दस बलात्कार, दो हत्याएं, चार साल जांच… नतीजा शून्य

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दृश्य एक– मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में मुलताई तहसील का चौथिया गांव. अभी दिन की शुरुआत ही हुई है और इस कस्बे में सूरज की नर्म रोशनी धीरे-धीरे खेतों में फैल रही है. तभी अचानक लगभग 2,000 लोगों की एक हिंसक भीड़ ट्रैक्टरों और जेसीबी मशीन के साथ खेतों के बीच बने रास्ते से एक बस्ती की तरफ नारे लगाते हुए बढ़ती है.

दृश्य दो– भीड़ उस बस्ती में खड़े चंद पक्के मकानों को हथौड़ों से ठोक-ठोक कर गिरा रही है. जिन घरों को हथौड़ों से नहीं तोड़ा जा सकता उन्हें जेसीबी मशीन से गिराया जा रहा है. यहां सारी कच्ची झोपड़ियों में आग लगा दी गई है. लोगों के घरों का सामान लूटा जा रहा है. जिसे लूटा जाना संभव नहीं है उसमें आग लगा दी गई है.

 दृश्य तीन– भीड़ के इस कारनामे के बीच पुलिस, निर्वाचित राजनीतिक प्रतिनिधि और लंबे-चौड़े प्रशासनिक महकमे के कई अधिकारी मौजूद हैं. इनमें से राजनीतिक प्रतिनिधि लोगों को लगातार उकसा रहे हैं. लेकिन पुलिस और प्रशासन के अधिकारी इस अंदाज में पूरी कार्रवाई देख रहे हैं जैसे उन्हें इसकी देखरेख के लिए ही नियुक्त किया गया है.

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तमाशबीनः पारधीढाना में 11 सितंबर 2011 को आगजनी के दौरान फायर ब्रिगेड वाहन होने के बावजूद पुलिस मूकदर्शक बनी रही

मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में घटी इस घटना को दिखाने वाले इन नाटकीय दृश्यों पर बड़ी आसानी से सवाल उठाया जा सकता था यदि इनकी वीडियो रिकॉर्डिंग न की गई होती. सितंबर, 2007 के दौरान मुलताई में बसी 350 पारधी आदिवासियों की एक बस्ती इस दौरान तीन दिन तक सामूहिक और सुनियोजित हिंसा का शिकार बनी रही. पूरी बस्ती को नेस्तनाबूत करने के अलावा यहां 10 पारधी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. एक पारधी दंपति की हत्या की गई. और यह सब बाकायदा पुलिस, प्रशासन और क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामने हुआ.

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‘हमें तो अब अपने आप से चिढ़ होती है’

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कड़कती धूप के बावजूद एक ही आवाज देने पर बैतूल के उत्कृष्ट स्कूल मैदान में वहां रहने वाले सभी पारधी इकट्ठा होकर तुरंत जमीन पर बैठ जाते हैं. सितंबर, 2007 के चौथिया कांड के बारे में बताते हुए इनमें से कई लोग अपना शरीर खुजलाते हैं, कई घटना का नाट्य रूपांतरण करके बताते हैं, तो कई चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगते हैं. लेकिन जब इनसे 10 सितंबर की रात 10 पारधी महिलाओं के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बारे में पूछा जाता है तो अचानक ही धूल भरी जमीन पर बैठी इस भीड़ में सन्नाटा छा जाता है. फिर धीरे से भीड़ में बैठी महिलाओं में से छह औरतें अपने हाथ ऊपर उठाती हैं. हमें बताया जाता है कि हम छह ही से मिल सकते हैं, क्योंकि बाकी चार भीख मांगने गई हैं. जैसे ही चटक रंगों के मैले-कुचैले और फटे कपड़े पहने ये महिलाएं खड़ी होती हैं, उनके बुझे चेहरों और खामोश निगाहों को देखकर यह विश्वास कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कभी तीखे नैन-नक्श वाली ये सभी महिलाएं स्वाभाविक आदिवासी सौंदर्य और उल्लास का प्रतीक हुआ करती थीं. उनमें से एक धीरे से आकर कहती है कि वे सब अकेले में बात करेंगी. एक टूटी झोपड़ी के सामने बैठकर जब उन्होंने अपने साथ हुए इस ‘पुरातन पौरुष अपराध’ के बारे में बताना शुरू किया तब बीच में न जाने कितनी ही बार उन्होंने कुछ ही दूरी पर बैठे अपने रिश्तेदारों, पतियों और बच्चों की तरफ देखा और फिर अपनी निगाहें झुका लीं.

पीड़ित महिलाओं ने तहलका को बताया कि 10 सितंबर, 2007 की रात पुलिसवालों, राजनेताओं और आम लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था. संगीता पारधी, सुप्रि बाई, बसंती बाई, अंगूरा पारधी, कल्पना पारधी, सुनीता बाई, कमली बाई, बबली पारधी, बाया बाई और गुड्डी बाई नामक 10 पारधी महिलाओं ने अपने साथ हुए इस सामूहिक बलात्कार के बारे में पुलिस, नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (एनसीडीएनटी) और फिर सीबीआई के अधिकारियों को भी बताया था, पर किसी ने भी उनकी शिकायत आज तक दर्ज नहीं की है. बसंती बाई अपने सिर पर लगा जख्म दिखाते हुए कहती हैं, ‘मेरा मरद मुझे आज भी पीटता है. अक्सर रात को दारू पीने के बाद उसे याद आ जाता है कि चार साल पहले मेरा बलात्कार हुआ था.’ फिर कुछ देर चुप रहने के बाद अचानक अपने चेहरे पर एक पथरीली-सी भावशून्यता को लिए वे कहती हैं, ‘वह और मैं, हम लोग आज तक इस बात को मान नहीं पाए हैं कि मेरा बलात्कार हुआ है. मेरा मरद उन अपराधियों का तो कुछ नहीं कर सकता, इसीलिए मुझे मार कर ही अपना गुस्सा निकालता है.’ उस वीभत्स रात के घटनाक्रम को याद करते हुए संगीता आगे कहती हैं, ‘हमें एसडीओपी साकल्ले ने रोका था. उसने कहा कि वह हमें अपनी खाली गाड़ी से स्टेशन छुड़वा देगा पर जब अंधेरा हो गया और आठ बजने लगे तो हम लोगों ने इनसे कहा हमें भी हमारे आदमी और बच्चों के पास छोड़ दो, तब ये लोग हंसने लगे. साकल्ले ने कहा कि अब हमारे साथ भी वही होगा जो अनुसूइया के साथ हुआ. फिर हमें पकड़-पकड़ के कमरों में ले जाने लगे’ कहते-कहते उसकी आवाज भर्राने लगी और फिर रोते हुए उसने कहा, ‘दो-तीन आदमी एक-एक कमरे में थे मैडम जी. हमारी साड़ी-ब्लाउज सब फाड़ दिया और फिर हमारे साथ सबने बलात्कार किया.’ गौरतलब है कि संगीता पारधी का घर पूरे पारधीढाने में सबसे बड़ा था और पीड़ित महिलाओं का आरोप है कि उनका बलात्कार इसी घर के अलग-अलग कमरों में किया गया. अपने दो साल के बच्चे को संभालते हुए बबली कहती हैं, ‘पूरे साड़ी-लुग्गा फाड़ दिए थे हमारे. फिर संगीता बाई के घर में पड़े पुराने कपड़ों में से, जिसको जो मिला, वह वैसे ही गुड़-मुड़ करके पहन के निकला आया क्योंकि फिर हमें गाड़ियों में भरकर स्टेशन छोड़ा जाना था. वहां साकल्ले के साथ-साथ जगदीश, विजयधर, संजय यादव, राजा पवार, अशोक कड़वे जैसे कई लोग थे.’

इस घटना के बाद जहां बाया बाई के पति ने उन्हें छोड़ दिया वहीं गुड्डी बाई की पसलियां आज भी दर्द से टूटती हैं. गुड्डी अपनी कमर पकड़े हुए कहती हैं, ‘भीख मांगते-मांगते पेट दुख जाता है दीदी पर लोग खाना नहीं देते. उस दिन के बाद से आज तक मेरी पसलियां रोज दुखती हैं. पता नहीं क्यों, खुद से ही चिढ़ होती है.’

अपने साथ चार साल पहले हुए उस भयानक हादसे के तिरस्कार को ये सभी औरतें हर रोज, उतने ही दर्द के साथ जीती हैं. यह तिरस्कार तब और बढ़ जाता है जब सामंतवाद, जातिवाद और पक्षपात के अंधेरों में झूलता पुलिस-प्रशासन उनकी बातों को झूठा मानकर, उनके आरोपों के आधार पर एक एफआईआर तक दर्ज करने से इनकार कर देता है. [/box]

घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग से साफ पता चलता है कि किस तरह पुलिस और प्रशासन की खुली सहमति से बस्ती को उजाड़ा गया

इस घटना का सबसे अन्यायपूर्ण पहलू यह है कि दिन दहाड़े आगजनी और लगभग 85 पारधी परिवारों के घरों के लुटने और जलने के चार साल पूरे होने के बाद भी न तो इस कांड के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा हो पाई है और न ही इस ‘विमुक्त जनजाति’ के लोगों को दोबारा अपने उजड़े घरों तक जाने का मौका मिल पाया है.

पुलिस और प्रशासन से निराश होने के बाद दो साल लंबी जद्दोजहद के परिणामस्वरूप जब मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी तो पीड़ितों को न्याय की उम्मीद बंधी लेकिन जांच एजेंसी के रवैये से अब वह रही-सही उम्मीद भी धूमिल होती दिख रही है. सीबीआई जांच का आलम यह है कि घटना के चार साल बाद भी इस मामले में अदालती सुनवाई शुरू नहीं हो पाई है. अपनी दो साल लंबी जांच के दौरान तीन जांच अधिकारी बदल चुकी सीबीआई आज तक एक भी व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं कर पाई है. उधर, घोर सामाजिक अपमान, उपेक्षा और बहिष्कार झेल रहे पारधी आदिवासी हर मौसम में खुले आसमान के नीचे भीख मांगकर और पन्नी बीन कर जीवन गुजारने को मजबूर हैं.

देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही मध्य प्रदेश में भी पारधी आदिवासियों पर हो रही हिंसा की कोई एक त्वरित वजह नहीं है. हिंसा की वजह एक निचले और बेहद कमजोर अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध सदियों से जारी जातिगत हिंसा और ऊंची जातियों द्वारा उन पर अपने ऐतिहासिक राजनीतिक प्रभुत्व मानने के पुराने तंत्र में छिपी है. बैतूल में भी पारधियों के खिलाफ हिंसा को ऐतिहासिक-सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है. उनकी हत्या या उनकी महिलाओं के बलात्कार को भुनाकर यहां के स्थानीय नेता अपनी जातिगत श्रेष्ठता के साथ-साथ भारी चुनावी जीत की ट्रॉफियां भी लंबे समय से घर ले जाते रहे हैं. बैतूल में हुए चौथिया कांड को जानने से पहले इस घटना की पृष्ठभूमि पर एक नजर डालने से मालूम होता है कि पहले भी यहां पारधियों की हत्याएं और आगजनी की कई घटनाएं हुई थीं. इन सबमें प्रमुख था अगस्त, 2003 का घाट-अमरावती कांड. 30 अगस्त, 2003 को लगभग 100 लोगों की एक भीड़ ने घाट-अमरावती गांव में, गोथन नाम से बसे एक पारधी टोले के 10 घरों में आग लगा दी थी और तीन पारधियों की हत्या कर दी थी. इस मामले में गवाहों के पलट जाने से सभी अभियुक्त छूट तो गए पर अपना निर्णय सुनाते हुए अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट अनिल पोहरे का कहना था कि अभियोजन पक्ष की कमजोर पैरवी के चलते उन्हें आरोपियों को छोड़ना पड़ा. इस घटना के बाद घाट-अमरावती के ज्यादातर पारधी परिवारों ने वह गांव छोड़ दिया. अब वे चौथिया के पारधीढाने में ही आकर रहने लगे. लगभग 2,000 की जनसंख्या वाले चौथिया गांव में पारधी पिछले 20 साल से रह रहे थे. सन 1996 में चौथिया ग्राम पंचायत ने इंदिरा ग्राम आवास योजना के तहत 11 पारधी परिवारों को स्थायी निवास के लिए पट्टे दिए और पक्के मकान बनवाने के लिए सहायता राशि भी दी. कोई दूसरा आश्रय न होने की वजह से आसपास के सभी पारधी पारधीढाने में आकर रहने लगे. सितंबर, 2007 में उजड़ने से ठीक पहले यहां 350 पारधी आदिवासियों के 85 परिवार रहा करते थे.

अदालत ने कहा था कि प्रशासन और राजनेताओं के घटना में शामिल होने की वजह से पुलिस दबाव में काम कर रही थी

चौथिया कांड में हुई हिंसा की शुरुआत नौ सितंबर, 2007 को चौथिया के पास ही बसे सांडिया गांव की एक महिला के बलात्कार और हत्या से उपजे भारी जनाक्रोश से हुई. नौ सितंबर की सुबह सांडिया गांव में रहने वाली अनुसूइया बाई की अपने खेत में बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. कुनबी जाति की अनुसूइया की निर्मम हत्या से चौथिया और सांडिया के साथ-साथ आसपास के लगभग दस गांवों में त्वरित आक्रोश फैल गया. गांववालों को विश्वास था कि पारधीढाने के पारधियों ने ही अनुसूइया की हत्या की है. इसलिए आक्रोशित भीड़ ने इस बस्ती को जलाने का और तथाकथित अापराधिक प्रवृत्ति वाले पारधियों को क्षेत्र से खदेड़ने का निर्णय लिया. मामले की भनक पड़ते ही स्थानीय पुलिस और राजनेता अपने-अपने निहित उद्देश्यों के लिए हरकत में आ गए. सुखदेव पांसे और राजा पवार जैसे स्थानीय नेताओं ने गांववालों को पारधियों के खिलाफ भड़काया और प्रशासन के उनके साथ होने का विश्वास दिलाया. वहीं स्थानीय पुलिस अनुसूइया बाई के हत्यारों की खोज में पूरे पारधीढाने को ही खाली करवाकर मुलताई पुलिस स्टेशन ले गई. गौरतलब है कि चौथिया और सांडिया के साथ-साथ क्षेत्र के ज्यादातर गांवों में कुनबी जाति के मराठा क्षत्रिय ही रहते हैं और पारधी अल्पसंख्यक हैं. अनुसूइया की हत्या महाराष्ट्र के अमरावती जिले में रहने वाले दो पारधियों ने की थी, जिन्हें घटना के एक दिन बाद ही पकड़ लिया गया. स्थानीय पुलिस के अनुसार  भूरा और धर्मराज नामक अनुसूइया बाई की हत्या के दो संदिग्ध आरोपितों को पकड़ने में चौथिया गांव के पारधियों ने ही उनकी सहायता की थी. अनुसूइया बाई की हत्या के आरोप में गिरफ्तार भूरा और धर्मराज पिछले चार साल से जेल में हैं और मामले की सुनवाई चल रही है.

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अनुसूइया बाई की हत्या की खबर फैलते ही मुलताई पुलिस ने चौथिया गांव के पारधीढाना टोले पर छापा मारा. रविवार की उस सुबह के घटनाक्रम को याद करते हुए गजरी पारधी बताती हैं, ‘सुबह लगभग पौने नौ बजे तक पुलिस ने हमारे पूरे पारधीढाने की घेराबंदी कर दी थी. टोले में मौजूद सारे आदमियों, औरतों और बच्चों को लाइन बनवाकर खड़ा करवा दिया गया. फिर पुलिस सबको पुलिस-गाड़ी में ठूंस कर मुलताई पुलिस स्टेशन ले गई. अगले दिन दस सितंबर की दोपहर तक पुलिसवाले अमरावती से भूरा और धर्मराज को पकड़ लाए. उनके बारे में पुलिस को सारी जानकारी हम लोगों ने ही दी थी. फिर शाम तक पुलिसवालों ने हमें दुबारा गाड़ियों में भरकर वापस चौथिया छोड़ना शुरू कर दिया. वहीं पर कुछ लोगों को एक पन्ना पकड़ाने लगे. बाद में पता चला कि यह कागज किसी नोटिस का था. उन्होंने हमसे कहा कि अभी इसी वक्त अपना घर छोड़ दो, तुम्हें मुलताई स्टेशन पहुंचाया जाएगा.’ अब तक दस सितंबर की शाम हो चुकी थी. अनुसूइया बाई की हत्या के संदिग्ध आरोपित पकड़े जा चुके थे और मुलताई पुलिस ने पारधीढाना खाली करवाकर पारधियों को मुलताई से बाहर भगाना शुरू कर दिया था. अपने तत्कालीन बयान में एसडीओपी (प्रमुख पुलिस अनुभागीय अधिकारी) डीके साकल्ले ने यह बात स्वीकार की है कि पुलिस सुरक्षा की दृष्टि से इलाके को खाली करवा रही थी. 25 वर्षीया कपूरी पारधी आगे बताती हैं, ‘हमें बिलकुल मोहलत नहीं दी गई. कोई सामान, पैसे या जरूरत की चीजें साथ नहीं ले जाने दी गईं. हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि हमें घरों से निकालकर कहां भेजा जा रहा है.’ पारधियों का कहना है कि पुलिस ने झूठ बोल कर उन्हें उनके घरों से निकाला. पूरे मामले पर पारधियों का नेतृत्व कर रहे अलसिया पारधी ने तहलका को बताया, ‘उस रात पुलिसवालों ने हमसे कहा कि गांव में हमारी जान को खतरा है. खुद एसडीओपी साकल्ले साहब ने मुझसे कहा था कि पुलिस हमारे घरों की रक्षा करेगी. अगर गांववाले हमारे घर तोड़ने आएंगे तो उन्हें आंसू गैस से रोकेगी. पर हमें क्या मालूम था कि पुलिस खड़े होकर हमारे घरों को उजड़वा देगी.’ दस सितंबर की रात चौथिया गांव के सभी पारधियों को पुलिस की गाड़ियों में भरकर मुलताई स्टेशन छोड़ दिया गया, जहां से धीरे-धीरे ट्रेन बदल-बदल कर सभी अगली सुबह तक भोपाल पहुंचे.

बहुसंख्यक समुदाय की एक महिला की हत्या के संदिग्धों की गिरफ्तारी पारधियों की निशानदेही पर ही की गई थी

पारधियों का कहना है कि दस सितंबर की रात उनके समुदाय की दस महिलाओं को रोककर स्थानीय पुलिस और प्रशासन के लोगों के उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया. (देखें व्यथा कथा-1)  नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (विमुक्त, घुमंतू और खानाबदोश जनजातियों के लिए बनाया गया राष्ट्रीय आयोग) ने मामले पर जारी अपनी रिपोर्ट में भी इन सामूहिक बलात्कारों का उल्लेख किया है. संगीता पारधी घटनाक्रम की जानकारी देते हुए कहती हैं, ‘साकल्ले ने सबको गाड़ी में बिठा के भेज दिया पर मुझसे बोला कि तुम लोग रुक जाओ. मेरी गाड़ी में तुम लोगों को छुड़वा दूंगा. यह कहकर उसने मेरे साथ सुप्रि, बसंती, गुड्डी, कल्पना, बबली, सुनीता, अंगूरा, कमली बाई और बाया बाई को भी रोक लिया.’ संगीता की बात से सहमति जताते हुए बसंती आगे बताती हैं, ‘पर कई घंटे बाद भी वह हम लोगों को स्टेशन छोड़ने नहीं ले गया तो हम लोगों ने कहा कि हमें भी हमारे आदमियों के साथ जाने दिया जाए. फिर उन लोगों ने कहा कि जैसा सांडिया वाली बाई के साथ हुआ, वैसा अब तुम्हारे साथ भी होगा. वहां साकल्ले के साथ-साथ जगदीश, विजयधर, संजय यादव, अशोक कड़वे जैसे कई लोग थे. उन सबने हमारे कपड़े फाड़े और हमारा बलात्कार किया. फिर हमें मुलताई स्टेशन छुड़वा दिया गया. हम 11 सितंबर की शाम तक भोपाल पहुंचे जबकि हमारे परिवारवाले सुबह से ही भोपाल स्टेशन के सामने सड़क पर बैठे थे. हमने सबको बताया कि हमारा बलात्कार हुआ है, आयोग को, सीबीआई को, पुलिस को, पर किसी ने हमारी रिपोर्ट नहीं लिखी….दवा भी नहीं दी.’

महिलाओं के साथ बलात्कार की यह घटना हिंसा के तांडव की आखिरी कड़ी नहीं थी. 11 सितंबर को सुबह से ही आसपास के लगभग 10 गांव के लोग पारधीढाने के आसपास इकठ्ठा होने लगे. सुबह आठ बजे तक ट्रैक्टरों में बैठकर आए लगभग 400 लोग यहां जमा हो गए. सुबह के 10 बजते-बजते यह भीड़ दो हजार का आंकड़ा पार कर गई. लोगों की आक्रोशित भीड़ ने पारधियों की बस्ती को लूटना, तोड़ना और जलाना शुरू कर दिया. बस्ती में मौजूद कुल 85 घरों में से 16 पक्के मकान थे और लगभग 69 झुग्गियां. पक्के मकानों को तोड़ने के लिए जहां जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल किया गया वहीं झोपड़ियों को लोहे की सब्बलों और हथौड़ों से मार-मार कर तोड़ दिया गया. पारधियों के घरों में मौजूद इस्तेमाल लायक सारा सामान लूट लिया गया. पुराने बर्तन-भांडों को जला दिया गया. इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एसडीओपी डीके साकल्ले, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक डीएस ब्राजोरिया, एसडीएम वीआर इंगले और मुलताई के तहसीलदार एसके हनोथिया मौके पर मौजूद थे. बड़ी संख्या में तैनात किया गया पुलिस बल और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां भी मौके पर खामोश खड़ी रहीं. दोपहर दो बजे के आसपास पुलिस अधीक्षक जेएस संसवाल और जिला कलेक्टर अरुण भट्ट भी मौका-ए-वारदात पर पहुंच गए. घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग से साफ पता चलता है कि किस तरह पुलिस और प्रशासन की खुली सहमति से पारधियों की बस्ती को उजाड़ा गया. भीड़ को उकसाने का काम स्थानीय निर्वाचित नेताओं ने किया. मुलताई जिला पंचायत से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य राजा पवार ने आगे बढ़कर पारधियों के घर तुड़वाए वहीं उस समय मसूद से कांग्रेस के विधायक सुखदेव पांसे ने हंसते हुए कहा कि उनकी पार्टी के संजय यादव ने ही ‘पारधी बस्ती को उजाड़ने के इस बढ़िया काम’ की शुरुआत की. मौके पर मौजूद भाजपा और कांग्रेस के सभी नेताओं ने पारधियों को खुले आम ‘पैदाइशी अपराधी’ कहकर कोसा और उन्हें अपशब्द कहे. मीडिया को मौका-ए-वारदात से दिए अपने बयानों में क्षेत्र के सभी प्रमुख निर्वाचित प्रतिनिधियों ने पारधियों को ‘अपराधी जाति’ कहकर आगजनी का खुला समर्थन किया. 16 सितंबर को क्षेत्र से पारधियों के ‘सफाए’ की खुशी में स्थानीय नेताओं ने मुलताई में एक सभा आयोजित करवाई जिसके अध्यक्ष तत्कालीन राजस्व मंत्री कमल पटेल थे. सभा की वीडियो रिकॉर्डिंग और प्रत्यक्षदर्शीयों से पता चलता है कि सभा में सभी नेताओं ने पारधियों की तुलना राक्षस-अपराधियों से करते हुए उनके खिलाफ जनता को भड़काया. इसी बीच बस्ती के जलने के बाद 12 सितंबर को एक पारधी दंपति का शव गांव से बरामद किया गया. चौथिया अग्निकांड के दौरान डोडा बाई के सामूहिक बलात्कार के बाद बोंदरू और डोडा बाई की पत्थर मार-मार कर हत्या कर दी गई थी (देखें व्यथा कथा-2).

चौथिया कांड के बाद सामूहिक बलात्कार, नृशंस हत्याएं और अपनी बस्ती के उजाड़ कर जला दिए जाने जैसे कई कभी न भरने वाले जख्म अपने जेहन में लेकर पारधी लगभग एक महीने तक भोपाल में रहे. सुरमा बाई बताती हैं, ‘शुरू के एक हफ्ते तो हम स्टेशन के पास भीख मांगते रहे. फिर हमें शास्त्री नगर के एक हॉल में रखा गया. फिर छह अक्टूबर, 2007 की सुबह पुलिस हमें भोपाल से बैतूल की सरहद पर बसी बटेरा बस्ती में छोड़ गई. बाद में पता चला कि बटेरा जंगल में बसा कोई वन-ग्राम है. सरकार हमें आटा भिजवाती थी इसलिए हम वहां पन्नी की झुग्गियां बनाकर रहने लगे. फिर अचानक उन्होंने आटा देना बंद कर दिया. वहां जंगल में हम पन्नी भी नहीं बीन सकते थे और हमें कोई भीख भी नहीं देता, इसीलिए 2010 में हम बैतूल आ गए.’

आज बैतूल के उत्कर्ष मैदान में पारधी-धने के लगभग 300 पारधी पन्नी की झुग्गियों में रहते हैं. 35 वर्षीय कमलया पारधी कहते हैं, ‘अब हम भीख मांग कर खाते हैं. हमें कोई काम नहीं देता, इसलिए भीख में मिली सूखी रोटियों को पानी में भिगोकर बच्चों को खिलाते हैं. पर सर्दियों में गिरते पाले के नीचे सोना पड़ता है.’

‘सीबीआई ने बलात्कार पीड़ित महिलाओं के बयान तो लिए हैं लेकिन जांच पुलिस एफआईआर के आधार पर ही कर रही है’

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‘यदि वे हमें देख लेते तो हमें भी मार डालते’

भोंदरू और डोडेल बाई (उर्फ डोडा बाई) अपने बच्चों लंगडू और राम प्यारी के साथ चौथिया गांव के पारधीढाने में रहते थे. अनुसूइया बाई की हत्या के दिन यह पारधी दंपति अपने बच्चों और दूसरे पारधियों के साथ लगभग 13 लोगों के समूह में बकरियां चराने जंगल की तरफ निकला था. दस सितंबर की रात ये लोग अपने घर की तरफ लौट रहे थे तब पारधीढाने में हलचल और धुएं के उठते गुबार से आशंकित इन लोगों ने बस्ती से कुछ दूरी पर ही ठहरने का फैसला किया. हालांकि गुस्से और नफरत की आग में जल रहे स्थानीय लोगों ने उन्हें एक रात से ज्यादा वक्त नहीं दिया. वहशियों की तरह क्षेत्र के चप्पे-चप्पे में पारधियों के निशान ढूंढ़ रहे गांववालों ने आखिर भोंदरू और डोडल बाई को देख ही लिया. उन्होंने डोडल बाई के सामूहिक बलात्कार के बाद उसे कुएं में फेंक दिया और पत्थर मार-मार कर भोंदरू की हत्या कर दी. 11 सितंबर, 2007 की सुबह हुई इस घटना के लगभग 11 चश्मदीद गवाह हैं, लेकिन मामले में आज तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है. मामले के चश्मदीद गवाह सौदागीर पारधी बताते हैं, ‘हमने देखा कि टोले में बहुत हल्ला हो रहा था, अजीब-सा धुआं उठ रहा था और लोग चिल्ला रहे थे. खतरा महसूस हुआ तो हम टोले से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर रुक गए. उस रात बहुत बारिश हो रही थी, इसलिए हम लोग खेत में बने एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गए. सुबह आंख खुली तो देखा कि टोले में आग लगी है और बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भरकर लोग आ रहे हैं. हम लोग बहुत डर गए और भागने लगे मगर बीच में ही एक ट्रैक्टर पर आ रहे लोगों ने भोंदरू और डोडल बाई को देख लिया.’

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अपने मां और पिता की हत्या के बारे में पूछने पर लगभग 17 साल की रामप्यारी जमीन को खामोशी से देखने लगती है. फिर अपने भाई लंगडू की तरफ देखते हुए धीरे से कहती है, ‘उस दिन नीले रंग की साड़ी पहनी थी मेरी माई ने. उन लोगों ने उसे धक्का मार कर जमीन पर गिरा दिया और उसकी नीली साड़ी फाड़ डाली.’ इतने में रामप्यारी की खामोश सिसकियों को सुन कर लंगडू बातचीत आगे बढ़ाते हुए कहता है,  ‘ मैंने देखा कि ट्रैक्टर से संजय डॉक्टर (कांग्रेस के मुलताई ब्लॉक अध्यक्ष) लोगों की भीड़ को लेकर उतरे और बाबा को देखते ही चिल्लाए कि आज इन पारधियों को जिंदा नहीं छोड़ना है. फिर उन्होंने बाबा को फत्तर (पत्थर) मार कर गिरा दिया और उन्हें बार-बार फत्तर मारने लगे. फिर चिल्ला कर बोले कि जैसा सांडिया वाली बाई के साथ हुआ,  वैसा ही इस बाई के साथ होगा. फिर माई को फत्तर मार कर गिरा दिया और एक-एक करके लगभग 10 लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया. पहले वह चिल्लाती रही और फिर धीरे-धीरे खामोश हो गई. वहां बहुत सारे लोग थे और अगर हम विरोध करते तो सब मार दिए जाते. इसीलिए हम छिप कर सब कुछ देखते रहे, कुछ नहीं कर सके.’ सौदागीर आगे बताते हैं, ‘फिर उन लोगों ने डोडा को उठाकर पास के कुएं में फेंक दिया. जब उसे उठाया तो उसकी मुंडी लुज-लुज करके नीचे लटक रही थी. मुझे लगता है कि तब तक वह मर चुकी थी. भोंदरू के शरीर से भी बहुत खून बह रहा था. भीड़ के जाने के कुछ देर बाद हम लोगों ने जाकर भोंदरू को देखा तो वह मर चुका था.’

सीबीआई की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, बोंदरू पारधी का शव 12 सितंबर को अजाइब राव देशमुख के खेतों से और उसकी पत्नी डोडल बाई का शव 14 सितंबर को उसी खेत के एक कुएं से बरामद किया गया था. मामले को दबा कर रफा-दफा करने की फिराक में लगी मुलताई पुलिस ने कहा कि दोनों मामलों में पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट कहती है कि यह डूबने से हुई स्वाभाविक मृत्यु है.

इस घटना से जुड़ी कागजी कार्रवाई के पूरी करने के लिए जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट को भोपाल में बैठने वाले प्रदेश के मुख्य फोरेंसिक एक्सपर्ट डॉ डीके सतपथी के पास भेजा गया तो उन्होंने मृतकों की तस्वीरें देखते ही साफ कह दिया कि यह हत्या है. लगभग चार साल गुजर जाने के बाद 4 जुलाई, 2011 को फाइल की गई अपनी रिपोर्ट में सीबीआई ने लिखा है कि सतपथी ने पोस्टमार्टम में कई गलतियां बताई हैं. उन्होंने कहा है, ‘मृतकों की पीठ पर लाठी के मारे जाने के कई निशान हैं और उनकी खोपड़ी फूटी हुई है. इसलिए मृत्यु डूबने से नहीं बल्कि चोटों के कारण बहे खून और नसें फट जाने की वजह से हुई है.’ सीबीआई ने हत्या का मामला दर्ज करके मामले को गहन तफ्तीश के लिए दिल्ली के एम्स अस्पताल की एक विशेष फोरेंसिक टीम के पास भेज दिया है. सीबीआई ने भोंदरू और रामप्यारी के साथ-साथ पांच और लोगों के बयान भी लिए हैं, पर अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है. [/box]

चौथिया कांड की तफ्तीश में पूरे मामले की वीडियो रिकॉर्डिंग अदालत और सीबीआई को सौंपने वाले स्थानीय टीवी पत्रकार अकील एहमद और रेशू नायडू को भी स्थानीय राजनीतिक हलकों से कई बार अपने बयान वापस लेने के लिए धमकियां मिल चुकी हैं. गौरतलब है कि अकील और रेशू आगजनी के पूरे मामले में चश्मदीद गवाह हैं और उन्होंने मामले की लाइव रिकॉर्डिंग को अदालत में प्रमाणित भी किया है. मौका-ए-वारदात पर सबसे पहले पहुंचने वाले रेशू बताते हैं, ‘11 सितंबर को जब मैं पारधियों की बस्ती में पहुंचा तो मेरे सामने तीन भरे हुए ट्रैक्टरों से लोग नीचे उतरे और नारे लगाते हुए पारधियों की झोपड़ियां तोड़ना शुरू कर दिया.

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जंगलराजः पारधीढाने में बने पक्के मकानों को जेसीबी मशीन से ढहाया गया

धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी. राजा पवार खुद जेसीबी मशीन पर चढ़कर अलसिया पारधी का मकान तुड़वा रहा था जबकि सुखदेव पांसे और संजय यादव लोगों को भड़का रहे थे और कह रहे थे कि इन अपराधियों के घर जला दो.’ रेशू से सहमति जताते हुए अकील आगे कहते हैं, ‘पूरा प्रशासन और पुलिस महकमा वहां चुपचाप खड़ा था. उनके पास फायर ब्रिगेड की गाड़ियां थीं और आंसू गैस भी थी, लेकिन उन्होंने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कुछ नहीं किया. दोपहर के बाद कलेक्टर और एसपी भी मौके पर पहुंचे और आगजनी को सही ठहराते हुए कहने लगे कि अनुसूइया बाई की मौत की वजह से लोगों में जनाक्रोश है.’

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कौन हैं पारधी?

पारधी शब्द का उद्भव मराठी के ‘पारध’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ बहेलिया या शिकारी होता है. यह महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश राज्यों में पाए जाने वाली आदिवासियों की एक विमुक्त जनजाति है. पारधियों के बारे में एक प्रचिलित ऐतिहासिक किंवदंती है कि मुगलों के खिलाफ हुए हल्दीघाटी के युद्ध में पारधियों ने महाराणा प्रताप की सहायता करने के लिए उनकी तरफ से युद्ध लड़ा और हारने के बाद यह प्रण लिया कि जब तक उनका राजा दर-दर भटक रहा है, वे भी एक जगह नहीं रहेंगे. इस घटना को उनके बंजारा स्वभाव के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण माना जाता है. अपने स्वभाव से पारधी बहुत फुर्तिले, बुद्धिमान और अपनी शारीरिक बनावट में बलिष्ट होते हैं. इन्हें जंगल के पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों, पक्षियों और जानवरों के बारे में गहन जानकारी रहती है. पुरातन काल से पारधी वन और वन्य-उत्पादों के जरिए ही अपना आजीविका चलाते रहे हैं. स्वभाव से ही विद्रोही होने के कारण पारधियों ने अंग्रेजों का भी खुला विरोध किया. इसलिए अंग्रेजों ने सन 1871 में क्रिमिनल ट्राइब्स एेक्ट  पास करके पारधियों के साथ-साथ 50 अन्य बंजारी जनजातियों को भी प्रतिबंधित कर दिया. तब से ही पारधियों को एक आपराधिक जाति के तौर पर देखा जाने लगा. पुलिस इन्हें जब-तब पकड़ लेती और आम जनता भी इन्हें हिकारत भरी निगाहों से देखती है. धीरे-धीरे ये बंजारी जातियां एक ख़ामोश सामाजिक बहिष्कार का शिकार हुईं. डॉ अंबेडकर के प्रयासों से सन 1952 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट  को निरस्त कर दिया गया. अब क्रिमिनल  शब्द की जगह डिनोटिफाइड  शब्द का उपयोग किया जाने लगा और ‘आदतन अपराधी अधिनियम’ नाम का एक नया कानून लागू किया गया.’ क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट ‘ तो खत्म हो गया, पर पारधियों के प्रति लोगों का नजरिया आज तक नहीं बदला. चौथिया कांड से विस्थापित हुए लगभग 350 पारधी फिलहाल बैतूल जिले में बने दो अलग-अलग कैंपों में जीवन गुजार रहे हैं. इनके स्थायी पुनर्वास की बात आज भी केंद्र और राज्य के बीच चक्कर लगाती कागजी फाइलों में कैद है. चौथिया कांड के तुरंत बाद तत्कालीन बैतूल कलेक्टर अरुण भट्ट ने पारधियों के पुनर्वास के लिए एक योजना बनाई. चारों तरफ से ऊंचे कटीले तारों से घिरी एक बड़ी इमारत में पारधियों को कैद करने जैसे हल सुझाने वाली इस नाजी योजना की कड़ी आलोचना हुई. अगस्त, 2010 में मध्य प्रदेश मानव अधिकार आयोग ने पारधियों के पुनर्वास की मांग करते हुए हाई कोर्ट में एक अपील दायर की. अक्टूबर, 2010 में इस अपील का जवाब देते हुए राज्य सरकार ने जानकारी दी कि पारधियों के पुनर्वास के लिए राज्य सरकार ने एक लिखित प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. इस विस्तृत प्रस्ताव में राज्य सरकार ने पारधियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास और दक्षतावृद्धि प्रशिक्षण का प्रावधान बनाया था. चार करोड़ 42 लाख रुपये के बजट आवंटन की आस में यह प्रस्ताव सन 2009 से केंद्र के सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण विभाग में लंबित पड़ा है. [/box]

पारधियों की हत्या या उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार को भुनाकर स्थानीय नेता सालों से यहां चुनाव जीतते रहे हैं

बैतूल में पारधियों के साथ हुए अत्याचारों की अदालती लड़ाई सितंबर, 2007 से ही जारी है और यह देश के उन चुनिंदा मामलों में से है जिसमें किसी विमुक्त जनजाति पर हुए अत्याचार की गंभीर जांच के लिए अदालत ने मामला सीबीआई को सौंपा हो. चौथिया कांड में पारधियों की तरफ से अदालती लड़ाई लड़ रहे सामाजिक कार्यकर्ता और समाजवादी जन परिषद के सदस्य अनुराग मोदी कहते हैं, ‘जिस अपराध में पुलिस खुद ही शुरू से सहभागी रही हो, उस मामले में पुलिस से निष्पक्ष जांच की उम्मीद करने का तो सवाल ही नहीं उठता. प्रमाणित वीडियो रिकॉर्डिंग, दो चश्मदीद गवाहों और नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (एनसीडीएनटी) की फटकार लगाती हुई रिपोर्ट के बाद भी पुलिसवालों ने दो साल तक कोई कार्रवाई नहीं की. यहां तक कि पारधी औरतों के लगातार कहने के बाद भी उन्होंने सामूहिक बलात्कार को एफआईआर में दर्ज तक नहीं किया. वह तो जस्टिस पटनायक थे जिन्होंने हिंसा के इस तांडव की दोनों सीडी अदालत में देखीं वर्ना जिन लोगों को पूरा समाज जन्म से ही अपराधी मानता हो उनकी सुनने वाला कौन होता है?  दो साल की कड़ी लड़ाई के बाद आखिर अगस्त, 2009 को हाई कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंप दिया.’ लेकिन अनुराग और उनके वकील राघवेंद्र झा को कुछ ही दिनों में महसूस हो गया कि सीबीआई भी जांच में कोताही बरत रही है. अनुराग बताते हैं, ‘हमने तुरंत दूसरी याचिका दाखिल करते हुए अदालत से कहा कि सीबीआई जांच की प्रोग्रेस रिपोर्ट फाइल करे.’ जांच शुरू होने के लगभग छह महीने बाद जांच अधिकारी एमएस खान ने मात्र तीन पन्ने की अपनी रिपोर्ट में लिखा कि उन्होंने तीन ट्रैक्टर और एक जेसीबी मशीन जब्त कर ली है और पूछताछ जारी है. खान की रिपोर्ट को हास्यास्पद बताते हुए अनुराग आगे जोड़ते हैं, ‘यह बहुत आश्चर्य की बात है कि वीडियो रिकॉर्डिंग और चश्मदीदों की गवाही के बावजूद छह महीने में सीबीआई कुछ ट्रैक्टर ही जब्त कर पाई, उस पर भी उन्होंने गाड़ी के मालिकों को दोषी नहीं बनाया. हाई कोर्ट ने सीबीआई को मामला सौंपते हुए अपने निर्णय में लिखा था कि पुलिस चौथिया कांड और भोंदरू-डोडा बाई की हत्या के मामलों की शुरू से ढीली जांच कर रही है. कोर्ट ने यह भी लिखा था कि स्थानीय राजनेताओं और प्रशासन के मामले में शामिल होने की वजह से पुलिस राजनीतिक दबाव में आ गई है इसीलिए सीबीआई को मामला सौंपा जा रहा है. पर अफसोस की बात है कि मामले की जांच को लेकर सीबीआई का रवैया भी संदेहास्पद है.

इतने खुले मामले में सीबीआई जांच के दो साल गुजर जाने के बाद भी आज तक एक भी अपराधी गिरफ्तार नहीं किया गया.’ पूरे मामले की छानबीन में सीबीआई की स्थिति हाल ही में जांच एजेंसी द्वारा चार जुलाई, 2011 को जबलपुर स्थित हाई कोर्ट में प्रस्तुत की गई ताजा प्रोग्रेस रिपोर्ट से जाहिर होती है (सभी अदालती दस्तावेजों और वीडियो रिकॉर्डिंग की एक प्रति तहलका के पास मौजूद है). रिपोर्ट में लिखा गया है कि भोंदरू-डोडा बाई के कत्ल के शव-परीक्षण पर विरोधाभासी मत होने की वजह से मामले को दिल्ली के एम्स अस्पताल की एक विशेष कमेटी के पास भेजा जा रहा है. रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि ग्राम पंचायत ने कलेक्टर की अनुमति के बिना, पारधी परिवारों को नोटिस पीरियड दिए बिना और उनकी बात सुने बिना ही गैरकानूनी तरीके से अतिक्रमण हटाया है. उस पर जिन 11 मकानों को कानूनी पट्टे मिले थे उन्हें भी नियमों को ताक पर रख कर हटाया गया. बिंदु क्रमांक 5.7 में रिपोर्ट यह बताती है कि केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार सभी पारधियों को घर खाली करने के नोटिस नहीं दिए गए थे. वीडियो रिकॉर्डिंग के बारे में केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की जांच का हवाला देते हुए जांच एजेंसी ने कहा है कि पड़ताल में वीडियो फुटेज सही पाए गए. इस मामले में अब तक 250 लोगों के बयान ले चुकी सीबीआई अभी तक दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाई है. पारधी महिलाओं के सामूहिक बलात्कार को एफआईआर में शामिल न करने के लिए जांच एजेंसी को आड़े हाथों लेते हुए राघवेंद्र कहते हैं, ‘ मेरे क्लाइंट ने मुझे बताया है कि इस मामले में उनसे गहन पूछताछ की गई है. जिन दस पारधी महिलाओं का बलात्कार हुआ था, उन सभी से सीबीआई ने न सिर्फ पूछताछ की बल्कि उनके बयानों की वीडियो रिकॉर्डिंग भी हुई. मगर जांच एजेंसी आज भी मुलताई पुलिस द्वारा दायर एफआईआर पर ही काम कर रही है. जांच और सुनवाई की बात तो दूर, उन्होंने आज तक बलात्कार के मामले दायर ही नहीं किए.’

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बेआसराः पारधीढाना के पारधी फिलहाल बैतूल के दो शिविरों में रह रहे हैं

इस मामले में सीबीआई की ढिलाई का सिर्फ यही उदाहरण नहीं है. जांच अधिकारी खान के स्थानांतरण के बाद इस मामले की जांच के लिए एक दूसरे अधिकारी एसएल गुप्ता को नियुक्त किया गया, लेकिन इस नियुक्ति पर सवाल उठने के बाद सीबीआई की तहकीकात कानूनी पेंचों में उलझती नजर आ रही है. दरअसल जनवरी, 2011 में इस मामले की जांच अपने हाथ में लेने वाले एसएल गुप्ता को तकरीबन सात महीने बाद अचानक यह कहकर हटा दिया गया कि उनकी नियुक्ति मात्र एक परामर्श अधिकारी के तौर पर हुई थी. इस फेरबदल से केस पर पड़ने वाले असर के बारे में बताते हुए अनुराग कहते हैं, ‘गुप्ता ने मामले पर काफी काम किया है और बयान भी लिए हैं. अगर वे तहकीकात के लिए अधिकृत नहीं थे तो उन्हें जांच क्यों करने दी गई? यह बात केस को बहुत कमजोर बना देगी क्योंकि अदालत में इन सात महीनों की तहकीकात के अवैध घोषित होने का भी डर है.’ इस बारे में जब गुप्ता ने तहलका से बात की तो उनका कहना था, ‘मुझे भी नहीं पता कि मुझे जांच अधिकारी से परामर्श अधिकारी क्यों और कैसे बना दिया गया. मेरी नियुक्ति जांच अधिकारी के तौर पर हुई थी और इससे पहले भी सीबीआई के लिए कई मामलों में बतौर जांच अधिकारी छान-बीन कर चुका हूं.’ हालांकि सीबीआई का कहना है कि अपने सात महीने के कार्यकाल के दौरान गुप्ता ने कोई तफ्तीश नहीं की. सीबीआई की प्रवक्ता धारिणी मिश्रा तहलका को अपने लिखित जवाब में बताती हैं, ‘श्री एमएस खान के बाद जांच श्री एसएल गुप्ता को सौंपी गई और सहायता के लिए दो इंस्पेक्टर भी दिए गए. पर उनके काम का स्वभाव मुख्यतः पत्राचार और सुपरविजन से जुड़ा था. 21 जुलाई, 2011 को परामर्श अधिकारी के तौर पर उनकी पुनः नियुक्ति के बाद मामला अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक श्री एनके शर्मा को दे दिया गया. इस फेरबदल की वजह से अगर केस की सुनवाई पर कोई प्रभाव पड़ता है तो सीबीआई जरूरी कदम उठाएगी.’ इस मसले पर कोर्ट में बहस तो अभी बाकी है पर घटनाक्रम में आए इस ताजा परिवर्तन ने इतने संवेदनशील मामलों में भी जांच से लेकर जांच अधिकारियों की नियुक्ति तक जारी सीबीआई के लापरवाह रवैये पर सवालिया निशान तो खड़े किए हैं.

सीबीआई की तरफ से इस मामले की जांच सात महीने तक उस अधिकारी के हाथ में रही जो इसके लिए अधिकृत ही नहीं था

अपने गांव से पारधियों को भगाकर चौथिया का तथाकथित ‘नस्लीय शुद्धिकरण’ करने वाले गांववाले पारधियों का चेहरा दुबारा नहीं देखना चाहते. चौथिया कांड का दूसरा पहलू जानने के लिए जब तहलका की टीम बैतूल से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चौथिया गांव पहुंची तो मालूम हुआ कि चौथिया आज भी पारधियों के खिलाफ नफरत में जल रहा है. पारधियों की किसी भी तरह की वापसी को नामुमकिन बनाने के लिए गांववालों ने पारधीढाने में आम के पेड़ लगा दिए हैं. आज एक सपाट मैदान पर किसी पनपते हुए आम के बगीचे की तरह नजर आने वाले पारधीढाने को देखकर यह विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि इस जमीन पर कभी 350 लोगों की एक बस्ती हुआ करती थी. हालांकि इतने पौधारोपण और सफाई के बाद भी गांववाले सितंबर की हिंसा के निशान मिटा नहीं पाए हैं. मैदान में पड़े अलसिया पारधी के घर के मलबे के कुछ टुकड़े रोंगटें खड़े कर देने वाले उन हिंसक अपराधों की गवाही आज भी देते हैं.  चौथिया गांव के तत्कालीन सरपंच कचरू बरंगी बताते है, ‘अगर पारधी वापस आए तो हम सब आत्महत्या कर लेंगे. उन्होंने हमारा जीना मुश्किल कर दिया था. हम आसपास के सभी गांववालों में उनके लिए भयंकर गुस्सा था. वे तो जन्म से ही अपराधी थे, कभी हमारी फसल चुरा लेते थे, कभी महिलाओं को तंग करते थे. इसलिए हम लोगों ने उन्हें भगाया. इस मामले में अगर हमें जेल भी हो जाए तो जेल जाएंगे लेकिन पारधियों को यहां वापस नहीं आने देंगे.’ गांववालों का मानना है कि अनुसूइया बाई की ‘शहादत’ से पूरे क्षेत्र में शांति फैल गई है. गांव के एक स्कूल में खाना पकाने वाली शकुन बाछले कहती हैं, ‘अनुसूइया बाई तो मर गई, लेकिन उसकी मौत से जो गुस्सा लोगों में भड़का, तो सारे पारधियों को भगा दिया गया. अनुसूइया की वजह से ही पूरे क्षेत्र में शांति है.’ ज्यादातर गांववालों की तरह एक ही बात को एक ही लहजे में दोहराते हुए नेपाल बिसंदरे कहते हैं, ‘हम अपनी मां-बहन के साथ कोई गलत बात बर्दाश्त नहीं करेंगे. पारधी तो जन्मजात चोर-लुटेरे हैं. उनके बच्चे स्कूल में पढ़ने की बजाय चोरी करते हैं क्योंकि पढ़ना-लिखना या बैठ कर कोई काम करना उनकी फितरत में ही नहीं है. हम कभी उनकी शक्ल भी नहीं देखना चाहते. उनके जाने के बाद से हम सब सुखी हैं.’

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तहलका ने पारधियों पर लग रहे तथाकथित चोरी और लूटपाट की शिकायत की सच्चाई जानने के लिए जब बैतूल पुलिस अधीक्षक बीएस चौहान से बात की तो चोरी के आरोपों के नीचे दबी सामाजिक बहिष्कार की परतें खुलने लगीं. पारधियों पर लुटेरे होने के तमाम आरोपों को ‘क्रिमिनल ब्रांडिंग’ बताते हुए उन्होंने कहा, ‘पिछले कुछ सालों में पारधियों के खिलाफ कोई प्रमुख अपराध दर्ज नहीं किया गया है.’ गांववालों में पारधियों के खिलाफ जिंदा इस नफरत के लिए स्थानीय राजनीतिक समीकरण को जिम्मेदार बताते हुए मुलताई के स्थानीय पत्रकार असलम खान कहते हैं, ‘पारधियों के कबीले तो दादा-परदादा के जमाने से यहां बसे हैं. हालांकि लोग उनसे हमेशा से ही कतराते थे, पर गांववालों में उनके खिलाफ इतना जहर कभी नहीं था. लेकिन 2003 के घाट-अमरावती कांड के बाद से पूरे क्षेत्र में अचानक तनाव बढ़ गया. स्थानीय नेताओं ने लोगों को भड़काया और उनके हितैषी बनने का ढोंग रचकर, चुनाव-दर-चुनाव जीतते चले गए. अमरावती-घाट हत्याकांड को परोक्ष रूप से संचालित करने वाले सुखदेव पांसे 2004 में मसूद से चुनाव जीते और 2007 में चौथिया कांड करवाने के बाद मुलताई से 2008 के चुनावों में उन्होंने फिर से जीत दर्ज की. पारधियों के अल्पसंख्यक होने की वजह से उनके वोटों का कभी कोई महत्व ही नहीं रहा. यही वजह है कि हर राजनीतिक पार्टी, क्षेत्र से उनके सफाये की जमीन पर अपनी राजनीतिक विजय की कहानी लिखने को बेताब रहती है.’

राजनीतिक, प्रशासनिक, पुलिसिया और जांच एजेंसियों के लापरवाह, पक्षपाती और भ्रष्ट रवैये के साथ-साथ पारधियों की इस सतत उपेक्षा और दुर्भाग्य के लिए सामाजिक सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. अनुराग कहते हैं, ‘जब आप एक समुदाय को चारों तरफ से घेर कर खड़े हो जाएंगे और उन्हें चोर-चोर कहकर कोसते रहेंगे तो पूरा समुदाय अपने-आप मुरझा जाएगा. जरूरत इस बात की है कि उन्हें भी शिक्षा, रोजगार, घर और सम्मान से जीने का एक मौका दिया जाए. हम समाज के इस हिस्से को अपराधी कहकर मरने के लिए कैसे छोड़ सकते हैं?’