सरकारी भर्तियों में मनमानी का खेल

हाल ही में यूपीएससी में सीधी भर्ती यानी लेटरल एंट्री को लेकर जमकर हंगामा हुआ और आख़िरकार केंद्र सरकार को पिछले दरवाज़े से अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगानी पड़ी। इसमें मामला था- आरक्षण के हिसाब से लेटरल एंट्री न देने का। हालाँकि मेरा मानना यह है कि लेटरल एंट्री के ज़रिये देश के योग्य लोगों को ही चुना जाता है, जिसमें कुछ नहीं देखा जाता, न ज़ात-पात, न धर्म और न अपना-पराया। सन् 1950 से पिछली केंद्र सरकारों ने भी लेटरल एंट्री के ज़रिये ऐसी भर्तियाँ की हैं, जिसके ज़रिये कई क़ाबिल लोग इस देश को मिले। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, जिन्हें बाद में राजनीति ने देश के सर्वोच्च पद पर भी बैठाया गया। इसके अलावा आई.जी. पटेल, वी. कृष्णमूर्ति, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और आर.वी. शाही के अलावा कई बड़ी विद्वान हस्तियों को ऐसी ही चुना और सरकार में लाया गया था।

लेकिन सवाल यह है कि क्या अब ऐसे लोगों को ही लेटरल एंट्री के द्वारा केंद्र सरकार अधिकारी बना रही है? या इस पिछले दरवाज़े का दुरुपयोग करते हुए सिर्फ़ अपने मतलब के लोगों को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर रही है। क्योंकि अगर हम कुछ पदों पर ध्यान दें, तो देखेंगे कि उन पदों पर बैठे लोग केंद्र सरकार यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए काम कर रहे हैं। कुछ लोगों को शायद यह बात बुरी लगे; लेकिन यह सच है। क्योंकि चाहे वो चुनाव आयोग हो, चाहे सीबीआई हो, चाहे ईडी हो, चाहे इनकम टैक्स विभाग हो, चाहे पुलिस प्रशासन हो, इन सबने जो काम पिछले 10.5 वर्षों में किया है, उसमें केंद्र सरकार की मंशा साफ़ झलकती है। हालाँकि पहले भी सरकार के हिसाब से अधिकारी काम करते थे; लेकिन इस क़दर खुलेआम नहीं।

दरअसल, पहले मीडिया का डर सरकारों को रहता था, जो अब ख़त्म हो चुका है। इसके लिए आज जितनी सरकारें ज़िम्मेदार हैं, उससे कहीं ज़्यादा आजकल के पत्रकार और मीडिया हाउस ज़िम्मेदार हैं, जिन्हें पत्रकारिता अब एक सेवा नहीं, बल्कि पेशा नज़र आता है। और यही वजह है कि ज़्यादातर पत्रकारों को आज अवाम गोदी मीडिया का दर्जा दे रहा है। ये सब मोटे पैकेज, ऊपर की कमायी के चक्कर में पड़े हैं और लग्जरी लाइफ का इन्हें चस्का लग चुका है। और आज के ये पत्रकार मोटा पैसा बड़ी आसानी से एसी रूम में बैठकर कमा भी रहे हैं। भले ही इन्हें ख़बरों और पत्रकारिता का ज्ञान हो या न हो; लेकिन इन्हें चैनलों पर बेकार के मुद्दों पर पार्टी प्रवक्ताओं, विश्लेषकों और पत्रकारों को मुर्गे की तरह लड़ाकर टीआरपी बटोरने का धंधा आता है, जिसके पिछले दिनों बड़े चर्चे रहे और लोगों को झूठी ख़बरें परोसने का हुनर बख़ूबी नज़र भी आया। हमने जब पत्रकारिता शुरू की थी, तब 10 रुपये का पेन जेब पर लगाकर दिन भर की कड़ी मेहनत करके ख़बरें ढूँढकर लायी जाती थीं और ख़बर के चलने पर महीने की तनख़्वाह के अलावा कोई आमदनी भले ही नहीं होती थी; लेकिन अख़बार में बाई लाइन छपने से नाम और इज़्ज़त हुआ करती थी और जिसके ख़िलाफ़ ख़बर होती थी, वो डरता था। किसी ग़लत आदमी को पता चल जाता था कि सामने कोई पत्रकार है, तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाया करती थी। और आज न वो इज़्ज़त है और न वो पत्रकार। जो हैं भी, उनके पीछे अब ग़लत लोग पड़े हैं।

बहरहाल, केंद्र की मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने उस विज्ञापन पर रोक लगा दी है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर लेटरल एंट्री के ज़रिये यूपीएससी ने 17 अगस्त को मंत्रालयों के लिए 45 ज्वाइंट सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी और डायरेक्टर लेवल की भर्तियाँ करने के लिए निकाला था। विपक्ष ने हंगामा किया कि इस लेटरल एंट्री में आरक्षण का ख़याल नहीं रखा गया। इस लेटरल एंट्री के ख़िलाफ़ देश भर में एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों ने प्रदर्शन भी किये। उत्तर प्रदेश में दो साल पहले 6,800 शिक्षकों की भर्ती में भी आरक्षण पूरा न देने को लेकर एक विरोध पहले ही खिंचा आ रहा था। लेटरल एंट्री के विज्ञापन ने आरक्षण लेने वाले वर्गों के इस ग़ुस्से में आग में घी का काम किया और 21 अगस्त को सभी ने मिलकर भारत बंद किया। लेकिन इस भारत बंद के दौरान कुछ राज्यों में आगजनी, तोड़फोड़ जैसी घटनाओं को अंजाम दिया गया, जिससे मन काफ़ी दु:खी हुआ।

दरअसल, लेटरल एंट्री के तहत केंद्र सरकार कुछ पदों पर सभी क्षेत्रों से कुछ क़ाबिल लोगों की बिना यूपीएससी की परीक्षा दिये सीधी भर्ती करती है। इस भर्ती के तहत किसी क्षेत्र में किसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति को केंद्र सरकार सीधे नियुक्ति पत्र देकर बड़े आधिकारिक पद पर काम करने का सुनहरा मौक़ा देती है, जिससे उस पद पर बैठकर वह व्यक्ति देश की तरक़्क़ी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके। लेकिन पिछले कई वर्षों से देखा जा रहा है कि केंद्र की सरकारें अपने मतलब के लोगों की भर्ती लेटरल एंट्री के ज़रिये करके ख़ुद के फ़ायदे के लिए उनका इस्तेमाल करती हैं। केंद्र की मोदी सरकार पर इसके और हर साल बड़ी संख्या में लेटरल एंट्री के ज़रिये अपने चहेतों को भर्ती करने के कई आरोप लगे हैं। इसी प्रकार से मोदी सरकार पर अपने चहेते अधिकारियों को प्रमोशन देने, उन्हें ख़ास महकमे देने के साथ-साथ कई-कई बार जबरन एक्सटेंशन देने के भी आरोप लगे हैं। और किसी ने कोई आवाज़ भी नहीं उठायी। लेकिन इस बार जैसे ही लेटरल एंट्री का विज्ञापन जारी हुआ, विपक्ष के नेताओं ने इसे आरक्षण का मुद्दा बनाते हुए प्रतिबंधित करने की माँग कर दी। इस डायरेक्ट भर्ती को लेकर राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, मायावती, संजय सिंह और कई दूसरे नेताओं ने खुलकर विरोध किया।

दरअसल, यूपीएससी देश की सबसे मुश्किल परीक्षा है, जो तीन मुश्किल चरणों के ज़रिये ऐसे युवाओं का चुनाव करती है, जिनमें देश को विकास की राह पर चलाने और देश-विदेश नीति को समझने की क्षमता होती है। इन परीक्षाओं में पहले 400 अंकों की प्रीलिम्स यानी प्राथमिक परीक्षा होती है। यह परीक्षा पास करने के बाद उम्मीदवारों को 1,750 अंकों की मेंस यानी मुख्य परीक्षा पास करनी होती है और इस परीक्षा को भी पास करने वालों को इंटेलिजेंट अधिकारियों के एक पैनल के सामने जाकर 275 अंकों का एक इंटरव्यू पास करना होता है। जो उम्मीदवार परीक्षा के इन सभी पड़ावों को पार करके चुने जाते हैं, उनकी नियुक्ति आईएएस, आईएफएस, आईपीएस और तमाम मंत्रालयों व सरकारी विभागों में अधिकारियों के रूप में होती है।

लेकिन लेटरल एंट्री के ज़रिये जिन लोगों की भर्ती की जाती है, उन्हें कठिन परीक्षा के किसी भी दौर से नहीं गुज़रना होता है और वो इन अधिकारियों के बराबर का दर्जा पाते हैं। और यह सब उनकी ख़ास क़ाबिलियत की वजह से ही होता है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार किसी क्षेत्र में विशेष योग्यता रखने वाले लोगों को कोई यूनिवर्सिटी पीएचडी और डी.लिट की उपाधि देती है।

लेकिन सवाल यह उठता है कि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने पिछले क़रीब साढ़े 10 वर्षों के कार्यकाल में एक तरफ़ सरकारी पदों को पूरी ईमानदारी से भरने की बजाय सरकारी नौकरियों को ख़त्म करने का काम किया है, वहीं दूसरी तरफ़ वो लेटरल एंट्री से अधिकारियों के ऐसे पदों पर भर्ती करने में पूरी दिलचस्पी दिखाती रही है, जिन पदों पर बैठकर अधिकारी बहुत कुछ कंट्रोल करते हैं और कई अधिकारी अपनी मनमानी भी करते हैं।

विपक्ष सरकारी पदों पर भर्ती न करने और बेरोज़गारी को लेकर लगातार आवाज़ उठाता रहा है। पिछले दिनों आयी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में श्रम बल सहभागिता दर 49.9 फ़ीसदी होने के बावजूद सिर्फ़ 1.4 फ़ीसदी लोग ही सरकारी नौकरी पा सकते हैं यानी सरकारी नौकरी सिर्फ़ काम करने योग्य लोगों में से सिर्फ़ 1.4 फ़ीसदी के लिए ही सरकारी नौकरियाँ बची हैं। इससे साफ़ है कि सरकारी नौकरियाँ अब न के बराबर ही बची हैं। लोकसभा में दिये गये केंद्र सरकार के एक बयान के अनुसार, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद साल 2014 से लेकर जुलाई 2022 तक अलग-अलग सरकारी विभागों में कुल 7,22,311 सरकारी पदों पर भर्ती की है। लेकिन उनका वादा था- हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने का और जब यह सवाल आया, तो उन्होंने पकौड़ा बेचने को रोज़गार बता डाला। हैरत की बात का कि साल 2018-19 में महज़ 38,100 लोगों को ही सरकारी नौकरी मिली, जबकि इस दौरान 5,09,36,479 ज़रूरतमंद युवाओं ने सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किये।

हालाँकि सरकार ने दावा किया था कि साल 2019-20 में देश भर में 1,47,096 युवाओं को सरकारी नौकरी दी गयी। और यह भी दावा है कि मोदी सरकार के समय में रोज़गार दर लगभग 40 फ़ीसदी है। लेकिन दूसरी तरफ़ आ रही जानकारियों से पता चल रहा है कि देश भर में हर विभाग में बड़ी संख्या में सरकारी पद ख़ाली पड़े हैं। जो पद ख़ाली हो रहे हैं, उन पर भर्तियाँ नहीं हो रही हैं। मंत्रालयों तक में ठेकेदारी प्रथा शुरू हो चुकी है। परीक्षाएँ रद्द होने और पेपर लीक होने का खेल तो खुलेआम चल ही रहा है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक, देश में साल 2020 में बेरोज़गारी दर 7.11 फ़ीसदी और साल 2021 में 7.9 फ़ीसदी थी। लेकिन सरकार ख़ुद कह रही है कि वह 100 में सिर्फ़ 40 लोगों को ही नौकरी दे पा रही है। इस प्रकार तो बेरोज़गारी दर 60 फ़ीसदी हुई। फिर बेरोज़गारी के आँकड़े 7-8 फ़ीसदी के बीच में क्यों अटके हुए हैं? इसमें तो गड़बड़ी साफ़ दिख रही है। लेकिन लेटरल एंट्री में कोई कमी नहीं आयी। प्राइवेट नौकरियाँ भी घट रही हैं। अभी हाल ही में ख़बर आयी है कि महज़ एक साल में टाइटन और रिलायंस समेत पाँच बड़ी कम्पनियों ने अपने 52,000 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। अगर मैं मीडिया क्षेत्र की बात करूँ, तो हर मीडिया हाउस इन दिनों 10-10 कर्मचारियों का काम एक या दो कर्मचारी से ले रहा है और तनख़्वाह की बात की जाए, तो वो कई मीडिया हाउस में तो चपरासी से लेकर शुरुआती पद के लेवल की भी नहीं है। कोरोना की पहली लहर में साल 2020 में क़रीब 1.45 करोड़ लोगों को कम्पनियों ने नौकरी से हटा दिया था। इसी प्रकार से कोरोना की दूसरी में क़रीब 52,00,000 लोगों की और कोरोना की तीसरी लहर में क़रीब 18,00,000 लोगों की नौकरी छिन गयी। और ये केंद्र सरकार के ही आँकड़े हैं। लेकिन नौकरियाँ मिलीं कितनी? यह इस बात से ज़ाहिर होता है कि आज जब कहीं किसी एक पद पर भर्ती निकलती है, तो लाखों बेरोज़गार उसके लिए अप्लाई करते हैं। सरकार अगर सरकारी पद बढ़ाने में असमर्थ है, तो कम-से-कम उन पदों को ज़रूर भरे, जो ख़ाली पड़े हैं। और सिर्फ़ लेटरल एंट्री, रिश्वत और सोर्स के ज़रिये सरकारी पदों पर भर्तियों का खेल भी रोके, जिससे किसी भी वर्ग या जाति के युवा को ईमानदारी से उसका हक मिल सके और बार-बार आरक्षण का मसला ही न उठे। क्योंकि जब-जब आरक्षण को लेकर कोई आन्दोलन होता है, तो सरकार और जनता दोनों का नुक़सान होता है। बिना मतलब पुलिस प्रशासन को लगाने में करोड़ों के ख़र्च के अलावा आगजनी और तोड़फोड़ जैसी घटनाओं से जान-माल का नुक़सान होता है। इसे सरकार को रोकने की कोशिश करनी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)