शिवेन्द्र राणा
राजनीति की खींचतान और महाराष्ट्र, झारखण्ड के विधानसभा चुनावों तथा उत्तर प्रदेश के उपचुनावों की गहमागहमी के बीच एक चौंकाने वाली ख़बर चर्चा में रही। दरअसल भारतीय पुरुष क्रिकेट टीम के सदस्य और पूर्व बल्लेबाज़ी कोच संजय बांगर के क्रिकेटर बेटे आर्यन बांगर अपना लिंग परिवर्तित करवाकर अनाया बन गये हैं, जिसकी जानकारी उन्होंने इंस्टाग्राम के माध्यम से दी है। इस उदाहरण के अलावा कई अन्य लिंग परिवर्तन के उदाहरण इसके जीते-जागते प्रमाण हैं।
आइंस्टीन मानते थे कि विज्ञान का सारा ज्ञान सापेक्ष एवं सीमित है। वास्तव में ऐसा ही है क्या? क्योंकि वर्तमान में विज्ञान न तो सिर्फ़ ईश्वरीय सत्ता को चुनौती ही दे रहा है, बल्कि स्वयंभू ईश्वर का प्रतिरूप बनकर अवतरित हुआ है। यदि ऐसा न होता, तो वह जन्मना एक पुरुष को नारी के रूप में परिवर्तित करने में सक्षम नहीं होता। इसलिए यह कहने का जोखिम उठाया जा सकता है कि आइंस्टीन विज्ञान की ज्ञान शक्ति का मूल्यांकन करने में ज़रा-सा चूक गये; लेकिन रूसो नहीं। रूसो ने सन् 1750 ई. में पेरिस की साहित्यिक संस्था डी ज़ोन एकेडमी के लिए लिखे गये अपने निबंध में यह सिद्ध किया है कि विज्ञान और कला ने मनुष्य का पतन किया है। रूसो ने विज्ञान को मानव सभ्यता के भ्रष्ट करने वाले कारक के रूप में रेखांकित किया, तब नि:संदेह उनके ज्ञान चक्षुओं ने भविष्य की इन विसंगतियों की कल्पना कर ली होगी।
ख़ैर, विज्ञान तो मात्र एक ज़रिया है। इसकी मुख्य केंद्रीय शक्ति तो वह मानसिकता है, जिसने इस कार्य को साध्य बनने के लिए प्रेरित किया। इस घटना का मूल संदर्भ इस पर आधारित है कि किस प्रकार आज यूरोप और अमेरिका के बाद भारत जैसे देशों में भी स्त्री-पुरुष सम्बन्ध दूषित हुए हैं, जो 18वीं सदी तक इस प्रकार निर्धारित थे कि औरत घर पर रहकर घरेलू ज़िम्मेदारियाँ सँभालेंगी और पुरुष बाहर का काम करेंगे। यह उस दौर का अनुबंध है, जब समाज मुख्यत: कृषि प्रधान ही था। लेकिन बाद में खेती के विकास के साथ-साथ शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की दौड़ में महिलाओं की भूमिका बढ़ने लगी।
अब इस नये तकनीकि युग में महिलाएँ हर क्षेत्र में थोड़ी कम संख्या में ही सही, पुरुषों के बराबर खड़ी हैं। और जबसे पारम्परिक संरचना में व्यापक बदलाव होने से लैंगिक संघर्ष बढ़ा है, जिसका मुख्य ध्येय समाज पर नियंत्रण स्थापित करना है। पूर्व में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध सहयोग की भावना पर आधारित था। बाद में जब समाज का स्वरूप पॉवर स्ट्रक्चर पर आधारित हुआ, तब शक्ति और नियंत्रण की प्राप्ति ही मुख्य लक्ष्य बन गयी। यहाँ आधी आबादी (महिलाएँ) जब सत्ता की लड़ाई में पड़ीं, तो समाज सेक्स फ्री की सोच लेकर यौन वर्जनाओं से मुक्त होने लगा। परिवार का सम्मान नहीं बचता दिख रहा है और समाज की मुख्य संस्था परिवार का अस्तित्व ही संकट में है, तो लिंग आधारित आग्रह भी बेमानी ही लगता है। फिर विज्ञान की अर्थलोलुप चिकित्सा (वर्तमान स्थितियों में यही संज्ञा ठीक है) ने इसमें दख़ल दिया। क्योंकि यहाँ उसे बड़ी आर्थिक सम्पन्नता की गारंटी दिखी। हालाँकि इस घटना को समझने के दूसरे नज़रिये हो सकते हैं; जैसे कि असीम आधुनिकता के इस युग में यह वाम पक्षीय वैचारिकी की व्यक्तिगत रुचि, प्रगतिशीलता, माई बॉडी-माई च्वाइस जैसे अनुषांगिक विचारों का भाग माना जाएगा। लेकिन इसे मूलत: एक मानसिक संकट ही स्वीकार किया जाना चाहिए।
वैचारिक विकृतियाँ मानव मस्तिष्क के उस हिस्से से उपजती हैं, जो अवचेतन मन के भावों का केंद्रीयभूत हिस्सा है। यह एक यूटोपिया निर्मित करता है, जिसके भीतर प्रभावित व्यक्ति और समाज एक अलग दुनिया में जीने लगता है। अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता गणितज्ञ जॉन नैश के जीवन पर आधारितचर्चित हॉलीवुड फ़िल्म ‘ए ब्यूटीफुल माइंड’ (2001) में एक टॉप सीक्रेट सैन्य मिशन के लिए गोपनीय रूप से काम करने वाला जॉन नैश बाद में एक दिमा$गी बीमारी श्चिजोफ्रेनिया का शिकार मिलता है। यही सिनेमाई फंतासी वर्तमान के वोग कल्चर के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के यथार्थ का निरूपण करती है, जहाँ लिंग परिवर्तन जैसे असामान्य कृत्य मात्र मन के तृप्ति जैसे क्षणिक आग्रह पर किये जा रहे हैं। असल में जिस विचारधारा के सैद्धांतिक नैरेटिव समाज में एक सर्वग्राह मूल्य के रूप में स्थापित होने लगते हैं।
जिन्हें भी यह लगता है कि 90 के दशक में सोवियत संघ एवं पूर्वी यूरोप के पतन ने वामपंथ को ज़मींदोज़ कर दिया, वे भ्रम हैं। वामपंथ आज और भी शक्तिशाली तथा सर्वव्यापी है। कभी अमेरिका को अपनी भ्रमित विजय का भान हुआ था कि उसने बिना किसी प्रत्यक्ष युद्ध के शीतयुद्ध जीत लिया और रूस को विघटित कर वामपंथ का क़िला ढहा दिया; लेकिन वामपंथ ने तो बिना एक भी गोली चलाये पूरे अमेरिकी समाज को विखंडित कर दिया। उसके परिवारों, बच्चों और स्त्रियों को बर्बाद कर दिया।
60 के दशक में अमेरिकी वामपंथी हर्बर्ट मार्क्यूस के नेतृत्व में हुए लिबरल मूवमेंट, जिसने परिवार, समाज एवं राष्ट्र के संस्थापित मूल्यों को तिरस्कृत करते हुए उन्मुक्तता की आड़ में एक पतित, नशे से आबद्ध, अपराध, वासना एवं समलैंगिकता का धुंध खड़ा कर दिया। ध्यातव्य है कि यही वो समय है, जब स्त्री-उत्पीड़न से मुक्ति और फेमिनिज्म (महिलाओं के हिस्से के वामपंथ) के तराने तैरने लगे थे। 90 के दशक में प्रसारित उदारीकरण के बाद ग्लोबलाईजेशन की आँधी में दुनिया भर की राष्ट्रीय संस्कृतियाँ पश्चिमी की आधुनिकता में ढहने लगी, जिसके पार्श्व में वामपक्षीय सिद्धांतों का संबल था। अत: समाज का जो ध्वंस पश्चिम में हो रहा था, उसने बाद में एशिया-अफ्रीका के विकासशील और अर्द्ध-विकसित देशों को अपना निशाना बनाया। भारत भी उसी सूची में शामिल है।
वामपंथ के मक्का फ्रैंकफर्ट स्कूल की एक थ्योरी है पॉलिटिक्ल करेक्टनेस का मूल सिद्धांत है- ‘समाज को स्थापित मूल्यों और वैकल्पिक मूल्यों के प्रति सहिष्णु होना चाहिए।’ यह एक प्रकार का बौद्धिक आंतकवाद ही है। आज पश्चिम का समाज भी इससे बुरी तरह प्रताड़ित है। जून, 2022 में मशहूर अमेरिकी उद्योगपति एलन मस्क का 18 वर्षीय बेटा जेवियर अपना लिंग परिवर्तन करवाकर विवियन जेना विल्सन बन गया। मस्क ने वामपंथ समर्थित वोक कल्चर को इसका कारण मानते हुए साफ़ कहा कि उनके बेटे की मौत यानी लिंग परिवर्तन की सर्जरी, जिसे डेडनेमिंग कहते हैं; वोक माइंड वायरस के कारण हुई है। उन्होंने घोषणा की है कि वह ट्रांसजेंडर मेडिकल ट्रीटमेंट को अपराध घोषित करने की लड़ाई लड़ेंगे और इस वायरस को ख़त्म कर देंगे, ताकि किसी और के बच्चे के साथ ऐसा न हो।
आज मस्क जैसे जेंडर फ्लूईडिटी को बुरा मानने वाले जो लोग हैं, उनमें मुख्य भाग धर्मनिष्ठ ईसाइयों का है और वामपंथ से जिसकी परम्परागत शत्रुता है। आप देखेंगे कि दुनिया के बाक़ी हिस्सों में भी जो वर्ग ऐसे विचारों का प्रबल प्रतिरोधी हैं, वे सब धार्मिक रूप से निष्ठ हिन्दू और मुस्लिम मत के अनुयायी हैं। हालाँकि ऐसे कृत्यों को साम्यवाद नहीं, अराजकतावाद कहना ज़्यादा उचित होगा; क्योंकि इसमें आर्थिक लाभ के लिए समाज का ध्वंस किया जा रहा है।
इन दिनों अमेरिका ने स्कूलों से लेकर बहुत-से सार्वजानिक स्थानों पर यूनिसेक्स वाशरूम का कॉन्सेप्ट लागू किया गया है, जहाँ लैंगिक पहचान का कोई अर्थ नहीं है। इसके पीछे मुख्य मान्यता है कि मानव शरीर विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न लैंगिक व्यवहार के लिए अनुकूलित हो जाता है। ज़रा सरल शब्दों में समझें, तो इसका सीधा अर्थ है- समलैंगिक सम्बन्धों को समाज में स्वीकृति देना। एक प्रकार से यह भी सामाजिक एवं पारिवारिक संस्थाओं, यहाँ तक कि विवाह पद्धति का ध्वंस ही है। लगता है पश्चिमी संस्कृति और सामाजिक आचार-विचार में उसका परम लक्ष्य भौतिक उपलब्धि ही एकमेव साध्य है।
ऐसे उदाहरण न तो वैज्ञानिक उपलब्धियों के चरम उन्नति के मानक हैं और न ही सामाजिक प्रगतिशीलता के। चिकित्सा एवं तकनीक के बल पर लिंग-परिवर्तन नैसर्गिक नियमों का उपहास ही नहीं अपमान है। ऐसे लोगों को लैंगिक पहचान के संकट से निवारण हेतु सर्जरी की नहीं, बल्कि मनोचिकित्सा की ज़रूरत है। ऐसे विचारों वाले लोगों के मन में दमित इच्छाएँ या कहिए कुंठाएँ उद्वेलित होती हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो कानपुर में कबाड़ से जवान बनाने की मशीन के आविष्कारक एक लुठंक दम्पति कई बुजुर्गों से करोड़ों रुपये नहीं ठग पाते, और वामपंथ इन्हीं मानसिक कुंठाओं एवं दमित मानवीय सोच का पोषक है। लेकिन भारतीय संस्कृति तो धर्म एवं नैतिकता से अनुप्राणित है। यहाँ भौतिकता का कोई विरोध नहीं है, बल्कि यह एक सोपान या सीढ़ी मात्र है; अन्तिम लक्ष्य तो आध्यात्मिकता है। प्रकृति के नियमों को भंग करने, उनको नियंत्रित करने के प्रयास मानव सभ्यता के लिए घातक सिद्ध होंगे और हो भी रहे हैं। नित नयी घातक यौनिक एवं अन्य डीएनए के घातक रोग इसी का तो परिणाम हैं।
क्या राष्ट्रीय समाज यह समझने में अक्षम हुआ है कि खोखले वामपंथीय नास्टेल्जिया के ध्वंसकारी वैचारिक आवरण में जो मानवीय मन एवं बुद्धि की उन्मुक्तता दिख रही है, दरअसल वही विनाश का मार्ग है; जिसे विज्ञान की नकारात्मक शक्ति का संबल भी मिल रहा है। आधुनिक विज्ञान की प्रगति ने मानव जीवन को भौतिकवाद की गति ज़रूर दी है; लेकिन संयम से वंचित कर दिया। और यह संयम का अभाव ही विज्ञान के मार्फ़त मानव सभ्यता को सर्वनाश की ओर धकेल रहा है। हालाँकि जब भौतिकता एवं विज्ञान के इस गठजोड़ के लिए सुख-साधनों का विकास ही चरम लक्ष्य है। यह आधुनिक सभ्यता शरीर को अन्तिम सत्य स्वीकार कर उसके भोग-विलास की प्राप्ति के प्रयास में रत है। तब उसे यह क्यों समझना होगा कि उन्नत सभ्यता की वास्तविक सार्थकता का सार जीवन का चरित्र, अध्यात्म एवं संस्कृति के प्रति निष्ठा में है। और ऐसे कुमार्गों एवं कुविचारों के विरुद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा चेताती भी है।
‘काममय एवायं पुरुष इति।
स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति।।
यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते।
यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते।।’ (वृहदा. उ.-4/4/5) अर्थात् ‘मनुष्य कामनामय है। वह जैसी कामना वाला होता है, वैसा ही संकल्प करता है। जैसे संकल्प वाला होता है, वैसा ही कर्म करता है। वह जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है।’ क्या हम अपनी आध्यात्मिक विरासत से यह सकारात्मकता ग्रहण कर सकते हैं? क्योंकि भविष्य की उम्मीद तो तभी ज़िन्दा दिखेगी, जब वर्तमान अपने अतीत की थाती को ससम्मान स्वीकारे और यह समझे कि उसकी तर्कहीन उन्मुक्तता और खोखली आधुनिकता उसे एक अंधी गली की ओर धकेल रही है।