फ़सलों का उचित भाव नहीं देना चाहती सरकार!

केंद्र सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी नहीं दे रही है। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को तो केंद्र सरकार बिलकुल भी लागू नहीं करना चाहती। इसलिए दोबारा किसानों के साथ बातचीत की पहले के बाद भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के गारंटी क़ानून और स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से किसानों को फ़सलों का भाव देने की सहमति केंद्र सरकार नहीं दे रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर गारंटी क़ानून और दूसरी सभी माँगों को लेकर केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच चंडीगढ़ में अभी तक छ: बैठकें हो चुकी हैं और सभी विफल रही हैं। इससे पहले 14 फरवरी को हुई बैठक भी विफल रही थी। केंद्र सरकार और किसानों के बीच अब अगली बैठक होली के बाद 19 मार्च को होनी है।

यह बैठक क़रीब ढाई घंटे चली, जिसमें केंद्र सरकार की तरफ़ से केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और केंद्रीय कमेटी के पदाधिकारी मौज़ूद थे। वहीं, किसानों की तरफ़ से संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के 28 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख किसान नेता सरवन सिंह पंधेर, काका सिंह कोटड़ा, जसविंदर लोंगोवाल, बलवंत सिंह बेहरामके सुखजीत सिंह, इंद्रजीत सिंह कोटबुढ़ा, अरुण सिन्हा, लखविंदर सिंह और अभिमन्यु कोहाड़ के अलावा दूसरे प्रमुख किसान नेता शामिल हुए थे। किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल भी इस बैठक के दौरान पास ही एंबुलेंस में रहे। इस बैठक में पंजाब सरकार की तरफ़ से वित्त मंत्री हरपाल सिंह चीमा, कृषि मंत्री गुरमीत सिंह गुड्डियाँ और फूड प्रोसेसिंग मंत्री लालचंद कटारुचक भी शामिल रहे।

इस बैठक में किसानों की माँगों पर केंद्र सरकार सहमत नहीं हुई और उसके प्रतिनिधियों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की क़ानूनी गारंटी पर हामी नहीं भरी। केंद्र सरकार के प्रतिनिधि कह रहे हैं कि सरकार अभी 18 फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदने की जगह दो-तीन फ़सलों को और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद सकती है। लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत पहले ही 23 फ़सलें शामिल हैं। लगता है कि केंद्र सरकार किसानों से चालाकी कर रही है और उन्हें बहकाकर शान्त करना चाहती है। केंद्र सरकार को खनोरी बॉर्डर और शंभू बॉर्डर पर किसानों के आन्दोलन से ऐतराज़ है और डर यह है कि कहीं दोबारा पूरे देश के किसान सड़कों पर न उतर आएँ। किसान केंद्र सरकार से साफ़ कह रहे हैं कि अगर उसने किसानों की माँगें नहीं मानीं, तो वे दिल्ली जाएँगे। केंद्र सरकार जानती है कि अगर किसान दिल्ली की तरफ़ बढ़े, तो किसान आन्दोलन फिर से तूल पकड़ सकता है। यही कारण है कि 2020 से ही केंद्र सरकार किसान आन्दोलन को विफल करने की कोशिश करती रही है। इसके लिए उसने किसानों को बदनाम भी किया और उन पर अत्याचार भी किये।

बैठक के बाद केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि चर्चा सकारात्मक रही है। हमने किसानों की समस्याओं को ध्यान से सुना है और हमने मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को सामने रखा, जो किसानों के कल्याण से सम्बन्धित हैं। दोनों पक्षों के पास अपने-अपने आँकड़े हैं और अब इनका मिलान किया जाएगा। इस बैठक से पहले कृषि मंत्री शिवराज सिंह किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के पास पहुँचे और उनसे अनशन ख़त्म करने की अपील की। लेकिन किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने किसानों की माँगें पूरी न होने तक अनशन तोड़ने से मना कर दिया। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता सरवन सिंह पंधेर और दूसरे कई किसान नेता केंद्र सरकार के किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं करने पर दिल्ली कूच का ऐलान कर चुके हैं। अब अगली बैठक 19 मार्च को होने के बाद ही किसानों के दिल्ली कूच की तारीख़ तय हो सकेगी। 19 मार्च को केंद्र सरकार और किसानों की बैठक में क्या होगा? केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान किसानों की समस्याओं को कितनी गंभीरता से लेंगे? यह तो बैठक के बाद ही पता चलेगा। इससे पहले समझने की ज़रूरत यह है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी क्यों दी जानी ज़रूरी है?

केंद्र सरकार ने जून, 2024 ख़रीफ़ की और अक्टूबर, 2024 में रबी की कुछ ही फ़सलों का मामूली न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाते हुए किसानों को बहलाने का प्रयास किया था। जबकि केंद्र सरकार की विपणन नीति के तहत 23 फ़सलें आती हैं, जिन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के आधार पर सी2 प्लस 50 प्रतिशत के हिसाब से ख़रीदा जाना चाहिए। लेकिन केंद्र सरकार और राज्य सरकारें न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली सभी फ़सलें किसानों से ख़रीदती हैं और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही सही निर्धारण अभी तक किया गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य सही न मिलने के चलते किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली अपनी ज़्यादातर फ़सलों को बाज़ार में कम भाव में बेचना पड़ता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी न मिलने से बाज़ार के उतार-चढ़ाव के कारण किसानों को बहुत नुक़सान होता है। किसानों को घाटे से बचाने के लिए भारत के कृषि सुधारों के हिस्से के रूप में पहली बार वित्त वर्ष 1966-67 में बाज़ार भाव पर नियंत्रण करने के प्रयास हुए थे। इसके बाद न तो इस तरह के प्रयास हुए और न ही फ़सलों का कोई निर्धारित भाव किसानों मिल पाया है। इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का गारंटी क़ानून बनना ज़रूरी है।

अभी न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत सात तरह के अनाज (गेहूँ, धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ और रागी), पाँच तरह की दालें (अरहर, चना, मसूर, उड़द और मूँग), सात तिलहन वाली फ़सलें (सरसों, सोयाबीन, मूँगफली, तिल, सूरजमुखी, कुसुम, निगरसीड) और चार व्यावसायिक फ़सलें (गन्ना, कपास, कच्चा जूट और सूखा गोला) आदि 23 फ़सलें आती हैं। लेकिन केंद्र सरकार अभी तक केवल 18 फ़सलें ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद रही है। हरियाणा ने अगस्त 2024 में 24 फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत रखा। इससे पहले हरियाणा सरकार 14 फ़सलें ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद रही थी। केंद्र सरकार ने कुछ वर्ष पहले यह भी कहा था कि किसान अपनी फ़सलें कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच सकते हैं। लेकिन राज्य सरकारें दूसरे राज्यों के किसानों की फ़सलें नहीं ख़रीदती हैं।

फ़सलों के भाव की अस्थिरता और स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने से किसानों को घाटा हो रहा है, जिसमें सबसे ज़्यादा छोटी और मध्यम जोत के किसान पिस रहे हैं। क्योंकि बड़े किसान तो किसी तरह घाटे से उबर जाते हैं, जिसकी वजह भी उनके पास अपनी मशीनरी का होना प्रमुख है। लेकिन ऐसे किसान, जो किराये पर ही मशीनरी पर निर्भर हैं और खेतों में पानी लगाने के लिए उन्हें ज़्यादा पैसा ख़र्च करना पड़ता है; उनके लिए कम न्यूनतम समर्थन मूल्य और उसका गारंटी क़ानून न होने से घाटा होता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का क़ानून इन किसानों की फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदने की गारंटी देगा और स्वामीनाथन आयोग का सी2 प्लस 50 प्रतिशत का फार्मूला किसानों को घाटे से बचाएगा। लेकिन केंद्र सरकार किसानों की इन दोनों ही माँगों को नहीं मान रही है, जिससे किसानों को अपनी फ़सलों को घाटे से बेचना पड़ता है। वहीं दूसरी तरफ़ किसानों से फ़सलें ख़रीदने वाले व्यापारी मनमाने भाव में उन्हें बेचते हैं।

अभी केंद्र सरकार किसानों को ए2, ए2 प्लस एफएल, सी2 फार्मूला लगाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य दे रही है। इसमें ए2 के तहत खादों और कीटनाशकों और मज़दूरी की लागत, एफएल किसान परिवार का श्रम है और सी2 के तहत भूमि का किराया और अन्य निश्चित लागत है। हालाँकि इन सब लागतों को सरकार किसानों की वास्तविक लागत के हिसाब से भी नहीं देती, बल्कि अपने द्वारा निर्धारित लागतों को मान्य करती है, जिससे किसानों को लगातार घाटा ही होता है। इन न्यूनतम समर्थन मूल्य में किसानों को लाभ सरकार नहीं देती है। स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से लागत और लागत का 50 प्रतिशत लाभ किसानों को देने का प्रावधान है। अगर स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करे और अभी जो भाव किसानों को दे रही है, वही लागत मूल्य मान भी लें, तो उसमें आज के भाव में 50 प्रतिशत रुपये और जोड़कर उसे किसानों को देने होंगे। उदाहरण के लिए अभी गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,425 रुपये प्रति कुंतल है। अगर केंद्र सरकार स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है, तो किसानों को कम से कम 3,637.50 रुपये प्रति कुंतल गेहूँ का भाव मिलेगा। केंद्र सरकार का तर्क है कि इससे खाद्य पदार्थ महँगे हो जााएँगे। लेकिन महँगाई तो अब भी है और केंद्र सरकार उस पर रोक नहीं लगा रही है। बाज़ार में बिकने वाले खाद्य पदार्थों पर अधिकतम ख़ुदरा मूल्य लागू (एमआरपी) होता है, जबकि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर भी सरकार केवल लागत मूल्य ही देना चाहती है। आज देश के किसानों को आधिकारिक तौर पर घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है, जिसे महँगाई के हिसाब से हर साल बढ़ाया भी नहीं जाता। इससे साफ़ है कि केंद्र सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य की मौज़ूदा नीति न किसानों के हित में है, न न्यायकारी है।