भारत की उड़ान और अंधविश्वास

28 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्सिओम मिशन-4 पर गये भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला से जब वीडियो कॉल पर बातचीत की, तो ग्रुप कैप्टन शुक्ला ने कहा कि अंतरिक्ष से भारत बहुत भव्य दिखता है।’ अंतरिक्ष से भारत बहुत भव्य दिखता होगा। लेकिन ज़मीन पर क्या सूरत-ए-हाल है? क्या सत्ता चलाने वालों, प्रशासनिक अधिकारियों के पास इस पर भी ग़ौर करने का वक़्त है या उनकी नीयत है?

बिहार के पूर्णिया ज़िले के रानीपतरा टेटगामा गाँव में झाड़-फूँक के तीन दिन बाद एक बच्चे की मौत होने पर ग्रामीणों ने डायन के शक में एक ही परिवार के पाँच लोगों से मारपीट की, फिर पेट्रोल छिड़ककर ज़िन्दा जला दिया। इसके बाद सभी शवों को घर से दो किमी दूर तालाब में फेंक दिया। दिल दहला देने वाली यह घटना 06 जुलाई की रात हुई। पाँच में तीन महिलाएँ थीं। इसके बाद पूर्णिया में ही एक और महिला पर डायन कहकर कुछ ग्रामीणों ने पत्थरबाज़ी की।

विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था वाले देश भारत के लिए यह सिर्फ़ घरेलू स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी शर्म की बात है। जब देश में चारों और हिंदूवाद का ऐसा माहौल बनाया जा रहा हो, जो मन में एक दहशत पैदा करता हो। अभिव्यक्ति की आज़ादी को सिकोड़ा जा रहा है, तो डायन के नाम पर अशिक्षित, कमज़ोर तबक़े के लोगों की हत्या क्या इस भव्य दिखने वाले भारत के लिए गंभीर चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए? ऐसी घटनाओं को दूर-दराज़ भारत में घटने वाली अपवाद घटना के रूप में आँकना देश के सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक पहलू के लिए सही नहीं है। मोदी का विजन 2047 तक विकसित भारत है। क्या 2047 तक डायन प्रथा का उन्मूलन संभव है? बहुत पुरानी यह कुप्रथा आज़ादी के 78 साल बाद भी मौज़ूद है। एक तरफ़ शुभांशु शुक्ला ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में प्रवेश करने वाले पहला भारतीय बनकर इतिहास रच दिया और इसी भारत की ज़मीन पर जादू-टोना, डायन सीरखे अंधविश्वास लोगों को ख़ासकर महिलाओं को निशाना बना रहे हैं। एक अहम सवाल यहाँ पर यह भी उठता है कि बीते 11 वर्षों से प्रधानमंत्री महिलाओं के उत्थान, सशक्तिकरण के जो दावे करते हैं, उसकी पड़ताल कितनी ज़रूरी है। पूर्णिया की यह दर्दनाक घटना एक आईना है।

दरअसल ऐसी घटनाएँ देश के 12 राज्यों में अधिक हैं- झारखण्ड, बिहार, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और असम। ऐसी घटनाएँ अधिकतर यहाँ के आदिवासी इलाक़ों में होती हैं। कई राज्यों- बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिसा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, असम ने तो इस कुप्रथा पर लगाम लगाने के लिए इसके ख़िलाफ़ क़ानून भी बनाये हैं। लेकिन क़ानून कितने कारगर हैं? यह अहम सवाल है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 2012 से 2022 तक डायन शिकार से सम्बन्धित हिंसा में 1,184 लोगों की जान चली गयीं डायन प्रथा के ख़िलाफ़ असम में जो क़ानून बना है, वह बहुत कड़ा है। यहाँ दोषी पाये जाने पर अपराधी को आजीवन जेल तक की भी सज़ा का प्रावधान है।

ग़ौरतलब है कि यह क़ानून सबसे पहले बिहार राज्य ने ही बनाकर एक मिसाल क़ायम की थी और दूसरे राज्यों को एक राह दिखायी थी; लेकिन वहाँ इसका अमल प्रभावी नहीं दिखता। निरंतर संस्था द्वारा 2023-2024 में बिहार में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार, यह प्रथा 25 साल बाद भी जारी रहेगी। कम-से-कम 75,000 महिलाएँ संभवत: बिहार के प्रत्येक गाँव में दो या अधिक महिलाएँ डायन होने के आरोप के कारण लगातार ख़तरे में रहती हैं।

इस सर्वेक्षण में यह पाया गया कि जादू-टोने की शिकार लगभग 75 प्रतिशत महिलाएँ 46 से 66 वर्ष की आयुवर्ग की थीं, जिनमें से 97 प्रतिशत दलित, पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों से थीं। अधिकांश महिलाएँ अनपढ़, ग़रीब थीं। केवल 31 प्रतिशत ऐसी महिलाओं ने अपने मामले पुलिस या पंचायतों को बताये और जिन लोगों ने बताये उनमें से भी 62 प्रतिशत को कोई हल नहीं मिला। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इस सर्वेक्षण में शामिल 85 प्रतिशत ग्राम प्रधान 1999 के अधिनियम से वाक़िफ़ नहीं थे। दिसंबर, 2024 में सर्वोच्च अदालत ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि जादू-टोने के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित करना संवैधानिक भावना पर धब्बा है। बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव बाबत राजनीतिक पारा चरम पर है। लेकिन अफ़सोस कि संवैधानिक भावना पर यह धब्बा किसी भी राजनीतिक दल के लिए कोई मतलब नहीं रखता। यह धब्बा चुनावी परिदृश्य में अदृश्य है।