डॉ. आशा अर्पित
रासायनिक खेती करने से लोगों की सेहत ख़राब हुई है। खेती की ज़मीन ख़राब हुई है। 06 अगस्त को चंडीगढ़ प्रेस क्लब में मीडिया से रूबरू होते हुए गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने बताया कि एक बार कुरुक्षेत्र के गुरुकुल में अपने खेतों में मज़दूरों से पेस्टिसाइड डलवाते समय एक मज़दूर बेहोश हो गया। तत्काल अस्पताल ले जाने के बावजूद उसे दो-तीन दिन बचाया जा सके। उसी समय मैंने सोचा कि कीटनाशक छिड़काव करने वाले की जान तक ले सकते हैं और मैं यह ज़हर फ़सलों में डलवा रहा हूँ। ज़हरीला अनाज, साग-सब्ज़ियाँ गुरुकुल में पढ़ने वाले मासूम बच्चों को खिला रहा हूँ। यह ठीक नहीं है। तब कभी रासायनिक खेती न करने का संकल्प लेकर मैंने कृषि वैज्ञानिकों की सलाह ली और उनके बताये अनुसार जैविक खेती शुरू की। पहले साल खेत से मुझे कुछ नहीं मिला। दूसरे साल जैविक कृषि से 50 फ़ीसदी तथा तीसरे साल 80 फ़ीसदी उत्पादन मिला। लेकिन खेती का ख़र्च कम नहीं हुआ। उस व$क्त विचार आया कि गुरुकुल की 180 एकड़ ज़मीन है, जिन किसानों के पास कुल दो-ढाई एकड़ ज़मीन है, यदि वे इस खेती को करेंगे और उनका उत्पादन नहीं होगा, तो वे गुज़ारा कैसे करेंगे? फिर मेहनत से सुधार करके जैविक खेती को सफल बनाया।
क़ुदरती खेती के बारे में विस्तार से बताया कि कैसे उन्होंने इसमें सफलता हासिल की। राज्यपाल का कहना है कि रासायनिक व जैविक खेती ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देती है, जबकि क़ुदरती खेती उसे समाप्त करने का काम करती है। इसमें पानी की खपत 50 फ़ीसदी कम होती है तथा भूमिगत जल स्तर बढ़ता है। प्राकृतिक खेती से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ेगी। आने वाली पीढ़ियाँ को उपजाऊ भूमि मिलेगी। वह कहते हैं कि जब 50 साल पहले रासायनिक खेती नहीं होती थी तो कोई कैंसर, डायबिटीज, हार्ट अटैक और हाइपरटेंशन जैसे असाध्य रोगों को नहीं जानता था। इन रोगों के निदान के लिए अरबों-ख़रबों रुपये के मेडिकल संस्थान बनाये जा रहे हैं। भारत सरकार सवा लाख करोड़ रुपये वार्षिक यूरिया, डीएपी पर सब्सिडी देती है। यदि क़ुदरती खेती पर फोकस किया जाए, तो ये पैसा देश के अन्य विकास कार्यों के काम में आएगा। हम अगर अच्छा स्वस्थ खाना खाएँगे, तो बीमारियों से भी बचेंगे। हिमाचल के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने क़ुदरती खेती के जो प्रयोग किये, उसके बारे में बताया कि वहाँ इस खेती से किसानों की 27 फ़ीसदी आय बढ़ी और 56 फ़ीसदी खेती की लागत कम हो गयी।
उन्होंने बताया कि चार वर्ष तक मैं हिमाचल का गवर्नर रहा। मैंने सोचा राज भवन में बैठकर क्या करूँगा। मैंने गाँव-गाँव घूमना शुरू किया। दो साल में मैंने लगभग 50,000 किसान इस खेती से जोड़ दिये। आज भी हिमाचल प्रदेश की सरकार इस अभियान को चलाए हुए है। लाखों किसान इससे अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं।
आचार्य देवव्रत ने कहा कि आज देश की अवस्था क्या है? देश को आगे कैसे बढ़ाया जाए? इस पर चिंतन होना चाहिए। जब मैं हिमाचल में राज्यपाल नियुक्त हुआ, तब वहाँ 15 अगस्त ऐट होम कार्यक्रम हुआ। फिर हिमाचल में नशा मुक्ति अभियान, पौधरोपण अभियान लंबे समय तक चलाकर 26 जनवरी ऐट होम का मैंने स्वरूप ही बदल दिया। मेरे क़ाफ़िले में तसला, फाबड़ा साथ रहते थे। रास्ते में जहाँ गंदगी दिखी, वहीं सफ़ाई करने में जुट जाता था। बाद में हमारा यह स्वच्छता अभियान काफ़ी लोकप्रिय हुआ। पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में देश के सभी राज्यपालों के एक सम्मेलन में मैंने अपना प्रस्ताव रखा। अब यह स्वरूप सारे राष्ट्र में बदलने जा रहा है।
जैविक खेती में घाटा क्यों ?
भारत के खाद्यान्न भंडार को भरने के लिए मुख्य रूप से दो फ़सलें गेहूँ और धान का उत्पादन प्राप्त करने के लिए एक एकड़ भूमि में 60 किलो नाइट्रोजन की ज़रूरत पड़ती है। इसकी पूर्ति के लिए एक एकड़ में 300 कुंतल गोबर की खाद चाहिए। यदि किसान के पास एक एकड़ ज़मीन है, तो उसे इस खाद के लिए 15 से 20 पशु पालने होंगे। यदि ये खाद नहीं डाल सकते, तो वर्मी कंपोस्ट से भी इसकी पूर्ति हो सकती है। लेकिन जैविक कृषि में वर्मी कंपोस्ट बनाने वाला केंचुआ विदेश से आयात किया जाता है, जो मिट्टी नहीं खाता। केवल गोबर व काष्ठ ही खाता है। 16 डिग्री से नीचे और 28 डिग्री के ऊपर के तापमान में जीवित नहीं रहता। यह वर्मी कंपोस्ट खेत में डालने से खरपतवार बहुत पैदा होता है और उसे निकालने के लिए लेबर बहुत पड़ती है। तीसरा यदि 300 कुंतल गोबर की खाद एक एकड़ में डालेंगे, तो उसमें से निकलने वाली गैसें वायुमंडल में जाकर ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनेंगी।
वैज्ञानिक आधार
कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के माइक्रोबायोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. बलजीत सिंह सहारण और उनकी टीम ने गुरुकुल के खेतों में इस खेती का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग किया। रिसर्च के बाद पाया कि भैंस, बैल, हॉस्टन व जर्सी गाय के गोबर की अपेक्षा भारतीय नस्ल की देसी गाय के एक ग्राम गोबर में 300 करोड़ से भी ज़्यादा बैक्टीरिया हैं। उस टीम ने कुरुक्षेत्र ज़िले की पाँच तहसीलों के रासायनिक खेती करने वाले किसानों के खेतों से मिट्टी के सैंपल लेकर जाँच करवायी गयी, तो एक ग्राम मिट्टी में 30,05,000 सूक्ष्म जीवाणु पाये गये। इसी तरह वैज्ञानिकों ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र के फार्म से पाँच जगह से मिट्टी के सैंपल लिए और उनका भी निरीक्षण करवाया, तो एक ग्राम मिट्टी में 181 करोड़ जीवाणु पाये गये। अत: रासायनिक खेती की अपेक्षा क़ुदरती खेती में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या ज़्यादा पायी गयी।