2009 में जब नीरज अग्रवाल की दादी का निधन हुआ तब वे 85 वर्ष की थीं. नीरज ग्वालियर शहर में ही एक मेडिकल स्टोर के संचालक हैं, लिहाजा वह मरीजों का दर्द समझते हैं. जब उनकी दादी का निधन हुआ तो उन्होंने परिवार में सबकी मर्जी के खिलाफ जाकर उनकी आंखें दान करा दीं. सोचा कि आंखें किसी जरूरतमंद के काम आ जाएंगी. लेकिन हाल में उन्हें जयारोग्य अस्पताल में हुई घटना का पता चला तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई. अस्पताल के नेत्र विभाग को ही उन्होंने अपनी दादी की आंखें दान की थीं. नवीन का कहना है, ‘हमारे समाज के कुछ हिस्सों में माना जाता है कि मनुष्य अगर अपने शरीर का कोई अंग दान करता है तो अगले जन्म में वह उस अंग से वंचित रहता है. ऐसी रुढ़िवादी परंपराओं को तोड़कर मैंने दादी की आंखें दान की थीं, लेकिन देखिए अस्पताल के प्रबंधन को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता. आखिर कैसे कोई इतनी अमानवीयता दिखा सकता है कि दान में दी गईं आंखों को कूड़े में फेंक दे?’ नवीन ने जब दादी की आंखें दान करने का फैसला किया था तो परिवार में उनकी काफी आलोचना हुई थी और अब इस मामले के सामने आने के बाद अपने परिवार के लोगों का सामना करना उनसे मुश्किल हो रहा है. वे कहते हैं, ‘सुनने में आ रहा है कि 6 सालों में महज एक जोड़ी आंखें ही किसी जरूरतमंद को लगाई गई हंै. डाॅक्टरी का पेशा इन दिनों एक धंधा बन चुका है.’ एक पीड़ित राहुल गुप्ता की मां की दान की गईं आंखों को अस्पताल के रजिस्टर में दर्ज भी नहीं किया गया है. इस पर उनका मानना है कि और भी न जाने ऐसे कितने दानदाता होंगे जिन्हें नहीं पता कि उनकी ओर से दान में दी गईं आंखों का क्या किया गया. घटना के बाद नीरज जयारोग्य अस्पताल के नेत्र विभाग में अपनी दादी की आंखों के बारे में पूछने गए तो उनसे कहा गया, ‘आपकी दादी की आंखों से संबंधित जानकारी गोपनीय है. अगर हम आपको बता दें कि वे आंखें किसे लगाई गईं तो हो सकता है कि आप उससे या उसके परिजनों से पैसे की मांग करने लगें.’ नीरज ने बताया कि अस्पताल के स्टाफ का ये रवैया निहायत ही शर्मनाक है. वे कहते हैं, ‘चिकित्सा का पेशा तो पहले से ही बदनाम है. इस तरह की घटनाओं से लोगों का बचा-खुचा भरोसा भी खत्म हो जाएगा. आंखें दान करना तो दूर की बात है, लोग अब रक्तदान करने से पहले भी लाख बार सोचेंगे. क्या पता कहीं उसे भी बाल्टी में भर नाली में न बहा दिया जाए.’