‘जितना दलित उत्पीड़न हुड्डा के कार्यकाल में हो रहा है, शायद ही कभी हुआ हो’
‘हुड्डा ने सिर्फ अपनी जाति के लोगों का ही भला किया है’
‘हरियाणा सरकार भ्रष्टाचार के रोज नए कीर्तिमान बनाती जा रही है. कांग्रेस हाईकमान को इन्हें हटाना ही होगा नहीं तो अगले चुनाव में कांग्रेस का हारना तय है’
‘वर्तमान हुड्डा सरकार से करोड़ों गुना बेहतर तो ओमप्रकाश चौटाला की सरकार थी’
हरियाणा की भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार पर यह प्रहार राज्य के विपक्षी दलों की तरफ से नहीं किया जा रहा. ये उदगार उस कांग्रेस के ही नेताओं के हैं जिसकी आठ साल से राज्य में सरकार है. 2005 से राज्य में कांग्रेस की सरकार है. तभी से हुड्डा मुख्यमंत्री हैं. इस साल फरवरी में जब कांग्रेस के धुर विरोधी और राज्य में विपक्ष की भूमिका निभा रहे इंडियन नेशनल लोकदल के प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को 10 साल की सजा मिली तो कहा गया कि अब प्रदेश कांग्रेस की चुनौतियां खत्म हो गई हैं. एक तरफ प्रदेश में कांग्रेस के मुख्य विपक्षी दल के कर्ताधर्ताओं को जेल हो चुकी थी तो दूसरी तरफ राज्य में हरियाणा जनहित कांग्रेस-भाजपा गठबंधन की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं थी कि वह कांग्रेस को कोई खास चुनौती दे पाए. लेकिन बिना बाधा 2014 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत का झंडा फहराने का सपना देख रहे हुड्डा और कांग्रेस को अब घर के चिराग ही आग लगाने को आतुर दिख रहे हैं. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता हैं जो अपनी ही पार्टी और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. हुड्डा विरोध की मशाल जला रहे इन नेताओं में वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सदस्य चौधरी वीरेंद्र सिंह, केंद्र में मंत्री कुमारी सैलजा, राज्य सभा सांसद ईश्वर सिंह, गुड़गांव से कांग्रेस सांसद राव इंद्रजीत सिंह और फरीदाबाद से सांसद अवतार सिंह भड़ाना प्रमुख हैं.
आखिर ये नेता अपनी ही सरकार, पार्टी और मुख्यमंत्री से क्यों नाराज हैं ? इसके कई कारण हैं. राज्यसभा सांसद ईश्वर सिंह के मुताबिक हुड्डा सरकार के इस कार्यकाल में दलितों पर अत्याचार लगातार बढ़ा है और प्रदेश सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही. इस मुद्दे को लेकर राज्य में कई दलित सम्मेलन कर चुके ईश्वर कहते हैं, ‘हरियाणा के बगल में ही पंजाब है, आप बताइए पिछली बार आपने कब सुना था कि दमन के कारण पूरा का पूरा गांव पलायन कर गया?’ कुमारी शैलजा जो दलित समाज से आती हैं उनकी लड़ाई प्रदेश शासन और मुख्यमंत्री हुड्डा से विकास के मामले में अंबाला को नजरअंदाज करने को लेकर है. उनका मानना है कि हुड्डा सरकार जान-बुझकर उनके संसदीय क्षेत्र अंबाला की अनदेखी कर रही है.
राव इंदरजीत सिंह की भी यही शिकायत है. वे भी हुड्डा सरकार पर विकास कार्यों के मामले में भेदभाव बरतने के आरोप लगाते हैं. उनके मुताबिक हुड्डा ने विकास कार्यों को सिर्फ अपने गृह क्षेत्र रोहतक तक सीमित रखा है. कुछ समय पहले ही आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारी साझा करते हुए इंदरजीत ने दावा किया था कि 2007 से 2012 के बीच हुड्डा सरकार द्वारा की गई घोषणाओं में से 60 फीसदी अकेले रोहतक, झज्जर और पानीपत के लिए की गई थीं. फरीदाबाद से पार्टी के लोकसभा सांसद अवतार सिंह भड़ाना प्रदेश की सरकारी नौकरियों में हुड्डा सरकार द्वारा एक खास समुदाय को तवज्जो देने का आरोप लगाते रहे हैं. चौधरी बीरेंद्र सिंह इन नेताओं द्वारा उठाए गए सभी प्रश्नों से इत्तेफाक रखते हैं. वे इन नेताओं के साथ मिलकर उन्हें ‘न्याय’ दिलाने की अपनी ही सरकार से लड़ाई लड़ रहे हैं. ये तो रहे वे कारण जिन्हें ये नेता हुड्डा विरोध की असल वजह बताते हैं. लेकिन जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो इन नेताओं की नाराजगी के पीछे जनहित को सिर्फ एक बहाना मानता है. उसके मुताबिक असली लड़ाई अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति और प्रदेश में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए लड़ी जा रही है.
सूत्र बताते हैं कि वर्तमान संघर्ष की जड़ें 2005 के विधानसभा चुनाव में छिपी है. उस चुनाव में कांग्रेस को चमत्कारिक सफलता हासिल हुई थी. पार्टी को प्रदेश की 90 में से 67 सीटों पर जीत मिली थी. तब पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व में दो बार मुख्यमंत्री रह चुके भजनलाल को पूरी उम्मीद थी कि ताज उन्हीं के सिर सजेगा. लेकिन दूसरी तरफ एक धड़ा उन्हें राजनीतिक तौर पर निपटाने की स्क्रिप्ट लिख रहा था. जानकारों के मुताबिक ये नेता वही थे जो आज हुड्डा हटाओ का नारा बुलंद किए हुए हैं. इसमें वीरेंद्र सिंह, कुमारी शैलजा, राव इंदरजीत समेत तमाम नाम शामिल थे. तब इन सभी का एकमात्र मकसद भजनलाल को सीएम बनने से रोकना था. इन सबने मिलकर उस समय रोहतक सीट से पार्टी सांसद भूपेंद्र सिंह हुड्डा का नाम आगे बढ़ा दिया. वरिष्ठ पत्रकार नवीन एस ग्रेवाल कहते हैं, ‘ऐसा नहीं था कि इन लोगों के मन में हुड्डा के लिए कोई प्रेम उमड़ पड़ा था. कारण बस इतना था कि इन्हें किसी भी कीमत पर भजनलाल को रोकना था.
इसलिए सभी ने मिलकर हुड्डा का नाम आगे बढ़ा दिया.’ हुड्डा मुख्यमंत्री बन गए. जानकारों के मुताबिक भजनलाल विरोधी गुट को उम्मीद थी कि जिसे उन्होंने सीएम बनवाया है वह आने वाले समय में उनके कहे से चलेगा. ऐसा हुआ भी लेकिन सिर्फ अगले दो साल तक. उसके बाद इन नेताओं को महसूस होने लगा कि जिस व्यक्ति को राजनीतिक तख्तापलट के माध्यम से ये सीएम की कुर्सी पर ले आए थे वह अब उन्हीं की नहीं सुन रहा. हुड्डा ने इन नेताओं को सुनना बंद कर दिया था. बस यहीं से टकराव की शुरुआत हुई.
[box] ‘किसके पास अपनी बात रखने जाएंगे? हाईकमान को भी लगता है कि हुड्डा सब-कुछ अच्छा कर रहे हैं… हम हाईकमान की आंख की किरकिरी ही बनेंगे’[/box]
समय के साथ इधर हुड्डा लगातार मजबूत होते गए. उसी अनुपात में हुड्डा के प्रति नाराजगी और उनके विरोधियों की संख्या भी बढ़ती गई. 2009 में पार्टी हुड्डा के नेतृत्व में ही चुनाव में गई. लेकिन उसे 2005 के 67 सीटों के मुकाबले सिर्फ 40 सीटें मिलीं. चुनावों में कम हुई सीट संख्या से हुड्डा की राजनीतिक ताकत के कम होने की भी संभावना थी. इस मौके पर पार्टी का हुड्डा विरोधी गुट फिर सक्रिय हो उठा. लेकिन इस बार लड़ाई सिर्फ हुड्डा को सीएम बनने से रोकने की नहीं थी बल्कि इसके साथ ही खुद को मुख्यमंत्री बनवाने की भी इच्छा थी. इसमें कुमारी शैलजा से लेकर किरण चौधरी, राव इंदरजीत सिंह, चौधरी वीरेंद्र सिंह समेत अन्य कई कतार में थे. लेकिन ये नेता अपने अभियान में सफल नहीं हुए. हुड्डा फिर से सीएम बनाए गए.
इसके बाद तो लड़ाई अब पूरी तरह से सतह पर आ गई. नेताओं ने अपनी ही सरकार और मुख्यमंत्री को घेरना शुरू किया. अपने इस दूसरे कार्यकाल में हुड्डा भले ही कम सीटें लेकर आए थे लेकिन वे इस बार बेहद मजबूत होकर उभरे. हुड्डा ने बेहद आक्रामकता के साथ अपने विरोधियों का न सिर्फ मुकाबला करना शुरू किया बल्कि वे पूरी पार्टी को अपने नियंत्रण में लेने की तैयारी भी करने लगे.
2007 में ही फूलचंद मुलाना पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए थे. तब तक उनके अध्यक्ष बनने पर कोई खास हो-हल्ला नहीं मचा था. लेकिन जानकारों के मुताबिक आने वाले समय में जिस तरह से मुलाना ने हुड्डा के सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया उससे सरकार और पार्टी के बीच का अंतर खत्म हो गया. 2011 में हिसार लोकसभा उपचुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद मुलाना ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उसके बाद भी आज तक वे प्रदेश अध्यक्ष के पद पर काबिज हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘जब आपका सीएम आपकी बात नहीं सुनता तो आप पार्टी के पास जाते हैं लेकिन यहां तो पार्टी अध्यक्ष भी सीएम के इशारों पर नाचता है.’ राज्य की राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज कहते हैं, ‘ मुलाना का अब तक का कार्यव्यवहार हुड्डा की कठपुतली जैसा रहा है.’ हालांकि मुलाना यह बात खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘लोग झूठ बोल रहे हैं. मैंने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई है. जो कह रहे हैं कि सरकार और पार्टी में उनकी सुनवाई नहीं हो रही है, वे झूठे हैं. असल में वे सब महत्वाकांक्षा के मरीज हैं.
हरियाणा कांग्रेस के प्रभारी शकील अहमद कहते हैं, ‘बड़ी विचित्र स्थिति है. कहीं से ये शिकायत आती है कि विधायक दल के नेता और प्रदेश अध्यक्ष एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं देखना चाहते तो कहीं से ये खबर आ रही है कि प्रदेश अध्यक्ष सीएम की जेब में चला गया है. मुझे प्रभारी बने अभी कुछ ही दिन हुए हैं. थोड़ा इंतजार कीजिए, मैं स्थिति को देख-समझ रहा हूं. जल्द ही इस बारे में निर्णय होगा.’ शकील हरियाणा में कांग्रेसी नेताओं के बीच गुटबाजी और हुड्डा के विरोध को दबे शब्दों में स्वीकार तो करते हैं लेकिन इसका कारण समन्वय का अभाव बताते हैं.
हुड्डा के विरोधी मुख्यमंत्री को घेरने के पीछे किसी तरह की राजनीति से इनकार करते हैं. ईश्वर सिंह कहते हैं, ‘प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न का मामला उठाना कहां से गलत है. इसमें क्या राजनीति है ?’ चौधरी वीरेंद्र सिंह भी कुछ ऐसी ही बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर नेता अपने लोगों पर हो रहे अत्याचार, विकास में अपने क्षेत्र के साथ हो रहे भेदभाव का मामला उठाते हैं तो ये कहां से गलत है. ये जनप्रतिनिधि हैं. कल के दिन जब ये वोट मांगने जाएंगे तो जनता नहीं पूछेगी कि विधायक और सांसद रहते तुमने हमारे लिए क्या किया जबकि तुम्हारी अपनी सरकार राज्य में थी.’ विकास के मामले में सरकारी भेदभाव का शिकार हुए क्षेत्रों के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘गुड़गांव के विकास को आप हरियाणा का विकास नहीं मान सकते. मध्य हरियाणा के हिस्से जैसे जिंद, हिसार समेत फतेहाबाद, कैथल, कुरुक्षेत्र, करनाल आदि इलाकों में तो विकास का कोई नामोनिशां नहीं है.’
सामाजिक कार्यकर्ता नवीन जयहिंद इसे एक अलग नजरिये से देखते हुए कहते हैं, ‘यह कोई नई बात नहीं है. हरियाणा की राजनीति जाति, क्षेत्र और सरकारी नौकरियों के आस-पास ही घूमती है. जो भी सीएम बनता है, वह सबसे पहले अपनी जाति और क्षेत्र को प्राथमिकता पर रखता है. उनका विकास और उनको सरकारी नौकरी ही उसकी प्राथमिकता में रहते हैं. उसी परंपरा को हुड्डा आगे बढ़ा रहे हैं.’
फिलहाल हुड्डा ने प्रदेश कांग्रेस और सरकार पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है. हाल ही में जब चौधरी वीरेंद्र सिंह मंत्री बनते-बनते रह गए तो इसके पीछे हुड्डा का ही हाथ देखा गया. हुड्डा से नाराज कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस हाईकमान भी सुनवाई करता नहीं दिखता. सूत्रों के मुताबिक ये नेता कई बार राहुल गांधी के पास हुड्डा की शिकायत लेकर पहुंचे, लेकिन राहुल ने इनकी शिकायतों की लिस्ट को कचरे की पेटी में डाल दिया.
प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘किसके पास आप अपनी बात रखने जाएंगे. हाईकमान को भी लगता है कि हुड्डा सब कुछ अच्छा कर रहे हैं. वे उनकी आंखों का तारा बने हुए हैं. ऐसे में जो आवाज उठा रहा है वह हाईकमान की आंख की किरकिरी ही बनेगा.’ वरिष्ठ पत्रकार मीनाक्षी शर्मा कहती हैं, ‘हुड्डा के हाईकमान से मधुर संबंध की वजह से ही उनके विरोधी उन्हें कुछ खास नुकसान पहुंचा पाने में असफल रहे हैं.’
हालांकि हुड्डा पर हाईकमान की कृपा के तार उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा की राहुल गांधी से नजदीकी समेत रॉबर्ट वाड्रा मामले से भी जुड़ते हैं जिसमें हुड्डा ने हरियाणा में हर तरह से सहयोग किया. इसके साथ पिछले साल चार नवंबर को दिल्ली में एफडीआई के समर्थन में हुई कांग्रेस की महारैली, जिसमें कांग्रेस शासित राज्यों में से सबसे ज्यादा लोग हरियाणा से हुड्डा ले आए थे, उससे भी हाईकमान की नजरों में हुड्डा की स्थिति मजबूत हुई. नवीन ग्रेवाल कहते हैं, ‘उस रैली में जुटाई भीड़ के माध्यम से हुड्डा ने हाईकमान के सामने काफी हद तक यह स्थापित कर दिया कि हरियाणा के वे सबसे बड़े नेता हैं.’