कि ऐसा हुआ है.
माओवादी कमांडर नकुल यादव ने 28 फरवरी को गांव में बैठक की थी. बैठक के बाद धमकी दी गई है कि जिन घरों में बच्चों की संख्या दो से ज्यादा है वे अपने बच्चों को माओवादी दस्ते में शामिल करने के लिए सौंप दें. यह काम 15 दिन के अंदर हो जाना चाहिए. गांववाले इस बात की पुष्टि नहीं करते, लेकिन पुलिस की गतिविधियों से इस चेतावनी की पुष्टि होती है. बैठक के बाद एक मार्च को इन दोनों गांवों में पुलिस ने विशेष अभियान चलाया. यह अभियान इसलिए था ताकि ग्रामीणों को नक्सलियों के खौफ से बेखौफ बनाया जा सके. अभियान का नेतृत्व खुद जिले के एसपी ने किया.
गुमला की यह खबर दब जाती है. जिले के ग्रामीण इलाकों में इस पर चर्चा होकर रह जाती है और राजधानी रांची तक तो यह खबर कायदे से पहुंच भी नहीं पाती. ऐसा इसलिए होता है कि ऐसी घटनाओं को गुमला जैसे जिले की नियति जैसा मान लिया गया है. पिछले साल भी ऐसी ही खबर गुमला से आई थी. 22 अप्रैल, 2015 को यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी थी कि गुमला के ग्रामीण क्षेत्र से 35 बच्चों को उठाकर नक्सली ले गए हैं. यह खबर तब इतनी बड़ी थी कि हाई कोर्ट ने केंद्रीय गृह मंत्रालय समेत झारखंड और छत्तीसगढ़ की पुलिस से पूछा था कि अखबारों में बच्चों को नक्सलियों द्वारा उठा लिए जाने की खबर पर सरकार क्या कर रही है. तब केंद्रीय गृह मंत्रालय और छत्तीसगढ़ सरकार ने क्या कहा था, हाई कोर्ट की बातों को कितनी गंभीरता से लिया था इसकी तो जानकारी नहीं है, लेकिन झारखंड सरकार ने मई, 2015 में हाई कोर्ट में कहा था कि तीन प्राथमिकियां दर्ज की गई हैं, बच्चों को बरामद करेंगे. बाद में राज्य के डीजीपी डीके पांडेय ने कहा कि बच्चों को मुक्त कराने तक अभियान जारी रहेगा. न बच्चे रिहा हुए, न बाद में उन्हें रिहा कराने का कोई अभियान चला. इसकी सूचना या खबर आई जो गुमला से निकलकर रांची हाई कोर्ट तक का सफर तय करके वहीं खत्म हो गई.
गुमला से तो बच्चों की रिहाई की कोई खबर नहीं आई लेकिन मार्च के पहले हफ्ते में ही गोमिया से एक खबर आई. गोमिया गुमला से ठीक दूसरे छोर पर बोकारो के पास स्थित है. खबर आई कि माओवादियों के बाल दस्ते में शामिल गोलू और गप्पू नाम के दो बच्चे पुलिस की गिरफ्त में आए हैं. आठ साल के गोलू ने पुलिस को बताया कि उसे माओवादी जंगल में ले गए थे. उस समय वह पहली क्लास का छात्र था. उस दिन वह घर में अकेला था. उसके एक परिजन घर पर आए. पूछा कि घर में कोई नहीं है क्या. उसने बताया, नहीं. फिर उसके परिजन जिनके साथ माओवादी भी थे, उसे उठाकर ले गए. वह जब माओवादियों के दस्ते में गया तो उससे खाना बनवाया जाने लगा. हथियार ढोने को कहा गया. वह ऐसा करने भी लगा. रात में उससे पहरेदारी का काम भी लिया जाता था. लेकिन इस सबसे अहम यह था कि माओवादी-पुलिस की मुठभेड़ में गोलू और उसके जैसे बच्चों को ढाल के तौर पर आगे कर दिया जाता था.
समाजशास्त्री और मानवाधिकारों के विशेषज्ञ प्रो. सचिंद्र नारायण कहते हैं, ‘बच्चों को भय के साथ बाल दस्ते या किसी दूसरे दस्ते में शामिल करके माओवादी अपना ही नुकसान कर रहे हैं. यह पूरा का पूरा काम ही उनके मूल सिद्धांतों के खिलाफ है. कोई बच्चा बड़ा होगा तब वह तय करेगा कि उसे यह आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक नीति ठीक लग रही है या नहीं! अगर उसे ठीक नहीं लगेगा तो वह अपने तरीके से अपने विचारों के आधार पर रास्ते को अपनाएगा. संभव है वह माओवादी भी बने लेकिन यह फैसला उसका खुद का होना चाहिए, अगर उसे जबर्दस्ती माओवादी बना रहे हैं तो इसे माओवादियों का हताश कदम माना जाएगा.’
ऐसा नहीं कि यह कहानी पहली बार गोलू के जरिए ही सामने आई है कि बाल दस्ते में शामिल बच्चे क्या करते हैं. इसके पहले भी कई बार कई बच्चे ऐसी कहानियां सामने ला चुके हैं. जब-जब ऐसी बातें सामने आती हैं कुछ लोग चिंतित भाव से, कुछ रोमांच के साथ किस्से-कहानियों की तरह इन्हें पढ़ते हैं, जानते हैं, सुनते हैं और बात फिर खत्म हो जाती है. पुलिस पर सवाल उठाए जाते हैं. पुलिस पर सवाल उठाना लाजिमी भी है लेकिन माओवादियों को लेकर झारखंड पुलिस से सवाल पूछने का अब बहुत मतलब नहीं बनता. राज्य बनने के 15 साल बाद अब तक झारखंड सरकार माओवादियों के नाम पर कई योजनाएं चलाती रही है. आम आदमी से लेकर पुलिसवाले उन्हीं योजनाओं की तरह तेज रफ्तार से मारे भी जाते रहे हैं.
पहले की बात छोड़ भी दें तो जिस मार्च महीने में गुमला से गोमिया तक ऐसी खबरें आ रही थीं उसी मार्च के पहले हफ्ते में पुलिस और माओवादियों के बीच जुड़ी दूसरी खबर भी आ रही थी. खबर यह आई कि कोल्हान प्रमंडल के चाईबासा जिले के गुवा थाना क्षेत्र के बांका और रोआम गांवों में माओवादियों ने बैठक की. एक बार नहीं, कई बार. नक्सलियों से लड़ने के लिए झारखंड में राज्य पुलिस के जवानों के साथ ही जिला पुलिस बल, इंडियन रिजर्व बटालियन और झारखंड जगुआर के अलावा अर्धसैनिक बलों की 120 कंपनियां तैनात हैं. इन 120 में से 34 कंपनियां कोल्हान प्रमंडल में ही तैनात हैं, फिर भी जनवरी और फरवरी माह में यहां माओवादियों ने लगातार बैठक की.
‘नक्सल आंदोलन की जड़ें अब धीरे-धीरे खोखली होती जा रही है. उनका जन समर्थन कम हो रहा है. विचारधारा भी पहले से ज्यादा विकृत हो गई है’
माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘यह सब सरकारी तंत्र की फैलाई हुई अफवाह है. माओवादी किसी बच्चे को अपने दस्ते में जबर्दस्ती शामिल नहीं कर रहे. सरकार के स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती, खाने को भोजन नहीं मिलता. इस व्यवस्था से निजात पाने के लिए अभिभावक खुद माओवादियों से आग्रह करते हैं कि वे उनके बच्चे को अपने दस्ते में शामिल कर लें ताकि वह बड़ा होकर व्यवस्था को बदलने में सहयोग करे. पुलिस और मीडिया के लोग आपस में मिलकर यह अफवाह फैलाते हैं कि माओवादियों ने बच्चों को जबर्दस्ती उठाने की धमकी दी.
इन घटनाओं के बाबत कई पुलिस अधिकारियों की राय जानने की कोशिश करते हैं. चार मार्च को ‘नेचर एेंड डायमेंशन ऑफ माओइस्ट एक्सट्रीमिज्म इन झारखंड’ विषय पर हुए एक सेमिनार में पहुंचे कई अधिकारियों से बातचीत होती है. झारखंड पुलिस के एडीजीपी एसएन प्रधान कहते हैं, ‘नक्सल आंदोलन की जड़ें अब धीरे-धीरे खोखली होती जा रही है. उनका जन समर्थन कम हो रहा है. विचारधारा भी पहले से ज्यादा विकृत हो गई है.’ आईजी प्रोविजन आरके मलिक कहते हैं, ‘राजनीतिक दल सामान्य लोगों को प्रभावित करने में नाकाम दिखते हैं वहीं नक्सल अपनी बात मनवाने में लगे रहते हैं. नक्सल आंदोलन अब पैसे का खेल हो गया है. अब पैसा उगाहने के लिए ही हिंसा का खेल होता है.’ सीआईडी आईजी संपत मीणा कहती हैं, ‘सरकारी कर्मचारी सुदूर गांवों में जाने से कतराते हैं, जिससे नक्सल आंदोलन गांवों तक फैला है और वे तरह-तरह की गतिविधियों को बढ़ाने में सफल हो रहे हैं.’
महिलाओं और किशोरियों का नक्सलियों द्वारा शोषण हुआ है, सरकार अब यह बात जनता को बताकर लोगों को नक्सलियों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर रही है. सभी पुलिस अधिकारी सही ही बात कहते हैं. नक्सल आंदोलन की धारा पहले से विकृत हुई है. झारखंड जैसे राज्य में सिर्फ वैचारिक स्तर पर नहीं बल्कि दूसरे रूपों में भी कई निकृष्टतम गतिविधियां दिखती हैं. जैसे-बच्चों को उठाकर ले जाने या उठा ले जाने की धमकी देने से लेकर बच्चियों को उठा ले जाने की घटना तक होती है. ऐसी घटनाएं सूचना के तौर पर भी सामने नहीं आ पातीं. जानकार बताते हैं कि अगर पीएलएफआई जैसे संगठन यह सब करते हैं तो बात समझ में भी आती है क्योंकि वे माओवादी संगठन तो हैं भी नहीं. उनका तो एकसूत्रीय काम भयादोहन करके अपने साम्राज्य का विस्तार करना है ताकि अधिक से अधिक पैसा बनाया जा सके. लेकिन भाकपा माओवादी के लोग जब ऐसा करते हैं तब उनके पतन के गर्त में जाने की कहानी सामने आती है. भाकपा माओवादियों के भी इस तरह के कृत्य में शामिल होने की वजह दूसरी बताई जा रही है. बताया जा रहा है कि पिछले कुछ सालों में झारखंड में करीब 76 अलग-अलग संगठन खड़े हो गए हैं. सभी लगातार माओवादियों का ही नुकसान कर रहे हैं और उन्हें कमजोर कर रहे हैं. ऐसे में भाकपा माओवादी भी अपने घटते दायरे को बढ़ाने और अपनी साख बचाने के लिए ऐसे-वैसे रास्ते अपना रही है.