पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत की, जिसकी घोषणा उन्होंने 68वें स्वतंत्रता दिवस समारोह में लाल किले के अपने उद्बोधन में की थी. मोदी ने कहा था, ‘गरीबों को सम्मान मिलना चाहिए और मैं चाहता हूं कि इसकी शुरुआत सफाई से हो. देश के हर एक स्कूल में शौचालय का निर्माण करवाकर इसे अंजाम दिया जाएगा. छात्राओं के लिए हर स्कूल में अलग से शौचालय का निर्माण करवाया जाएगा. ऐसा करके ही बेटियों को पढ़ाई बीच में छोड़कर जाने से रोका जा सकता है.’
स्कूलों में छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय की दरकार है. प्रधानमंत्री ने सभी स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग शौचालय बनाने की बात की और देश को यह भरोसा दिलाया कि वह इस लक्ष्य को जल्द से जल्द पूरा भी कर लेंगे. जाहिर है कि यह उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है. पर सालभर बीत जाने के बाद भी परिस्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं आया है. हां, इस बारे में थोड़ी हलचल तो है लेकिन यह केवल बात के स्तर पर ही देखी जा सकती है. इस बारे में हकीकत में कुछ खास होता हुआ नहीं दिखता.
बीते दिनों जमशेदपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर सरायकेला जिले की 200 छात्राओं ने स्कूल छोड़ दिया. कारण शौचालयों की कमी. गौरतलब है कि सरायकेला के इस कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में लगभग 220 लड़कियां पढ़ती थीं और शौचालय हैं मात्र पांच. इसी वजह से लड़कियां खेतों में शौच के लिए जाती हैं जहां उन्हें स्थानीय लड़कों द्वारा छेड़छाड़ का सामना करना पड़ता था. कई शिकायतों के बाद भी शौचालय और सुरक्षा की कोई पुख्ता व्यवस्था न होने के कारण लड़कियों ने अपनी पढ़ाई की परवाह किए बिना स्कूल जाना ही बंद कर दिया.
स्वच्छ भारत अभियान में ‘स्वच्छ भारत, स्वच्छ विद्यालय’ की बात भी प्रधानमंत्री ने की थी, जिसका लक्ष्य देश के सभी स्कूलों में पानी, साफ-सफाई और स्वास्थ्य सुविधाओं का पुख्ता इंतजाम रखा गया. यह अभियान सेकेंडरी स्कूलों में लड़कियों की एक बड़ी आबादी को रोकने में अहम भूमिका निभा सकता है.
शहरी विकास मंत्रालय ने शौचालयों की उपलब्धता के बारे में एक सामान्य आंकड़ा जारी किया, जिसके अनुसार देश में 3.83 लाख घरेलू और लगभग 17,411 सामुदायिक शौचालयों का निर्माण हुआ लेकिन बीते दस महीनों में कितने स्कूलों में शौचालयों का निर्माण हुआ, इसका जवाब न सरकारी विभागों के पास है और न ही किसी सामाजिक संगठन के पास.
ऐसे किसी आंकड़े की उपलब्धता से राजग के सत्ता में आने से एक दशक पूर्व का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है. राष्ट्रीय विश्वविद्यालय शैक्षिक योजना और प्रशासन (न्यूपा) द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, 2005-06 में छात्राओं के लिए चार लाख (37 फीसदी) स्कूलों में अलग से शौचालय थे जबकि 2013-14 में ये बढ़कर 10 लाख (91 फीसदी) हो गए.
ये आंकड़े दस्तावेजों में भले ही सही हों लेकिन सर्वेक्षण के अनुसार, जिन स्कूलों में शौचालय हैं, उनमें से अधिकांश बंद या जाम पड़े हैं. ये शौचालय इस्तेमाल में लाने योग्य नहीं हैं और तमाम खस्ताहाल हैं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यह दावा किया जाता है कि 96 फीसदी शौचालय इस्तेमाल योग्य हैं. अगर हालात छोड़कर इन तथ्यों पर भरोसा किया जाए तो फिर राज्य के ग्रामीण इलाकों में लड़कियां पढ़ाई बीच में ही क्यों छोड़कर चली जाती हैं?
यूनिसेफ के एक सूत्र के अनुसार, ‘न्यूपा के आंकड़ों को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए. हम इस आंकड़े को इसलिए मान्य नहीं ठहरा सकते क्योंकि इसमें बड़ी संख्या में शौचालयों को इस्तेमाल योग्य बताया गया है. दूसरी बात, अगर इन शौचालयों में से अधिकतर बुरे हाल में हैं तो इसका अर्थ यह है कि राज्य सरकार शौचालयों के रख-रखाव के लिए बजट मुहैया नहीं कराती. ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में शौचालयों में पानी की अनुपलब्धता बड़ी चिंता का विषय है.’
शौचालयों की संख्या के बारे में नए आंकड़े अभी तक उपलब्ध नहीं हैं, पर इनकी हालत जानने के लिए असल स्थिति जाननी बहुत जरूरी है. क्या सेकेंडरी स्कूलों में लड़कियों के दाखिलों में कोई इजाफा हुआ? यह सर्वविदित है कि लड़कियां अक्सर स्कूलों में शौचालय की बुरी हालत की वजह से पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं. खुले में शौच की वजह से डायरिया जैसी बीमारी होती है तो क्या डायरिया की दर में कोई कमी आई है? क्या मासिक धर्म के दौरान सामुदायिक शौचालयों में महिलाओं को पूर्ण निजता मुहैया कराई जाती है? इन सवालों का जवाब न में ही मिलता है. स्वच्छ भारत अभियान की सफलता या असफलता इन्हीं बातों पर ही निर्भर करती है.
वास्तव में स्वच्छता अभियान की पहल नए मैनहोल में पुराना कीचड़ डालने जैसी है. 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम की शुरुआत की थी. 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे थोड़ी ऊंचाई देते हुए पूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम दिया. मोदी सरकार ने इसका पुनर्निर्माण करते हुए फ्लश सिस्टम वाले शौचालयों पर ध्यान केंद्रित किया और खुले में शौच बंद करने और मानव द्वारा मल उठाने पर रोक लगाने की बात की थी. इसके अलावा ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने की भी बात शुरू की गई.
हालांकि, सरकार के कामकाज के तौर-तरीकों में मुश्किल से तब्दीली आती है. ठेकेदारी राज की बदौलत नए शौचालयों के निर्माण को लेकर तो उत्साह होता है पर पहले से बने शौचालयों के रख-रखाव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखती. मानव संसाधन व विकास मंत्रालय के एक सूत्र ने ‘तहलका’ कोे बताया, ‘सरकार वास्तव में स्कूलों के शौचालय के लिए बजट मुहैया कराने में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाती. खराब शौचालयों को ठीक करने के लिए इस साल फरवरी तक सिर्फ 52 फीसदी फंड मुहैया हुआ जबकि ऐसे शौचालयों की संख्या लगभग 84,619 है.’
इस राह में फंड की कमी, कमजोर प्रबंधन और पानी की घोर दिक्कत आदि विकट चुनौतियां हैं. तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली स्थित सोसायटी फॉर कम्युनिटी ऑर्गनाइजेशन एंड पीपुल्स एजुकेशन (स्कोप) द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, ‘शौचालयों की कमी और उपलब्ध शौचालयों की खराब हालत से न केवल मासिक धर्म के दौरान लड़कियों को परेशानी होती है बल्कि इसका खामियाजा महिलाओं को भी उठाना पड़ता है.’
इस सर्वे में 18-45 वर्ष आयु वर्ग की 40 महिलाओं को शामिल किया गया और पाया कि मासिक धर्म के दौरान उनके द्वारा सामुदायिक नल के इस्तेमाल पर प्रतिबंध रहता है. इस दौरान महिलाएं पानी की जरूरतें पूरी करने के लिए नदियों तक जाती हैं, जहां निजता नाम की कोई चीज नहीं होती. इसके अलावा इस सर्वे में महिलाओं ने अविवाहित लड़कियों की सुरक्षा को लेकर भी चिंता जताई. मासिक धर्म के दौरान साफ-सफाई के लिए निजता न होने की वजह से दूसरी मुश्किलें भी पेश आती हैं. साथ ही अज्ञानतावश मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किए गए कपड़े को भी शौचालय में ही बहा दिया जाता हैै. अब जब महिलाएं साधारण कपड़े की बजाए अजैविक उत्पाद (सैनिटरी नैपकिन आदि) इस्तेमाल करती हैं तो शौचालय जाम होने की स्थिति और बदतर हो जाती है. शहर के संभ्रांत इलाकों की ही तरह ग्रामीण सामुदायिक शौचालयों की सफलता उचित देखरेख के जरिए ही सुनिश्चित की जा सकती है.
भारत को स्वच्छ बनाने के लिए बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है. एक गैर-सरकारी संगठन ‘पाथ’ से जुड़ीं सुष्मिता मालवीय का कहना है, ‘हम शहरों में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की बात करते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों या शहरी झोपड़पट्टी में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में कोई स्पष्टता नहीं और न ही इस बारे में कोई दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं. इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर दिशा-निर्देश बनाए जाने की दरकार है. मासिक धर्म के अपशिष्ट के लिए बजट, सूचनाएं और उचित उपकरणों की व्यवस्था करनी होगी.’
साझा उपयोग के शौचालयों में व्यक्तिगत जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं की जा सकती, इसके लिए पूरी व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. यहां तक कि जब घरों के शौचालयों के गड्ढे सूख जाते हैं या फिर चेंबर पूरी तरह भर जाते हैं या पाइप बंद हो जाता है तो ऐसे हाल में फंड की कमी समस्याओं को और ज्यादा बढ़ा देती है. स्कूल के शौचालय भी इन्हीं दिक्कतों से जूझ रहे हैं.
प्रशासन का दावा है कि आगामी चार साल में स्वच्छता अभियान के तहत 52,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे. कंपनी अधिनियम 2013 में सुधार करके कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के जरिये स्वच्छ भारत कोष (एसबीके) तैयार किया गया है. जिसके जरिये एकत्रित किए गए धन से 2.57 लाख शौचालयों का रख-रखाव किया जाएगा. फरवरी 2015 तक राज्य की ओर से 58 फीसदी, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से 41 फीसदी और निजी कंपनियों से एक फीसदी फंड आना बाकी था.
स्वच्छता जीवन से जुड़ा जरूरी मसला है और सरकार को इस बारे में सोचना होगा. शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने विश्व शौचालय सम्मेलन में कहा था, ‘भारत में 80 फीसदी बीमारियां जल प्रदूषण की वजह से होती हैं इसलिए स्वच्छता कार्यक्रम लागू करना बहुत जरूरी है.’ प्रधानमंत्री अब इस बात को महसूस कर रहे होंगे कि ये कहना तो आसान था पर पूरा करना कठिन है. ये जानने के लिए 2019 तक इंतजार करना होगा कि स्वच्छ भारत अभियान एक ठोस पहल था या कि केवल हवा का गुब्बारा!