जो कुछ हो रहा है यह भाजपा का अपना राष्ट्रवाद है, इसमें कुछ भी नया नहीं है. यह पिछले तीन-चार दशकों से चल रहा है. इनके राष्ट्रवाद की जो परिभाषा है, वह वीर सावरकर से शुरू होती है. 1925 में संघ के गठन के बाद इसने बाकायदा संस्थागत रूप ले लिया. इनके राष्ट्रवाद में कोई भी जोड़ने वाली बात नहीं थी. इस कारण इतने सालों तक किसी ने इसे ढंग से नहीं लिया. अब इतने सालों बाद केंद्र में इनकी सरकार आई है, तो इनको लगा है कि मौका आया है कि अपनी सारी तमन्नाएं पूरी की जाएं. अब जेएनयू पर हमले की ही बात को लीजिए. हम तो सालों से सुनते आ रहे हैं कि संघ परिवार के लोग जेएनयू को कम्युनिस्टों और देशद्राहियों को अड्डा मानते हैं. इन्हें तो अब मौका मिला है. यह टारगेट बहुत पुराना था. पिछली बार राजग की सरकार टूटी-फूटी थी, लेकिन इस बार तो इन्हें पूरा मौका मिला है. इसी के चलते यह पूरी तरह से दिखाना चाहते हैं कि उनका राष्ट्रवाद असली है. पुण्यभूमि और पितृभूमि को एक करना है. बाकी जितने भी लोग मुसलमान, ईसाई, नास्तिक इन सबका देश से क्या लेना-देना है. हम चाहेंगे तो वे लोग खुशी से रहेंगे, लेकिन यह देश हमारा है. लातूर में एक दाढ़ी वाले पुलिसकर्मी के हाथ में झंडा देकर जय शिवाजी बोलो, जय भवानी बोलो कहकर जुलूस निकाल दिया. यह सब एक योजना के तहत किया जा रहा है. दरअसल ये लोग बताना चाहते हैं कि देखिए सरकार हमारी है और हमारा जो भी मन करेगा वह हम करेंगे. अब गोरक्षा को ही देखिए. यह आज का मसला थोड़े ही है. बिनोवा भावे के समय से यह चलता रहा है. उससे कुछ लोग जुड़े हुए भी थे और गायों को बचाने का प्रयास करते रहे हैं, लेकिन आज उसका स्वरूप देखिए. इसी तरह राष्ट्रवाद भी बहुत ही पुराना मसला है, बस इसे दोबारा लागू किया जा रहा है.
जो हमारे राष्ट्रवाद की परिभाषा है उसमें सबको साथ लेकर चलने की बात हुई थी. उसमें किसी के साथ धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया था. लेकिन आज जो संघ का राष्ट्रवाद है वह धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव करता है. जो उनके इस मानदंड को पूरा करता है वह राष्ट्रवादी है और जो नहीं कर पाता है उसे यह राष्ट्रवादी मानने से इनकार कर देते हैं. जेएनयू में यह पहली बार थोड़े ही हुआ है. वहां इस तरह की बहसें होती रही हैं. आज तक तो वहां की किसी बात से देश को खतरा तो नहीं हुआ. अब आप छोटी-छोटी बातों को लेकर राष्ट्रदोह की बातें करने लगते हैं.
राष्ट्रवाद का आइडिया यूरोप का है. इटली, जर्मनी जैसे देशों में लोगों को एकजुट करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया. हमारे यहां तो इसका आयात किया गया है. हमने इसका इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने में किया था. इससे पहले 1857 की लड़ाई को ही देख लीजिए, वह भारत की लड़ाई नहीं थी. उस दौरान तो रानी लक्ष्मीबाई कहती हैं कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी यानी वह सिर्फ एक राज्य की लड़ाई थी. इसमें केरल या बंगाल शामिल नहीं था.
वैसे भी राष्ट्रवाद का जो इस्तेमाल होता था वह अंग्रेजों के खिलाफ किया जाता था. आज के संदर्भ में राष्ट्रवाद प्रासंगिक ही नहीं रह गया है. आज उसका संदर्भ बदल गया है. आज तो वैसे लोग भी नहीं हैं जो अंग्रेजों के साथ मिलकर देश के खिलाफ साजिश कर रहे हैं. आज के संदर्भ में सबसे बड़े राष्ट्रद्रोही तो हरियाणा के वे लोग हैं जो सार्वजनिक परिवहन समेत करोड़ों रुपये की संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं. वैसे भी राष्ट्रवाद का आइडिया यूरोप का है. इटली, जर्मनी जैसे देशों में लोगों को एकजुट करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया. हमारे यहां तो इसका आयात किया गया है. हमने इसका इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने में किया था. इससे पहले 1857 की लड़ाई को ही देख लीजिए, वह भारत की लड़ाई नहीं थी. उस दौरान तो रानी लक्ष्मीबाई कहती हैं कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी यानी वह सिर्फ एक राज्य की लड़ाई थी. इसमें केरल या बंगाल शामिल नहीं था.
इस दौरान संघ के लोगों ने उन पर जमकर हमला किया है जिनका विचार उनकी राष्ट्रवाद की परिभाषा से मेल नहीं खाता है. अभी अगले तीन सालों तक यह जारी भी रहेगा. कोई ऐसा शक्तिशाली व्यक्ति और संस्था भी नहीं है जो इस पर रोक लगाने की कोशिश करता दिखाई देता हो. अगर हम संघ के राष्ट्रवाद की बात करें तो जब सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में लगा हुआ था, नए भारत के निर्माण में जुटा हुआ था तो उस वक्त वे लोग गायब थे. यानी इनका राष्ट्रवाद सिर्फ राजनीतिक रूप ले सकता है. आजादी के बाद जब देश के निर्माण की जरूरत थी तो वे राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करने लगे. जहां तक देशद्रोह कानून की बात है, तो वह अंग्रेजों ने अपने बचाव के लिए बनाया था. दुर्भाग्य से देश में अब भी बहुत सारे ऐसे कानून चल रहे हैं जो अंग्रेजों के जमाने के बनाए हुए हैं. अब न तो अंग्रेज रहे और न ही उनके खिलाफ आवाज उठाने को देशद्रोह माना जाता है. तो ऐसे में देशद्रोह कानून की जरूरत नहीं है. इस कानून को बदला जाना चाहिए या फिर इसे नए नजरिए से देखे जाने की जरूरत है.
(लेखक इतिहासकार हैं )
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)