रामनाथ अपनी मां के साथ रहता है. कंपनी की नौकरी करते हुए उसके पिता की मौत हो जाती है. मां और बेटे को उम्मीद है कि कंपनी से मदद मिलेगी. वे लोग गरीबी में जिंदगी बसर करते हैं. मां को दिल की बीमारी है. रामनाथ प्रतिभाशाली लड़का है. पढ़ाई और खेलकूद में आगे रहता है. कंपनी से मदद न मिलने की जानकारी होने पर मां सदमे में सीढ़ी से लुढ़क जाती है. मां को बचाने की फिक्र में भागता रामनाथ एक गाड़ी से टकरा जाता है. उसकी टांग में चोट आती है और वह पैर से अपाहिज हो जाता है. अस्पताल से निकलने पर उसे अपने किराए के घर में ताला लगा दिखता है. मां गुजर चुकी है. वह अनाथ सड़क पर भटकता है. उसकी मुलाकात मोहन से होती है. मोहन अंधा है. वह अपनी दीदी मीना की खोज में गांव से आया है. दोनों एक-दूसरे का सहारा बन जाते हैं.
आम तौर पर हिंदी फिल्मों में अनाथ बच्चों को भीख मांगते या फिर अपराधियों के हत्थे चढ़ते दिखा दिया जाता है. लेकिन इस कहानी में वे मेहनत की राह चुनते हैं
‘दोस्ती’ एक अपाहिज और एक अंधे लड़के की दोस्ती, त्याग और समर्पण की भावपूर्ण कहानी है. एक-दूसरे के प्रति प्रेम और लगाव से वे जीवन की कठिनाइयों को पार करते हैं. उनके इस संघर्ष में पड़ोसी, शिक्षक और अन्य लोग सहायक बनते हैं. नैतिकता और आदर्श से भरपूर दोस्ती की इस कहानी में दुख और पीड़ा के साथ प्रेम, सुख और सहयोग भी है. फिल्म के अन्य किरदारों की बात करें, तो मंजुला, मंजुला के भाई, मोहन की बहन मीना, शिक्षक शर्मा जी, हेड मास्टर, मोहल्ले की मौसी, नंदू और कुत्ता टफी इन दोनों मुख्य किरदारों के कार्य-व्यापार में सहयोगी की भूमिका निभाते हैं. फिल्म में कोई खलनायक नहीं है. रामनाथ को स्कूल में तंग करते बच्चों को खल नहीं कहा जा सकता, वे उद्दंड हैं.
रामनाथ और मोहन परिस्थितियों की वजह से अनाथ हो गए हैं. आम तौर पर हिंदी फिल्मों में अनाथ बच्चों को भीख मांगते या फिर अपराधियों के हत्थे चढ़ते दिखा दिया जाता है. वे या तो अभावों में असहाय जिंदगी जीते हैं या फिर अपराध की दुनिया में शामिल हो जाते हैं. बाण भट्ट की लिखी इस कहानी में अपाहिज और अंधा होने के बावजूद रामनाथ और मोहन भटकाव के शिकार नहीं होते. वे मेहनत की राह चुनते हैं. आरंभ से ही वे स्वावलंबी होने की कोशिश करते हैं. फिल्म के एक शुरुआती दृश्य में रामनाथ बेसुध होकर माउथ ऑर्गन बजाता है, तो एक मुसाफिर उसकी जेब में सिक्का डाल जाता है. रामनाथ इसे भीख समझकर खीझता है, तो मोहन उसे समझाता है कि तूने मांगा नहीं है. तुम्हारे संगीत से खुश होकर किसी ने कुछ दिया, तो उसे भीख नहीं कहेंगे. फिल्म में ऐसी घटनाएं घटती हैं कि रामनाथ फिर से स्कूल में दाखिला लेना चाहता है. उसे 50-60 रुपयों की जरूरत है और कहीं से मदद नहीं मिल पाती, तो रामनाथ और मोहन मिलकर पैसे जुटाने की कोशिश करते हैं. इसके लिए वे गाने की मदद लेते हैं और उनके गीत में आह्वान है,
‘जानेवालों जरा, मुड़ के देखो मुझे, एक इंसान हूं, मैं तुम्हारी तरह
जिसने सबको रचा, अपने ही रूप से, उसकी पहचान हूं, मैं तुम्हारी तरह’
‘दोस्ती’ 1964 में रिलीज हुई थी. उस साल राज कपूर की ‘संगम’, मोहन कुमार की ‘आई मिलन की बेला’, शक्ति सामंत की ‘कश्मीर की कली’, चेतन आनंद की ‘हकीकत’ और राज खोसला की ‘वो कौन थी’ जैसी बड़ी फिल्में रिलीज हुई थीं. ये हिट भी हुई थीं. इन फिल्मों में उस समय के लोकप्रिय सितारे थे. आज की तरह तब भी फिल्में सितारों और गीत-संगीत की वजह से चलती थीं. गौर करें तो उन दिनों प्रचलित राज कपूर, शम्मी कपूर, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त, विश्वजीत, जॉय मुखर्जी और किशोर कुमार जैसे लोकप्रिय सितारों के बीच बिल्कुल नए कलाकारों के साथ फिल्म बनाने की हिम्मत राजश्री प्रोडक्शंस के ताराचंद बड़जात्या ही कर सकते थे.
संगीतकारों में उन दिनों मदन मोहन, शंकर-जयकिशन और ओपी नैय्यर जैसे दिग्गजों के संगीत का जादू चल रहा था. याद करें तो ‘दोस्ती’ लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की पहली फिल्म थी, हालांकि इस जोड़ी की दूसरी फिल्म ‘पारसमणि’ कुछ कारणों से पहले रिलीज हो गई. ‘दोस्ती’ में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को अपने प्रिय गायकों मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर का भरपूर सहयोग मिला. कहते हैं, मोहम्मद रफी को जब पता चला कि इस फिल्म में उन्हें दो किशोरों के लिए अपनी आवाज देनी है, तो वे पसोपेश में पड़ गए. दिलीप कुमार, देव आनंद और शम्मी कपूर के लिए वह अपनी आवाज में फेरबदल कर लेते थे, लेकिन कम उम्र के सुशील कुमार और सुधीर कुमार के लिए सही आवाज लाने के लिए उन्हें अभ्यास करना पड़ा. ‘दोस्ती’ के गीतों को सुनते समय यह बिल्कुल एहसास नहीं होता कि यह वही मोहम्मद रफी हैं, जो दिलीप कुमार, देव आनंद और शम्मी कपूर की आवाज हैं.
इस फिल्म का एक और रोचक वाकया है. इस फिल्म में गीतों के अलावा अन्य जगहों पर भी माउथ आर्गन का इस्तेमाल हुआ है. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने माउथ आर्गन बजाने के लिए आरडी बर्मन को बुलाया था. उन दोनों से अपनी दोस्ती निभाते हुए आरडी ने इस फिल्म के लिए माउथ आर्गन बजाया और क्या खूब बजाया. मुश्किल धुनों पर रची गई माउथ आर्गन की स्वर लहरी में गहरी और लंबी सांसों का इस्तेमाल किया गया. जब भी माउथ आर्गन प्रेमी इन धुनों को बजाने की कोशिश करते हैं, तो उनकी सांसें उखड़ने लगती हैं.
साल 1964 के लिए फिल्मफेयर के पुरस्कारों की संगीत श्रेणी में ‘दोस्ती’ के साथ ‘संगम’ और ‘वो कौन थी’ भी नामांकित थीं, लेकिन ‘संगम’ के संगीतकार शंकर-जयकिशन और ‘वो कौन थी’ के संगीतकार मदन मोहन के मुकाबले लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार के लायक समझा गया. इस फिल्म में गाए गाने ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे’ के लिए मोहम्मद रफी को सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार मिला था. दरअसल ‘दोस्ती’ को कुल मिलाकर छह फिल्मफेयर पुरस्कार मिले थे.
‘दोस्ती’ के गाने सभी की जुबान पर चढ़ गए थे. इसकी वजह यह थी कि इसके संगीत की ही तरह फिल्म की थीम के अनुरूप लिखे गए इसके गीतों ने भी काफी असर डाला था. इसके लिए मजरूह सुल्तानपुरी को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था. इस फिल्म के सभी गीत लोकप्रिय हुए- ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे’, ‘मेरा तो जो भी कदम है’, ‘कोई जब राह न पाए’, ‘जानेवालों जरा मुड़ के देखो मुझे’, ‘राही मनवा दुख की चिंता’ और ‘गुड़िया हमसे रूठी रहोगी’.
बड़जात्या को बाण भट्ट की कहानी पर पूरा भरोसा था. इसके अलावा गोविंद मुनीस ने फिल्म के अर्थपूर्ण और मार्मिक संवाद लिखे थे. बानगी देखें- ‘रोने से क्या होगा? इस दुनिया में गरीबों का जीना मुश्किल है’, ‘गरीब घर में जन्म लिया है, तो तुझे हर मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा’, ‘आंखों में रोशनी नहीं, पानी तो है’, ‘क्या आदमी की पहचान कपड़े-लत्ते से ही होती है’, ‘अच्छा कपड़ा पहनने से कोई बड़ा नहीं होता. अच्छे गुण होने चाहिए.’ इसके अलावा गोविंद के संवादों में नेहरू युग की नैतिकता और आजादी के बाद के समाज का सपना भी है. फिल्म के एक दृश्य में मोहन से रामनाथ पूछता है, ‘कुछ देशों में मुफ्त शिक्षा है, अपने देश में कब होगी?’
इस फिल्म की अभूतपूर्व सफलता के बावजूद इसके बाद सुशील कुमार और सुधीर कुमार की फिल्में नहीं आईं. इस फिल्म से लॉन्च हुए संजय खान बाद में लोकप्रिय हुए
बड़जात्या ने इस फिल्म के निर्देशन के लिए ‘जागृति’ के निर्देशक सत्येन बोस को आमंत्रित किया था, जिन्होंने इस फिल्म की सादगी और सरलता बरकरार रखी. फिल्म के दृश्य संयोजन और संरचना में अधिक नाटकीयता नहीं है. बोस ने अभिनय में भी कलाकारों को सहज रखा. फिल्म के मेलोड्रामैटिक सीन लाउड नहीं हैं. अनेक दृश्यों में इमोशंस की सघनता से हृदय द्रवित होता है. बोस ने फिल्म के अहम किरदारों को कमजोर नहीं रखा. वे सहानुभूति नहीं चाहते. दोनों ही अपनी मेहनत और लगन से सब कुछ हासिल करने की कोशिश करते हैं. दोनों ही किरदार नेक हैं. यहां तक कि जब रामनाथ हाजत से छूटने पर गुरुजी के साथ चला जाता है, तब भी मोहन के मन में दुर्भावना नहीं आती. जब उसे पता चलता है कि रामनाथ को परीक्षा में बैठने के लिए पैसों की जरूरत है, तब वह पैसों का इंतजाम कर देता है. जब फिल्म के अंतिम दृश्य में दोनों मिलते हैं, तब भी वे एक-दूसरे से शिकायत करना और एक-दूसरे को सफाई देना जरूरी नहीं समझते.
आश्चर्य की बात है कि इस फिल्म की अभूतपूर्व सफलता के बावजूद इसके बाद सुशील कुमार और सुधीर कुमार की फिल्में नहीं आईं. इस फिल्म से लॉन्च हुए अब्बास खान उर्फ संजय खान बाद में लोकप्रिय हुए, जबकि इसमें उनकी छोटी भूमिका थी. फिल्म के अन्य कलाकारों में बेबी फरीदा अभी तक सक्रिय हैं. वह टीवी पर फरीदा दादी के नाम से दिखती हैं. बीच में अफवाह उड़ी थी कि सुशील कुमार और सुधीर कुमार की हत्या हो गई थी और उस हत्या में किसी बड़े सितारे का हाथ था. लेकिन मशहूर रेडियो प्रोग्राम ‘सुहाना सफर’ की रिसर्च टीम से जुड़े विजय दुबे ने सुशील कुमार को खोज निकाला. सुशील कुमार अभी मुंबई के चेंबूर इलाके में अपनी पत्नी के साथ रहते हैं.
विजय दुबे को सुशील कुमार ने बताया कि उन्होंने बाल कलाकार के तौर पर अभिनय की शुरुआत की थी. 1958 में सिंधी भाषा में बनी ‘अबाना’ उनकी पहली फिल्म थी. वह मशहूर अदाकारा साधना की भी पहली फिल्म थी. बाल कलाकार के तौर पर सुशील कुमार ने अनेक फिल्मों में काम किया था.
जब बड़जात्या ने 1959 में रिलीज हुई बांग्ला फिल्म ‘लालु-भुलु’ को हिंदी में बनाने का फैसला किया, तो उन्हें 17-18 साल के दो ऐसे लड़कों की जरूरत थी, जो रामनाथ और मोहन का किरदार निभा सकें. कहते हैं कि बडज़ात्या की बेटी राजश्री ने सुशील कुमार को ‘फूल बने अंगारे’ में देखा था. सुशील के काम से प्रभावित राजश्री ने ही अपने पिता को उनका नाम सुझाया. इसके बाद फिल्म के निर्देशक बोस ने श्री साउंड स्टूडियो में उनका स्क्रीन टेस्ट लिया था. फिर सुधीर कुमार को अंधे मोहन और सुशील कुमार को अपाहिज रामनाथ की भूमिकाओं के लिए चुना लिया गया. उनके साथ तीन सालों का अनुबंध किया गया और तनख्वाह 300 रुपये तय हुई.
सुशील कुमार ने विजय दुबे को असल किस्सा बताया कि ‘दोस्ती’ के बाद उन दोनों को फिल्में क्यों नहीं मिल सकीं. दरअसल सुधीर कुमार ने राजश्री प्रोडक्शंस का अनुबंध तोड़ दिया और एवीएम की फिल्म ‘लाडला’ करने मद्रास चले गए थे. बड़जात्या ने सुशील और सुधीर से वादा किया था कि वह उन दोनों के साथ अगली फिल्म भी बनाएंगे, लेकिन सुधीर कुमार के अनुबंध तोड़ने की वजह से सुशील कुमार का अनुबंध भी समाप्त हो गया. बाद में 1968 में आई ‘तकदीर’ में बड़जात्या ने फिर सुशील कुमार को मौका दिया, लेकिन तब तक फिल्म इंडस्ट्री से निराश सुशील ने तय कर लिया था कि वह आगे फिल्मों में काम नहीं करेंगे. उन्होंने पढ़ाई खत्म करने के बाद एयर इंडिया में नौकरी कर ली.
सुधीर कुमार ने हिंदी और मराठी की कुछ फिल्मों में काम करने के बाद अभिनय से सन्यास ले लिया. चूंकि फिल्मों के ऑफर नहीं मिल रहे थे, इसलिए छोटी-मोटी भूमिकाएं करने के बजाय उन्होंने सन्यास लेना ही बेहतर समझा. साल 2004 में सुशील को ‘दोस्ती’ के अपने दोस्त सुधीर की मौत की खबर मिली.
‘दोस्ती’ सरल भावनाओं पर आधारित आदर्श फिल्म थी. आजादी के बाद के सपने और सवाल इस फिल्म में मुखर हुए थे. लोगों के शहरों में पलायन और कर्मचारियों के प्रति कंपनियों की बेपरवाही के संकेत भी इस फिल्म में मिलते हैं. भाई को देखने के बाद भी उसकी पहचान से इन्कार करती बहन मीना की दुविधा भी समझ में आती है. वह मंजुला के अमीर भाई की नजरों में छोटा होने से बचना चाहती है. भला वह किसी भिखमंगे की बहन कैसे हो सकती है. बाद में भाई को न पहचानने का दुख उसे कचोटता है, तो वह बिलख पड़ती है. बाद में हम देखते हैं कि अभी तक गरीब और भिखमंगा समझकर रामनाथ और मोहन को दुत्कारने वाले किरदार अशोक का मन बदल चुका है. शायद बीमारी की वजह से गुजर चुकी अपनी बहन के मर्म को समझने के बाद वह पश्चाताप करता है. फिल्म में ऐसे आदर्श के अनेकों दृश्य हैं. ‘दोस्ती’ की कामयाबी की वजह इसमें दिखाई गई ऐसी कोमल भावनाएं तो हैं ही, इनके अलावा इसके भावपूर्ण गीतों और मधुर संगीत ने इसे लोकप्रियता की नई बुलंदियों तक पहुंचाया.
(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं)