चुनावी नतीजों के आईने से

यह दिलचस्प बात है कि महाराष्ट्र के जिस नांदेड़ लोकसभा हलक़े में इस चुनाव में कांग्रेस उपचुनाव जीत गयी, उसी नांदेड़ में विधानसभा चुनाव में छ: की छ: विधानसभा सीटें कांग्रेस हार गयी। पूरे महाराष्ट्र में जो कांग्रेस विधानसभा चुनाव में 16 सीटों पर सिमट गयी, उसने सिर्फ़ छ: महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में 13 लोकसभा सीटें जीती थीं और उसके नेतृत्व में इंडिया गठबंधन ने 48 में से 31 सीटें। तब भाजपा और उसके साथी दल सिर्फ़ 17 सीटों पर सिमट गये थे। निश्चित ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे काफ़ी चौंकाने वाले हैं। इन नतीजों से ऐसा लगता है मानो जनता ने भाजपा की मनोकामना पूरी करने के लिए ही वोट डाला हो। पर क्या यह सच है?

इस चुनाव के बाद देश की राजनीति में पहली बार संसद के भीतर गाँधी परिवार के तीन सदस्य पहुँच गये हैं। सोनिया गाँधी राज्यसभा में, तो राहुल और प्रियंका गाँधी लोकसभा में। चूँकि इस बार जनता ने दोनों राज्यों- महाराष्ट्र और झारखण्ड में जीतने वाले गठबंधनों को एकतरफ़ा समर्थन दिया है, लिहाज़ा कहा जा सकता है कि नतीजे मिले-जुले रहे। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के यह नतीजे भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिले गंभीर झटकों से उबरने में मदद करेंगे। महाराष्ट्र में कांग्रेस ही नहीं, उसके दोनों साथियों शरद पवार वाली एनसीपी और उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को बड़ा राजनीतिक नुक़सान हुआ है; क्योंकि लोकसभा चुनाव नतीजों से कांग्रेस को काफ़ी राजनीतिक ताक़त मिली थी। महाराष्ट्र की जनता के विपरीत झारखण्ड के मतदाता ने झामुमो और कांग्रेस गठबंधन पर भरोसा जताते हुए इस गठबंधन को पिछली बार से ज़्यादा बड़ा समर्थन दे दिया; और बँटेंगे, तो कटेंगे वाले भाजपा के नारे को पूरी तरह ठुकरा दिया। राजनीतिक रूप से कह सकते हैं कि एक राज्य में भाजपा वाला एनडीए गठबंधन और एक राज्य में कांग्रेस वाला इंडिया गठबंधन जीत गया। हालाँकि महाराष्ट्र बड़ा राज्य है, लिहाज़ा राजनीतिक रूप से वहाँ की जीत भी बड़ी कही जाएगी। महाराष्ट्र के नतीजों को लेकर समाज के तबक़ों में अलग-अलग सोच है। कुछ का कहना है कि शिंदे सरकार की ‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहीण योजना’ ने कमाल कर दिया, तो कुछ का कहना है कि बँटेंगे, तो कटेंगे नारे ने हिन्दुओं का ध्रुवीकरण कर दिया और राज्य में इसके लिए आरएसएस ने ज़मीन पर बहुत ज़्यादा काम किया। हालाँकि नतीजों से ज़ाहिर होता है कि हिन्दुओं के ही नहीं, बल्कि भाजपा का विरोध कर रहे मुसलमानों के वोट भी भाजपा ही समेटकर ले गयी। क्या वास्तव में अब देश या कहिए महाराष्ट्र के मुसलमान भी भाजपा के मुरीद हो गये और उन्होंने बँटेंगे, तो कटेंगे नारे को समर्थन दिया?

इनसे इतर समाज में एक ऐसा तबक़ा है, जिसे आशंका है कि भाजपा का चुनाव में जीतना वास्तव में जनादेश नहीं, बल्कि पिछले दरवा•ो से हासिल की गयी जीत है। इस वर्ग का कहना है कि महाराष्ट्र में जीत भाजपा ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के राजनीतिक भविष्य के लिए भी ज़रूरी थी और उसे इसका प्रबंध करना पड़ा, जिसमें धन्नासेठों की बड़ी भागीदारी रही। नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव के बीच महाराष्ट्र में पैसे के बड़े पैमाने पर उपयोग के आरोप लगे थे। निश्चित ही इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस का यह उचित समय है। इन नतीजों से यह तो ज़ाहिर हुआ कि देश में मोदी लहर जैसी कोई चीज़ अब नहीं है। होती, तो झारखण्ड में भी भाजपा ही जीतती। देश में इन चुनावों के साथ दो लोकसभा सीटों पर भी उप चुनाव हुए जो दोनों कांग्रेस ने जीते। जबकि उपचुनावों में 48 विधानसभा सीटों में से भाजपा 20 और कांग्रेस सात सीटें जीती, जिनमें एक सीट भाजपा के प्रचंड बहुमत वाले राज्य मध्य प्रदेश की भी शामिल है। उपचुनाव में कर्नाटक में तो कांग्रेस ने सभी तीन और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने सभी छ: सीटें जीत लीं। वहाँ ममता बनर्जी का जादू बरक़रार है। पंजाब उपचुनाव में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली। वहाँ कांग्रेस ने एक और आम आदमी पार्टी ने तीन सीटें जीतीं। असम के उपचुनावों में भाजपा ने ज़रूर बेहतर प्रदर्शन किया। उत्तर प्रदेश में जैसा चुनाव हुआ, उससे देश के लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले हरेक नागरिक को झटका लगा है। जिस तरह मुसलमानों को वोट देने से रोका गया, वह देश के भविष्य के लिए चिन्ता की बात है। यह सब तब हुआ, जब देश और सत्ताएँ कुछ दिन में होने वाले संविधान दिवस को मनाने की तैयारी कर रहे थे। भाजपा वहाँ नौ में से सात सीटें जीत गयी, जबकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चौंकाने वाले नतीजे देने वाली सपा दो सीटें ही जीत पायी। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि सपा को कांग्रेस से गठबंधन में चुनाव लड़ना चाहिए था। ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता ने सपा में यह भरोसा भर दिया कि वह अकेले ही सब कुछ कर सकती है। अखिलेश यादव को लोकसभा नतीजों के बाद राष्ट्रीय नेता के रूप में उभारने वाले पोस्टर भी लगाये गये। हालाँकि अखिलेश का पूरा फोकस राज्य पर रहना चाहिए था।

महाराष्ट्र में बतौर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का कार्यकाल इस लिहाज़ से बहुत अच्छा रहा कि इन कुछ महीनों में उन्होंने अपनी नम्रता और राजनीतिक चतुराई से सबका दिल जीता। बेशक वह मूल पार्टी शिवसेना को धोखा देकर भाजपा के साथ आ गये; लेकिन माना जाता है कि इसके पीछे असली कारण 2019 के विधानसभा चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री न बनाया जाना था। बेशक भाजपा के साथ जाने के बाद उन्होंने इसे उद्धव ठाकरे के कांग्रेस के साथ जाने के फ़ैसले के प्रति अपनी असहमति बताया हो। लाडकी बहीण जैसी लोकलुभावन योजना लाकर शिंदे ने चुनाव को बड़े स्तर पर प्रभावित किया। हालाँकि इस पर सवाल ज़रूर हैं कि महिलाओं के खाते में नक़द पैसे डालने वाली यह योजना चुनाव की घोषणा से कुछ घंटे पहले ही लागू की गयी, जिससे ऐसा लगा कि मतदाताओं को रिश्वत दी गयी है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि महाराष्ट्र की जीत से भाजपा को ताक़त मिली है; लेकिन आरएसएस ने इस चुनाव में ज़मीन पर बहुत ज़्यादा काम किया। इस हिन्दूवादी संगठन का गढ़ नागपुर महाराष्ट्र में ही है। बेशक भाजपा इस चुनाव की जीत का श्रेय ले रही हो, आरएसएस की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। उधर झारखण्ड की जीत से इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि भाजपा की ख़िलाफ़ इंडिया गठबंधन की लड़ाई वास्तव में कमज़ोर नहीं पड़ी है और उसे ज़्यादा निराश होने की ज़रूरत नहीं है। झारखण्ड में मतदाताओं ने झामुमो-कांग्रेस को एकतरफ़ा जनमत दिया है। वहाँ झामुमो ने जिन 43 सीटों पर लड़ा, उनमें से 34 सीटें; जबकि कांग्रेस ने कुल लड़ी 30 सीटों में से 16 सीटें जीत लीं। कुल 81 सीटों में वहाँ इस गठबंधन को अन्य दलों के साथ मिलकर 56 सीटें मिली हैं, जिनमें चार सीटें राजद की भी शामिल हैं। उधर एनडीए में भाजपा को 68 सीटों पर लड़कर सिर्फ़ 21 सीटें मिलीं।

इन नतीजों से ज़ाहिर हो गया कि आदिवासी मतदाताओं ने झामुमो-कांग्रेस गठबंधन पर भरोसा किया। भाजपा के बांग्लादेशी घुसपैठियों के आरोप को मतदाता ने सच नहीं माना। भाजपा के लिए यह बड़ा झटका है। हेमंत सोरेन, जो फिर से झारखण्ड के मुख्यमंत्री बन गये हैं; सबसे बड़े आदिवासी नेता के रूप में स्थापित हुए हैं। उनकी पत्नी कल्पना सोरेन भी एक मज़बूत नेता के रूप में उभरी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री चम्पई सोरेन तो जीत गये; लेकिन उनके बेटे भाजपा उम्मीदवार बाबूलाल सोरेन को 18,000 वोटों से करारी हार मिली। निश्चित ही चुनाव से ऐन पहले पाला बदलने वाले चम्पाई सोरेन के राजनीतिक करियर के लिए यह बड़ा झटका है। झारखण्ड में भाजपा की हार में बड़ा हाथ असम के उसके बड़बोले मुख्यमंत्री हिमन्त बिश्व सरमा की बतौर प्रभारी फ्लॉप रणनीति का भी रहा। महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में 48 में से 31 सीटें कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन को पक्की उम्मीद थी कि विधानसभा चुनाव के बाद उसकी सरकार बनेगी। आख़िरी समय तक यही संकेत मिल रहे थे; लेकिन चुनाव नतीजे ऐसे आये कि भाजपा के नेता भी हक्के-बक्के रह गये। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि भाजपा ने कोंकण और कांग्रेस की मज़बूती वाले विदर्भ में सेंध लगाते हुए अपनी ताक़त बढ़ा ली है, जबकि शरद पवार के पश्चिम महाराष्ट्र के गढ़ को भी भेद दिया। कांग्रेस को इन सभी क्षेत्रों में झटका लगा है। हो सकता है यह स्थायी झटका न हो; लेकिन यह देखने के लिए उसे अगले चुनाव का इंतज़ार करना होगा।

इस चुनाव में महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से महायुति ने 228, महाविकास अघाड़ी ने 47 और अन्य ने 13 सीटें जीतीं। महायुति में भाजपा ने 132 सीटें, मुख्यमंत्री के रूप में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पहला विधानसभा चुनाव लड़ रही शिवसेना ने 55 सीटें, जबकि कमज़ोर बताये जा रहे अजित पवार की एनसीपी ने 41 सीटें जीत लीं। महाविकास अघाड़ी में शिवसेना (उद्धव) को 20, कांग्रेस को 16 और एनसीपी (शरद) को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा। बाक़ी सीटें अन्य के खाते में गयीं। इस चुनाव में सबसे बड़ा झटका राज ठाकरे को लगा, जिनके बेटे अमित ठाकरे समेत महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के सभी 125 उम्मीदवार चुनाव हार गये। इन नतीजों से साफ़ हो गया है कि भाजपा के लिए आज भी हिन्दुत्व ध्रुवीकरण की राजनीतिक सबसे बड़ी ताक़त है। राहुल गाँधी के जातिगत गणना, आरक्षण और संविधान जैसे मुद्दे जनता के बीच अभी मज़बूती से नहीं पहुँचे हैं। बेशक प्रियंका गाँधी के जीतने से लोकसभा में कांग्रेस की आवाज़ और मज़बूत होगी; लेकिन पार्टी के लिए समय आ गया है कि वह देश भर में संगठन का कायाकल्प करे और राज्यों में सहयोगियों की बैसाखी बने रहने की जगह अपने पाँव मज़बूत करे।