जो हैं नसीर हैं. पता नहीं यह समझदार विवेचना है कि नहीं लेकिन ‘फाइंडिंग फैनी’ में नसीर ऐसे लगे जैसे अपने दुख-भरे भोले किरदार में वे चार्ली चैपलिन हो गए हों. बस न छड़ी थी न हैट न काला कोट-पैंट न वो नायाब करतबी चेहरा. चैक की लाल शर्ट के ऊपर एक बो-टाई और सिर्फ नसीर.
फिर थोड़े-से पंकज कपूर हैं. वे पूरे नहीं हैं इसकी नाराजगी ज्यादा है. लेकिन एक सीक्वेंस में, जहां वे डिंपल कपाड़िया की तस्वीर बनाते हैं, अभिनय के खुदा हो जाते हैं. जैसे वे ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ के उस दृश्य में हो गए थे जब विकास और पैसे के अर्थशास्त्र को समझाते वक्त अपने सपने की क्रूर कविता कह रहे थे, ‘जब भी मैं इन बदसूरत खेतों की बदमस्त फसलों को झूमते देखता हूं, मेरा सपना मेरी पलकें नोंचने लगता है….’. उस फिल्म की सिर्फ यही यादगार याद है और फाइंडिंग फैनी की अच्छी बात यह है कि उसके पास थोड़े ज्यादा हथियार हैं. उसके पास नसीर हैं, पंकज कपूर हैं, डिंपल कपाड़िया हैं, आश्चर्यजनक रूप से दीपिका हैं, और एक यात्रा है. लेकिन कहानी नहीं है.
जब हमारी फिल्मों के पास कहानी नहीं होती और वे यात्राओं पर निकलती हैं, हम अभिनेताओं, उनके कम खराब या अच्छे अभिनय, आला दर्जे की सिनेमेटोग्राफी, हास्य, और फरसी पर फोड़कर तोड़े गए दर्द में उस फिल्म का जीवन तलाशते हैं. इस तरह के जीवन की तलाश हम फाइंडिंग फैनी में भी करते हैं. चूंकि फिल्म यात्रा पर निकलने से पहले की तैयारी सलीके से करती है, अपने दिलचस्प किरदारों और उनकी सोती-सी मगर उलझी जिंदगियों की झलक दिखाकर हमें अपने ज्यादा करीब सरका लाती है. ये आनंद के पल हैं और हम सफर करने को लेकर उत्साहित हैं. फिल्म कहानी की नींव में इतना लोहा डालती है, इतनी उम्मीद जगाती है, कि आसमान को जल्द ही छूने वाली उसकी इमारत की आखिरी छत जल्द ढले, इसका हम सपना पाल लेते हैं. और यहीं गलती करते हैं. सफर पर निकलने के बाद फाइंडिंग फैनी को याद ही नहीं रहता कि उसके साथ हम भी सफर में हैं. वह खुद घमंड से है, चाहती है कि उसके सफर को हम समझें, हमारे सफर को वे नहीं. फिल्म अपनी पूरी यात्रा में हमें इंतजार कराती है. कुछ अच्छा, दिलचस्प, नया, विकिड, रोचक होने का. यह ‘इंतजार कराते रहना’ उसके लिए शायद एक खास किस्म का स्वाद है जिसे एक्वायर करना होता है, या फिर यह एक पीड़ादायक यात्रा है जिसमें दर्शक को पीड़ा का अहसास हरदम होता है? फाइंडिंग फैनी यही सवाल बनकर रह जाती है.
फिर हम लौटते हैं, वहीं, अभिनेताओं के अच्छे अभिनय में जीवन तलाशने. यहां सुकून मिलता है. दीपिका को ऐसी फिल्में करते देख अच्छा लगता है. वे इतनी परिपक्व हुई हैं कि राम-लीला वाले अभिनय से बाहर निकलकर ठहराव वाला सहज अभिनय करने लगी हैं, बड़ी बात है. अर्जुन कपूर के अभिनय पर इस बार हम कटाक्ष नहीं कर रहे, और भी बड़ी बात है. डिंपल कपाड़िया आखिरी बार ‘बीइंग साइरस’ में अभिनय करती मिली थीं, और इतने साल बाद अब फाइंडिंग फैनी में.
एक अनूठी यात्रा का वादा करके पीछे हट जाने वाली यह फिल्म फिर भी आप देखिएगा जरूर. नसीर के लिए. थोड़े पंकज कपूर के लिए. इसलिए भी कि शायद आपको फिल्म की यात्रा पसंद आए, समझ आए. समीक्षक को आए न आए.