एक कालखण्ड में समय का इक टुकड़ा था जिसका नाम इमरान-खण्ड था. इसे सलमान-खण्ड से प्रेरित बताया जाता है और यह दौरा-ए-फिल्में (दौर-ए-फिल्में नहीं) ‘शंघाई’ से पहले की बात है. राजा नटवरलाल उसी कालखण्ड की फिल्म है, बस खंडित है.
उस कालखण्ड में इमरान हाशमी एक जैसी अनेकों फिल्मों में सिर्फ कपड़े बदल-बदल कर नजर आते थे और सैकड़ों चाहने वाले फैंस के लिए वे उनके सलमान थे. हर फिल्म में एक ही रूप में दर्शन देने की सलमान वाली प्रतिभा रखने वाला हीरो जो किसर भी है और चलते वक्त सलमान की तरह ही कंधे अकड़ाकर चलने के अभिनय में पारंगत भी. सलमान की तरह ही हाशमी ने भी उन्हीं चौड़े कंधों पर कई फिल्में अकेले उठाईं. ये कंधे कभी निढाल नहीं होते थे. चलते वक्त, बैठे वक्त, दाल-चावल खाते वक्त, लेटे वक्त या सोते वक्त, ये चौड़े कंधे और उन कंधों से जुड़ी पीठ की खींचकर चौड़ी की गई अकड़ सूत-भर भी ढीली नहीं होती थी. सड़कों पर फिर उस खास अंदाज (जिसमें बाकी शरीर के सभी हिस्सों को मन-माफिक हिलने-डुलने की इजाजत हो, लेकिन अंगार भी गिरे तब भी कंधे को ढीला छोड़ना कुफ्र हो) में अकड़कर चलने वालों की तादात में बढ़ोतरी करने में हाशमी का भी अहम योगदान रहा. किसी सामान्य समय में, इसे कंधे का लकवा कहा जाता लेकिन सलमान-हाशमी युग में यह हीरो जैसा हो जाना है.
समय के इस टुकड़े के गुजर जाने के बाद ‘शंघाई’ आई. ‘एक थी डायन’ आई. ‘घनचक्कर’ आई. करोड़ों रुपये साथ नहीं लाई इसलिए हाशमी को उसी रूप में लौटा लाई जो बिकता है. राजा नटवरलाल में वही हाशमी हैं, ‘मर्डर’ से लेकर ‘जन्नत 2’ वाले, बस आत्मविश्वास से लबरेज हैं और अभिनय सीख चुके हैं. उनकी सिग्नेचर सिनेमाई हरकतें अभी भी वैसी ही हैं. बैकग्राउंड में बज रहे सूफी गीत को चलती बस में आराम से बैठे होने के बावजूद तपाक से खड़े होकर बीच में ही पकड़ लेने के बाद उस गीत को लिप-सिंक करते हुए बस में टहलने की प्रतिभा पुरानी वाली ही है. और अभी तक राजा नटवरलाल फिल्म के बारे में एक भी पंक्ति नहीं लिखने की वजह भी पुरानी वाली ही है. फिल्म पुरानी है. इसका समय पुराना है. और इसकी ठगी में न ‘ब्लफ मास्टर’ हो जाने के गुण हैं, न ‘स्पेशल छब्बीस’.
विलेन केके को एक ऐसी आईपीएल-प्रेरित क्रिकेट टीम, जो है ही नहीं, बेचने निकली यह फिल्म अगर समझदार होती तो अपनी ठगी में लगने वाली तैयारियों और अक्ल से उत्सुकता जगाते हुए पूरी फिल्म के दौरान रोमांचित कर सकती थी. लेकिन इसके लिए उसे प्यार, यार और परिवार के आस-पास घूमते सिनेमाई इमोशन्स को तजना होता और चूंकि कारोबार करना ही एक फिल्म का इन दिनों काम है तो वह ऐसा कुछ नहीं करती. वह जिस जगह पर अपना मंकी-कैप उतारकर असल चेहरा दिखाती है, क्षणिक मजा तो आता है, लेकिन आंखें जो फटनी चाहिए, और फिल्म की चालाकी पर फिदा होते हुए एक छोटी-सी तारीफ लिपटी हंसी जो निकलनी चाहिए, नहीं निकलती.
मटर के दानों को चना समझकर दर्शकों को चबाने को कहना ही अगर फिल्म की ठगी है, तो यह खंडित ठगी है, दिल को न अच्छी लगी है.