महाभारत में एक कहानी है. यह है या नहीं, न मालूम लेकिन कई बार प्रसंगों व संदर्भों के साथ इसे सुनाया जाता है. जब कुरूक्षेत्र में युद्ध समाप्त हो जाता है तो धृतराष्ट्र और कृष्ण आमने-सामने होते हैं. धृतराष्ट्र कृष्ण से पूछते हैं कि तुम्हारा क्या लेना-देना था? तुमने क्यों किया ऐसा? क्यों भाइयों को आपस में लड़वा खून की नदियां बहा दी. कृष्ण कोई जवाब नहीं दे रहे थे. तब धृतराष्ट्र ने शाप दिया कि आनेवाले समय में इसी तरह तुम्हारे यदुवंशी भी आपस में लड़ेंगे और वे एक-दूसरे के साथ कभी नहीं रह पाएंगे. यह किस्सा कई बार उत्तर भारत के यादव नेताओं के अलग-अलग रहने पर सुनाया जाता रहा है और मजा लेकर कहा जाता रहा है कि यह धृतराष्ट्र का शाप है कि मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव, तीन बड़े यादव नेता एक ही राजनीतिक विचारधारा के होने के बावजूद, एक ही राजनीतिक स्कूल से निकलने के बावजूद साथ नहीं रह सके थे और न रह पाते हैं. हालांकि धृतराष्ट्र के इस मिथकीय शाप को झुठलाते हुए लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव अब जनता पार्टी के महाविलय के जरिए साथ आ चुके हैं लेकिन इन तीनों नेताओं के साथ आने के तुरंत बाद या इसी बहाने बिहार में दो बड़े नेताओं के बीच फिर से अलग होने का युद्ध शुरू हो चुका है तो एक बार फिर से महाभारत की वही कहानी सुनाई जाने लगी है कि धृतराष्ट्र का शाप है तो उसका असर रहेगा. इस बार लालू प्रसाद यादव और पप्पू यादव के बीच जंग की शुरुआत हुई है. इस जंग में कारण और बहाने कई हैं लेकिन असल लड़ाई नेतृत्व की है. इन दोनों यादव नेताओं के बीच लड़ाई के कई रंग अब देखने को मिलने लगे हैं. जिसका एक मजेदार नजारा विगत माह बिहार की राजधानी पटना में दिखा था.
कभी रंजन यादव ने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाए जाने का जमकर विरोध किया था और शरद यादव ने तो लालू प्रसाद की पूरी राजनीति को ही चुनौती दी थी
विगत माह पटना के मौर्या होटल में लालू प्रसाद यादव की पार्टी की महत्वपूर्ण बैठक थी. उस बैठक में दल के सभी नेता मौजूद थे. पप्पू यादव ने जीतन राम मांझी का अध्याय शुरू किया. यह कहते हुए िक इस महाविलय में मांझी को मिलाए बिना यह कोई मुकम्मल स्वरूप नहीं ले रहा. लालू प्रसाद यादव गुस्सा गए थे लेकिन शायद पहली बार हो रहा था िक वे गुस्से का भी खुलकर इजहार नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने इतना ही कहा कि पप्पू तुम मांझी के बहाने अपने मन की बात कह रहे हो. हम जानते हैं कि तुम क्या चाहते हो? तुम उत्तराधिकारी बनना चाहते हो लेकिन मेरा उत्तराधिकारी मेरा बेटा होगा. उस दिन की बात को वहीं खत्म करने की कोशिश हुई. राजद नेताओं ने प्रयास किए लेकिन बात वहीं खत्म नहीं हुई बल्कि उसके बाद एक नया अध्याय शुरू हुआ जो अब परवान चढ़ता दिख रहा है. पप्पू यादव ने अलग राह अपनाई, लालू प्रसाद ने अलग. पप्पू मगध इलाके में चले गए और औरंगाबाद से लेकर गया तक 120 किलोमीटर तक की पदयात्रा कर मगध की वर्षों से प्रतिक्षित एक जलाशय योजना को शुरू करने के लिए आंदोलन करने लगे और उसी आंदोलन के जरिए लालू प्रसाद यादव को चुनौती देने लगे. इस क्रम में पप्पू अपने लिए नायकत्व के तत्व का उभार करते रहे. वे उन इलाकों से गुजरते रहे, जिन्हें माओवादियों का खोह माना जाता है. उन्हें रास्ते में माओवादियों ने घेरा भी. दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव अन्य राजनीतिक सभाओं से पप्पू यादव पर हमले तेज कर दिए और चिढ़ानेवाले अंदाज में बार-बार रटते रहे कि सुन ले सब कोई- उनका बेटा ही उनका उत्तराधिकारी बनेगा. पप्पू यादव ने दूसरे तरीके से लालू प्रसाद यादव को चिढ़ाना शुरू कर दिया. उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि संतान को ही उत्तराधिकारी बनाना है तो बेटे को क्यों, बेटी को क्यों नहीं? पप्पू ने बात यहीं पर नहीं छोड़ी- उन्होंने यह भी कहना शुरू किया कि लालू प्रसाद यादव देश के पहले नेता हुए हैं जो इस तरह से अपने उत्तराधिकारी की घोषणाकर जनता पर थोप रहे हैं. लालू प्रसाद और और पप्पू यादव के बीच बयानों का युद्ध शुरू हुआ. लालू प्रसाद को बैकफुट पर आना पड़ा. पप्पू आग उगलते रहे. लालू प्रसाद को पप्पू के सवालों का जवाब देते नहीं बना. इधर पप्पू ने सवालों का घेरा बनाकर हमले तेज कर दिए. लालू प्रसाद जवाब देने की स्थिति में नहीं रह गए हैं तो उसकी कई वजहें मानी जा रही हैं. एक तो शायद उनके राजनीतिक जीवन में वर्षों बाद फिर से यह मौका आया है, जब उनके ही दल में रहते हुए, बिना दल छोड़े हुए उन्हें कोई इस तरह की चुनौती दे रहा है और वे कुछ नहीं कर पा रहे. इसके पहले एक समय में रंजन यादव और शरद यादव जैसे नेताओं ने लालू प्रसाद को चुनौती दी थी. रंजन यादव ने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद विरोधी अभियान चलाया था और शरद यादव ने तो लालू प्रसाद की पूरी राजनीति को ही चुनौती दी थी. अब संयोग है कि रंजन और शरद, दोनों ही लालू प्रसाद के साथ ही हैं.
महाविलय के जरिए. लेकिन उसके बाद लालू प्रसाद यादव को वर्षों से दूसरी आदत लगी हुई है. वह रामकृपाल यादव जैसे नेताओं को भीड़ के सामने डांटकर, तेज आवाज में बोलकर बिठा देने के आदि रहे हैं. एक तरीके से अपने नेताओं को सार्वजनिक तौर पर अपमानित कर उन्हें कंट्रोल में रखना और उनके मनोबल को तोड़कर उनके नेतृत्व का उभार नहीं होने देना भी लालू प्रसाद यादव की राजनीति का एक अहम हिस्सा रहा है. लेकिन वे दूसरे नेताओं की तरह पप्पू यादव के साथ अब पेश नहीं आ पा रहे हैं तो उसकी कई वजह है. सब जानते हैं कि लालू प्रसाद यादव फिलहाल सबसे विवशी दौर से गुजर रहे नेता हैं. यह विवशता, उनके सामने कई तरह से, कई किस्म की चुनौतियों की वजह से है.
पहली चुनौती : घर
लालू प्रसाद यादव की पहली चुनौती उनके घर से ही शुरू हुई है. हालांकि यह बातें सिर्फ अफवाही तौर पर ही हवा में उड़ाई जाती रही हैं कि लालू प्रसाद यादव के बेटे के बीच ही विरासत को संभालने को लेकर आपसी कलह है. हो सकता है यह महज अफवाह हो लेकिन कोरी अफवाह जैसा भी नहीं कहा जा सकता. इस अफवाह को कई बार मजबूत बल मिलता है और यह सच जैसा लगता है. लालू प्रसाद यादव अपने बेटे तेजस्वी को लेकर राजनीति में लगातार कोशिश कर रहे हैं और पिछले विधानसभा चुनाव से ही वे तेजस्वी को उभारने में पूरी ऊर्जा लगाते रहे हैं. हालांकि तेजस्वी अब तक वह करिश्मा नहीं दिखा सके हैं, जिसकी उम्मीद की जाती रही है. दूसरी ओर यह माना जाता है कि राबड़ी देवी तेजप्रताप को आगे करना चाहती हैं.
मीसा चुनाव भले ही हार गईं लेकिन उन्होंने चुनाव के समय में जिस राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया था, उससे उनमें बड़ी संभावना दिखी है
तेजप्रताप को राबड़ी आगे करना चाहती हैं या नहीं, यह तो राबड़ी देवी भी खुलकर नहीं बताती लेकिन तेजप्रताप की भी तेजस्वी की तरह राजनीतिक रुचि है, यह उनके आवास पर जाकर देखा-महसूसा जा सकता है और आए दिन पटना के आसपास तरह-तरह के आयोजनों के बहाने तेजप्रताप के पोस्टर लगने-लगाने के आधार पर भी सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तेजप्रताप राजनीति में रुचि रखनेवाले व्यक्ति हैं और उनके अंदर भी उभार की छपटाहट है. तेजप्रताप धर्मनिरपेक्ष संघ जैसा कोई संगठन बनाकर भी इन दिनों अपनी अलग गोलबंदी की कोशिश में हैं. हालांकि इसके बारे में यह कहा जाता है कि वह एक संगठन है, राजनीतिक अभियान नहीं लेकिन जाननेवाले जानते हैं कि तेजप्रताप उसके जरिए अपनी पहचान भी बनाना चाहते हैं, अपने इर्द-गिर्द युवाओं को संगठित भी करना चाहते हैं और आगामी विधानसभा चुनाव में जहां से वे चुनाव लड़े, उसका लाभ भी उठाना चाहते हैं. राजद के एक नेता कहते हैं कि दोनों के बीच आपसी लड़ाई है. यह उस तरह से अभी तक तो सामने नहीं आता, जैसा कि लालू प्रसाद यादव के दोनों साले साधु यादव और सुभाष यादव की दूरी को लोग देख चुके हैं लेकिन अगर कोई रास्ता नहीं निकला तो यह भी तय है कि दोनों के बीच की लड़ाई एक दिन उस रूप में दिखेगी. राजद के नेता कहते हैं कि यह लड़ाई तब तेज हुई, जब लालू प्रसाद यादव के चुनाव लड़ने पर रोक लगी और राबड़ी देवी का प्रयोग राघोपुर से लेकर सोनपुर जैसे गढ़ तक में फेल हो गया. हालांकि लालू प्रसाद चाहते थे कि किसी भी तरह से राबड़ी देवी के नाम पर ही अभी उनके बाद राजद की राजनीति को आगे बढ़ाया जाए लेकिन सोनपुर और राघोपुर और बाद में छपरा में मिली हार से यह साफ हो गया कि लाख चाहकर भी लालू प्रसाद यादव राबड़ी देवी के नाम पर आगे की राजनीतिक नैया को पार नहीं लगा सकते. तब एक खाली हुए एमएलसी सीट पर राबड़ी देवी को एडजस्ट कर लालू प्रसाद ने वहां एक विराम देने की कोशिश की. लेकिन यह विराम वहां थमनेवाला नहीं था और न अब है. तेजस्वी और तेजप्रताप के बीच लालू प्रसाद की बड़ी बेटी मिसा भारती का भी आगमन हुआ और वह दोनों बेटों की तुलना में राजनीतिक तौर पर ज्यादा परिपक्व हैं और राजनीति में ज्यादा रुचि भी लेती रही हैं. मिसा पिछले लोकसभा चुनाव में दानापुर जैसे गढ़ इलाके से चुनाव लड़ीं. उनकी जीत के लिए लालू प्रसाद यादव ने पटना इलाके के कुख्यात-बाहुबली मानेजानेवाले और जेल में बंद रीतलाल यादव से कई किस्म के समझौते भी किए, अपनी पार्टी में बड़ा पद भी रीतलाल को दिए लेकिन मिसा रामकृपाल यादव से चुनाव हार गई. बताया जाता है कि मिसा चुनाव भले ही हार गई लेकिन उन्होंने चुनाव के समय में जिस तरह से परिपक्वता का परिचय दिया और जिस तरह की राजनीति की, जिस तरह से उन्होंने प्रचार किया, उससे उनमें आगे राजनीति की बड़ी संभावना दिखीं.
यह माना गया कि मिसा को लालू प्रसाद यादव विधान परिषद में खाली हुई एक सीट पर भेज देंगे. लेकिन ऐसा न हो सका. उस सीट पर लालू प्रसाद के पास कई सालों से सेवा देनेवाले भोला प्रसाद को परिषद में भेजा गया. कहा जाता है कि यहां भी पेंच वही फंस गया था कि एक सीट है और घर से भेजा जाए तो किसे भेजा जाए. इसका लाभ भोला प्रसाद को मिला. बाद में बात यह भी उठी कि लालू प्रसाद की पार्टी की ओर से यह मांग भी उठेगी कि अगर राजद और जदयू का मिलान होना ही है तो मिसा भारती को उपमुख्यमंत्री बनाया जाए और यह चर्चा भी बहुत दिनों तक हवा में तैरती रही लेकिन यह बात भी आई गई हो गई. अब कहा जा रहा है कि मिसा मनेर से अगला विधानसभा चुनाव लड़ेंगी. वह पारिवारिक कलह से खुद को परेकर अगले चुनाव की तैयारी में लग गई हैं. और अब जबकि लालू प्रसाद यादव यह कह चुके हैं कि उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी उनका बेटा ही होगा तो मिसा के लिए पिता की राजनीति के जरिए अचानक बड़े उभार की संभावनाओं पर भी फिलहाल विराम लग गया है. यह तो लालू प्रसाद के घर में चल रहे राजनीतिक कलह की कहानी है, जिसे अफवाही अंदाज में चौपालों में चटखारे ले-लेकर सुनाया जाता है. लेकिन दूसरी चुनौती जो उनके सामने है, वह अफवाही नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर है और उसे सब जानते हैं. हालांकि लालू प्रसाद के बारे में यह कहा जाता है कि वे निजी जीवन से लेकर राजनीतिक जीवन तक में राबड़ी देवी के फैसले का ही सम्मान करते हैं इसलिए एक बदलाव भी हालिया दिनों में लोगों को देखने को मिल रहा है. तेजस्वी अब बयान वगैरह तो देते दिख रहे हैं लेकिन अचानक से लालू प्रसाद के मंचों पर तेजप्रताप की उपस्थिति बढ़ गई है. इसकी वजह क्या है, यह लालू प्रसाद के परिवार के लोग ही बता सकते हैं लेकिन इसके मायने यही लगाए जा रहे हैं कि हर बार की तरह राबड़ी देवी की जिद की जीत हो रही है शायद.
दूसरी चुनौती : पार्टी
परिवार के बाद लालू प्रसाद यादव के सामने पार्टी की चुनौती बड़ी है. लालू प्रसाद यादव अपनी पार्टी का विलय जनता परिवार में करवा चुके हैं लेकिन इससे उनकी चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं. उनके दल से अभी चुनौतियां मिलना बाकी है. हालांकि लालू प्रसाद यादव के दल से एक-एककर कई नेता बाहर का रास्ता देख चुके हैं. और अब जो नेता हैं, उनमें भी कई ऐसे हैं, जो साथ छोड़ सकते हैं. इसके पहले विगत साल नीतीश कुमार ने एक झटके में लालू प्रसाद यादव की पार्टी को तोड़ दिया था. अभी सबसे ज्यादा चर्चा राजद के एक प्रमुख नेता अब्दुल बारी सिद्दिकी को लेकर की जाती है. कहा जाता है कि सिद्दिकी एक ऐसे नेता हैं, जो लालू प्रसाद यादव के लिए वरदान हैं तो वे कभी भी चुनौती बन सकते हैं. सिद्दिकी के भी उपमुख्यमंत्री बनने की बात थी लेकिन सूत्र बताते हैं कि इसमें सबसे बडा अड़ंगा खुद लालू प्रसाद यादव के खेमे से ही लगा था. सिद्दिकी के मजबूत होने से लालू प्रसाद यादव जानते हैं कि फिर वे उन्हें अपने साथ रख नहीं पाएंगे. सिद्दिकी नेतृत्व पद पर जाने की मांग करेंगे, जो फिलहाल लालू प्रसाद यादव को किसी हाल में मंजूर नहीं. लेकिन सूत्र एक दूसरी खबर भी बताते हैं. बताया गया है कि अब्दुल बारी सिद्दिकी पर फिलहाल कांग्रेस की नजर है, जो बिहार में खस्ताहाली के दौर में है. अगर सिद्दिकी जैसा नेता कांग्रेस को मिल जाता है तो उसे बिहार में खड़ा होने में मदद मिलेगी. अगर ऐसा होता है तो यह न सिर्फ लालू प्रसाद के लिए बल्कि महाविलय के लिए भी एक बड़ा झटका होगा. लालू प्रसाद के दल में चुनौती यहीं खत्म नहीं होती. अभी बड़ी चुनौती का सामना उन्हें विधानसभा चुनाव के वक्त करना है. विधानसभा चुनाव के समय महाविलय के आधार पर अगर टिकट का बंटवारा होता है तो लालू प्रसाद को कई अपने लोगों का टिकट काटना होगा. वे वैसे लोग व नेता होंगे, जो वर्षों से नीतीश कुमार की पार्टी और भाजपा से लड़कर अपना जनाधार बनाए हैं. टिकट नहीं मिलने की स्थिति में वे लालू के सबसे बड़े विरोधी होंगे. इनमें कई यादव नेता भी होंगे. इस तरह कई जगहों पर लालू प्रसाद के विरोध का जो नया खेमा बनेगा उसे अगर पप्पू यादव या मांझी का साथ मिलेगा तो फिर यह लालू प्रसाद को और कमजोर करनेवाला ही होगा. बात इतनी भी होती तो एक बात होती. जो लालू प्रसाद यादव 1990 में थे, उस समय के उनके एक-दो बड़े नेता ही उनके साथ बचे हैं. लालू भी जानते हैं कि अपने कोर वोट में भी उनकी पकड़ पहले की तुलना में ज्यादा कमजोर हुई है. पिछड़े बिखर चुके हैं. दलितों व पिछड़ों के मसीहा के रूप में वे एक जुमले की तरह तो इस्तेमाल किए जाएंगे लेकिन अब दलितों व पिछड़ों का वोट आसानी से अपने पाले में नहीं करवा पाएंगे.
विधानसभा चुनाव के समय महाविलय के आधार पर अगर टिकट का बंटवारा होता है तो लालू प्रसाद को अपने कई लोगों का टिकट काटना होगा
राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणी कहते हैं- अभी भी वक्त है लालू प्रसाद यादव मांझी के साथ मिल जाएं, तभी वे दलित वोटों की रहनुमाई करने की स्थिति में रहेंगे. मणी बात ठीक कहते हैं लेकिन एक दूसरी किस्म की चुनौतियों से भी लालू प्रसाद को दो-चार होना अभी बाकी है और एक तरह से महाविलय कर के वे अपनी राजनीति का टेस्ट ही कर रहे हैं. लालू प्रसाद ने महाविलय के बाद नीतीश कुमार को बिहार में नेतृत्व का अवसर दिया तो इसका दूसरा साइड इफेक्ट होना है. यादव और कुरमी, दो छोरों पर रहनेवाली जातियां हैं. कुर्मी नेता का नेतृत्व जमीनी स्तर पर यादव मतदाता आसानी से हजम नहीं कर पाएंगे. उन्हें यह साफ लगता है कि यादवों का जो राजपाट था और वर्षों तक जो सत्ता थी, उसे कुरमी जाति के नेता ने ही चुनौती देकर खत्म किया था. पप्पू यादव कहते हैं कि यह कौन नहीं जानता कि नीतीश कुमार ने सबसे ज्यादा यादवों को गाली और जंगलराज का पर्याय बनाया. इसका खामियाजा तो महाविलय को भुगतना ही होगा.
तीसरी चुनौती : पप्पू यादव
लालू प्रसाद यादव के सामने इन सबके बाद जो सबसे बड़ी चुनौती होगी वह पप्पू यादव और जीतन राम मांझी जैसे नेताओं की होगी. जीतन राम मांझी जैसे नेताओं की चुनौती को तो लालू प्रसाद यादव दरकिनार कर चुके हैं, इसलिए वे महाविलय में न तो जीतन को शामिल करने की कोशिश किए और ना ही अभी कोशिश करते दिख रहे हैं. जीतन की चुनौती को छोड़ भी दें तो पप्पू यादव लालू प्रसाद यादव के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभरे हैं. पप्पू यादव का कोसी में खासा जनाधार है. इस बार नरेंद्र मोदी की लहर में भी वे न सिर्फ अपनी और अपनी पत्नी की सीट को बचाने में कामयाब रहे बल्कि कोसी के इलाके में भाजपा का खाता तक नहीं खुल सका तो उसमें भी पप्पू यादव की भूमिका मानी गई.
लगभग साढे़ बारह सालों बाद जेल से निकलने के बाद पप्पू यादव को कोसी में यह सफलता मिली तो इससे वे उर्जा से लबरेज हैं और तेजी से पूरे बिहार में अब अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अभियान तेज कर दिए हैं. इसके लिए पप्पू न सिर्फ हालिया दिनों में बिहार में हुई बड़ी घटनाओं के घटना स्थल पर ग ए बल्कि अपनी ओर से पीडि़तों को सहयोग भी किया. पप्पू यादव अब युवा शक्ति नामक संगठन के बैनर तले मगध से लेकर भोजपुर तक के इलाके के बुनियादी सवालों को उठाकर, लोगों से अपने को जोड़ रहे हैं.
पप्पू यादव को इतने-भर से पूरे बिहार में सफलता मिलेगी, यह कहना तो अभी जल्दबाजी है लेकिन राजद में जो नाराज खेमा बनेगा, टिकट नहीं मिलने से जो विक्षुब्धों का खेमा तैयार होगा, उसका नेतृत्वकर पप्पू यादव लालू प्रसाद को चुनौती देनेवाले एक बड़े नेता के तौर पर उभरेंगे. पप्पू यादव कहते हैं कि हम कौनसा रास्ता अपनाएंगे, अभी कह नहीं सकते लेकिन यह जो उत्तराधिकारी की परंपरा शुरू की है लालू प्रसाद यादव ने और कार्यकर्ताओं से लेकर जनता तक पर थोपना चाहते हैं, उसका विरोध करेंगे.